Thursday, December 24, 2009

ज्ञान या भक्ति

ओम राघव
जिज्ञासा मानव की रही सदा, सब कुछ जान ले,
दृष्टि से ओझल, उस असीम विस्तार को मान ले।
बहुत कुछ का मिला पता , पर असीम के भी पार क्या?
खोज से सुविधा मिली, पर असुविधा बन दूसरे की
जान ले सब कुछ उसका नाम तो ज्ञान ही,
नाम न आकार, स्थान विशेष पर रहता नहीं
पर सब कुछ जान लेना , क्या है इतना सहज ,
प्रश्न पर प्रश्न उठता , उपजता ज्ञान में है महज
विचार, कर्म देंगे अद्भुत ऊर्जा संवेदना?
न नाम न आकार स्थान- ज्ञात यह नहीं मानता,
उससे भी आगे और क्या? क्यों नहीं जानता।
पर भक्त की कल्पना ने नाम - आकार सब गढ़ लिए,
उसको लगा कल्पना ने संदेह सारे शांत कर दिए
संवेदना , अद्भुत ऊर्जा अनुभव में आने लगी,
इन्द्रियां शिथिल, शांत मन, दृष्टि दूर तक जाने लगी
विचार कहाँ से उपजता, कौन है जो बोलता,
वेदना आती कहाँ से, स्वयं को न तोलता
असीम विस्तार उसका, अज्ञान ढकता ज्ञान से,
अगोचर, असीम भला जान पायें कैसे उसे?
जिज्ञासा जानने की बलबती होती गयी,
उत्सुक जानने को सब कुछ , ज्ञान की महिमा यही
न जानना चाहे सब कुछ अज्ञानी बन केवल समर्पण,
सब कुछ जान सकता ही नहीं, बेकार जानना सब कुछ
उत्सुकता से केवल क्या जान पाया- सब कुछ क्या कहाँ?
पर अंत में देखा यही सब कुछ अधूरा ही रहा
समर्पण - गुलाम की सुन्दरता पर मुग्ध केवल ,
नहीं प्रयत्न उत्सुकता की कहाँ से कैसे और केवल
रंग रूप , उसका पाया जानने की जरूरत फिर कहाँ?
ज्ञान के प्रयत्न में परिश्रम का फिर अधिक मोल क्या?
समर्पण मात्र में शांत जिज्ञासा हुई,
बस महत्वपूर्ण, एश्वर्याशाली शक्ति वही
ब्रह्म कहलाती, ईश्वर खुदा, जो भी नाम दो
गोचर-अगोचर वही सब सामर्थ्यवान वो।
मन का सहारा इन्द्रियों के पार वह जा सके,
शक्ति इंद्रियों की सीमित, असीम कैसे पा सके?
खोज में. या समर्पण करे? चुनाव मानव करे
मन ही पहुंचा सके-कौन मैं? आया कहां से?
आत्मा का भान, मन ही करेगा।
साक्षात मोक्ष की चाह संभव करेगा।।
-२७-११-०९

Tuesday, December 22, 2009

सत्य क्या

अपने अपने ढंग से विद्वान् कहते -
" एक सद विप्र बहुदा बदंति "
एक सत्य , शेष सब है भ्रान्ति
स्वयं को न जान सके और क्या जाने भला?
में कौन- आया कहाँ से - भ्रान्ति या भ्रान्ति से निर्मित
इन्द्रियों से दीखता भ्रान्ति जब !
भ्रान्ति-आगे पीछे , ऊपर नीचे - में भी भ्रान्ति
के कारण ही भाष्ता ? असत्य - भ्रम केवल
बाद और प्रतिवाद करता - जो भी मिलता
उत्पनं - संवाद होता- भ्रान्ति क्या वह भी नहीं
" वादे - वादे जायते तत्व बोध "
सब कुछ भ्रान्ति है फिर इसका - उसका
मेरा - अस्तित्व कैसा ? भ्रान्ति तो असत्य है
अभिमान- यथा- कथित अभिजात्य वर्ग का -
पैर केवल वह उनमे नहीं मुझ में और तुझमें
भी भर गया है
स्वयं की पहिचान भूल- स्वयं भ्रान्ति बन गया में
प्रत्येक जन को - संबोधन प्रेम से वाणी द्वारा
भी भूल बैठा भ्रान्ति को सत्य मान
न छोटा - न बड़ा कोई - आभाव से सर्वमान्य
कैसे बने - भावना हो गयी प्रदूषित
सामाजिक सोहार्द - लोक व्यव्हार से बनेगा
भाद्र्भावना से मुक्त व्यवहार - हो धर्म का
पर्याय बनता
आभाव में सत्य दूर होता गया- सबसे अधिक
समीप गर कुछ था - या है वहन सत्य कैसे भाष्ता
सब का- सब के लिए बहन होने लगे-
सत्य की और कदम चलने लगे समझो -
निजत्व नहीं मोलिकता नहीं तत्व ही जब एक है
भिन्नता से उपजता दोष - अभिनता ही सत्य है
दीख पड़ती अद्भुत प्रतिभा- सर्वमान्य , पावन- प्रतिक
उच्चता - दीख पड़ती सत्य -
की और - अभाष - उसी से सत्यम शिवम् सुन्दरम का
ओम राघव
०९-१२-2009

Saturday, December 19, 2009

बुढ़ापा

आज का युवा कल का बूढा है, पर-
कल-जिसे युवा न देखता, न सुनना चाहता है
लगता एक व्यवधान जिन्दगी में, उसको सुनना भी,
जिया जीवन, भी बड़े अनुभव का नाम भी है,
जन्मना-मरना सत्य है- पर बीच का
जिया- जीवन अवश्य नाटक मात्र है
पात्र बन्ने के बाद अभिनय अनिवार्य है?
या मजबूरी ?
जीवन ताकि चल सके- हेतु बनाना पथ सरल
चाहता मरे नहीं, सब कुछ ज्ञात रहे सुखी सदा
मूल में सत - चित, आनंद की चाह
आस-पास का वांग्मय - संसार में आकर परिचय मिला,
संस्कार बस मिला- कृत्य अपना स्वयम का
समाज-परिवार ने- चलना, फिरना व समझ दी ,
सायद कदम एक भी स्वयं न चल सका
चारों और जीवन देखा, मरण देखा, लोगों का,
संघर्ष देखा- पैदा - प्रेम लेकर हुआ-
इर्ष्या , क्रोध, लालच संघर्ष कहाँ से आ गया ?
समझ का फेर संस्कारों में त्रुटी कहाँ से आ गयी ?
करने पैर विचार, आती अवश समझ,
संस्कृति, आप्त पुरुष अध्यन आचरण से
बहुत कुछ बतला गए
धारण हम करते नहीं आचरण में सर्वथा -
आभाव उनका , भंवर में गिर निकलना हम चाहते
लाखों वर्षों से चलता सिलसिला - एक जाता
एक आता - पर न सीखना हम चाहते
जीवन स्वयं का सिखाता बहुत कुछ
न स्वयं सीख पाते - पर सीख अन्य को
ऐसी सीख दो - जीवन यापन के लिए
मार्ग हो सुगम
करता कठोर संघर्ष आशा में बच्चे बनेंगे सहारा
बुढ़ापे का होम देते सारा जीवन - अपने सुख चैन का
बलिदान कर
सुख-सुविधा से संपन्न संतान हो-------
आभाव जो देखा- न देखना पड़े उनको ,
पर क्या सहारा मिला- चल चित्र बना बागवान का
मिलता नहीं - आभाव समय का परिस्थिति का ,
बुरा समझने का न किसी का अधिकार है -
मिला - मिलता रहा अपना ही संस्कार है
जन्म- जात मरना शेष रहता है ,
भोग संग्रह छोड़ समर्पण कर उस ब्रहम की शरण में
शांति का मार्ग - शेष जीवन जहाँ से मिला-
उसी को सोपना - यही आखिरी काम है
ओम राघव
३०-११-2009

Monday, November 23, 2009

विडम्बना

ओम राघव
असल जिन्दगी से कुछ परे-परे सा
सरल सीधे बन्द रास्ते दिखते हैं
है दूर भाव विचार बोध, आम आदमी का जिनसे
समझता आकाश की बातें
साइबर दुनिया की बातें
हर मंगल अमंगल स्वाद की बातें
मगर होरी के लिए ये आज भी हैं परीलोक की बातें
यंत्रवत कर्म-अकर्म कर, न सुध फिर पड़ोस परिवार की
विकास की दौड़ में खुदगर्ज मानव हो रहा
समभाव का रोना, नाते-रिस्ते सब गौण हो गए
इच्छा बलवती दिन-रात सम्पत्ति बढ़ाने में लगी
प्रेम का पैमाना ही मात्र धन हो गया।
न अन्नाभाव, न जलाभाव, निर्धन अशिक्षित रहे न अकिंचन कोई
दरिद्रता न दिखाई देगी किसी ओर
उद्घोष चुनाव समय करते नेता दीखते चारों ओर
कृत्रिम अभाव आवश्यक वस्तुओं का कर
जिन्दगी दूभर बनाई आम आदमी की
सब हों सुखी निरापद, निष्कलंक सदाचारी
फिर जिम्मेदारी किसकी?
विकसित होना सुन्दर लगे सबको,
कली से विकसित फूल सजाता प्रसाद, मंदिर मस्जिद समाधि आदि
उसकी उपयोगिता का दायरा बढ़ाता है
विकसित हों शहर कस्बे, गांव प्रकृति को रंजित बनाता है
अवश्य ही लगता भला हर प्राणी और जीव को
पर फूल कुछ विकसि, होने से पहले तोड़ लिए जाते हैं
मसलते अरमान, छीनते सुहाग, सिंदूर मंगलसूत्र का
रक्षा सूत्र भी बनते विडम्बना इस कथित सभ्य समाज की
घृणा मूलक, उन्मादी भावाशेष बिगाड़ता समाज
और वातावरण विश्व का
धन हो रहा इकट्ठा, सीमा न हो जिसकी
तृष्णा बढ़ती रहेगी
संतोष धन नहीं जब तक पास आपके
विकास करने को धन मिला न लगता विकास में
बनता कारण कितनी विडम्बनाओं का
कहां तक गिनाएं उन्हें, भ्रष्टाचार लीलता विकास को
रोकने को तन्त्र कितने, पर फिर भी रहता है चरम पर
पुलिस तंत्र विशेष गुप्त रक्षातंत्र न्याय तंत्र अनेक बने
सीधा स्वस्थ शिक्षित व्यक्ति ही लाचार बने
भारी व्यय प्रशासन-व्यवस्था पर समाज की सम्पत्ति का
फिर वही समाज रहे दूर सुरक्षा न्याय सेवा साधन
रोने पर भी असहाय बना आम आदमी
विडम्बना पीड़ा बनाती हत भागिनी
और इसे क्या नाम दें,
आज के आदमी की खोज महामानव के लिए हो रही
पता नहीं अस्तित्व है भी उसका
आवश्यकता अविष्कार की माता है
विडम्बना बन रही आधार जिसका।
१५-०९-०९

Sunday, November 15, 2009

आम आदमी

ओम राघव
प्रकाश के पीछे अंधकार का ज्वर,
कर्म के लिए प्रतिरोध का स्वर
लौट आती आवाज टकराकर
दूर कहीं क्षितिज से।
होने या न होने का प्रश्न, प्रतिरोध बनता,
हो सादगी से सोंदर्यबोध, दूर होता,
वैचारिक दृष्टि में भिन्नता ही दीख पड़ती।
स्नेह मिलन कैसे, लोभ संवरण व्यवधान बनता।
संसार से मोह, लालच जीवन और जीने का लालच
मौत का भय, अंधकार आवरण बनता।
उत्सुक निगाह, करुण कहां किस के लिए?
कृत्रिम रोग में हम रंग गए हैं,
सादगी के सौंदर्य का बोध कैसे
और ऊंचा उठने का, ऊपर आकाश में उड़ने का।
आनन्द न देने देखता, आनन्द सादगी का।
उठते तभी प्रतिरोध के स्वर।
विचार भिन्नता, द्वंद्व युद्ध ही पैदा करे,
युद्ध वाहक न बनते शांति निर्माण के
मानव हितेषी नहीं होती युद्ध की विभीषिका?
आदर्श अनुशासित बने समाज की व्यवस्था
फिर रह जाती कोरी कल्पना
नैतिकता न्याय आर्थिक समानता
बनते अनैतिकता अन्याय असमानता मूलक
हो जाता युद्ध अनिवार्य वहां।
समझते न मूल्य जब नैतिक संवाद के
डरपोक बुजदिल बना मोह संसार से जीवन की लालसा में
नैतिकता समाज की तत्व ऐसे
प्रज्वल्लित करते प्रतिरोध का स्वर ही
समाज, राज बिगड़ता पीठ ठोकी जाती
अव्यवस्था भ्रष्टाचार निदान कैसे हो उनका
आदर्शहीनता अनुशासनहीनता को ही
जब प्रगतिशील उसे मानते
सीधा सरल आदमी आशा करे
आदर्श व्यवस्था की
पर होती कहां सुलभ आम आदमी को।
(२३-०९-०९)

Thursday, November 5, 2009

भग्न - पोत का तख्ता

भग्न -पोत से जुड़ी नाव का तख्ता बन,
युगों से बहता रहा हूँ ।
स्मृति यदपि उसकी कुछ नही ,
नही कल्पना, बोध कुछ होने लगा है ।
या फिर -
अकिंचन, रस-रंग गंध बिन, ऐसा कुसुम,
फेले हुए असीम विस्तार बन का ।
न देखा किसी विश्व मोहिन की आँख ने ,
न बना श्रृंगार, देवालय, न किसी प्रेयसी का -
भेंट या उपहार का संदेश ।
दूर रूप, रस, गंध से, मन बेल पर फूली रही है,
अहम् भावः तिरोहित, ज्ञान-राग-सम हो गया ।
फल, बन कुसुम का अवश्य ही उत्तम मिला,
तटस्थ भावः बना मन का आनंद दाता ही बना है,
श्रम-कर्म की खोज मन सब कहीं खो गई है ।
अब तो शान्ति की दिखती झलक ,
आनंद दाई बन रही है ।
दूर कहीं शोर- प्रदूषण से,
मंजिल नई मिल गई है -
भग्न - पोत का तख्ता सहारा ही बन गया है ,
चलता रहा है, चलता रहेगा -
किनारा बन, मिल कर नया है ।
तैरकर असीम सागर में ,
थकान को नही मानता है ।
बहते-बहते युग बीत जाऐ पर नही वह मानता है,
बहता रहा - बहता रहेगा,
किनारा जब तक मिलेगा -
किनारा ही मिला, अन्तिम सहारा जो बनेगा ।
ऑम राघव
२४-१०-०९



Wednesday, November 4, 2009

संदेश

मुंडेर पैर बेठा कागा,
संदेश देता था कभी, उनके आगमन का ।
अब न संदेश आता,
काग के द्वारा न डाक के द्वारा,
बस गए दूर, या बीत-रागी हो गए ।
छोड़ दिया वह देश, संदेश आता था जहाँ से ,
दिन, ऋतुएँ और बर्ष कितने ही बीत गए ।
पर नही संदेश आया ।
अब न साहश, गिन सकें दिन, महीने साल युग,
लगता अब कितने युग बीत गए ।
मोह जो लीलता था, सांसारिक बना कर,
भला हो उनका, समझ ने समझा दिया ।
दूर कर मोह को, विरह ने वास्तविक बना दिया,
हर पल भला होने को तत्पर है ।
पर हमने ही हर पल को मलिन बना दिया ,
बने सकारात्मक सोच बनाती समझ,
जिसे जमाना बुरा समझता, भला उसमे खोज लेती ।
दृष्टिकोण ही बन जाता करना, देखना सबका भला,
भड़कीले शब्द चटक नारे , राजनीती को दौर की तरह ,
न आ आएं मन में कभी उनके लिए ।
संदेश देना था , उन्होंने दे दिया था , तभी अपने अस्तित्व से,
आज भी दे रहा संदेश न आना संदेश उनका ।
लाइन और प्रष्ट हो बेकार, अपने आचरण आदर्श से ,
संदेश बड़ा पहले ही मिल गया है ।
ओम राघव
२३-०८-09

Sunday, October 4, 2009

प्रकृति

-ओम राघव

कथित पीढ़ी या पूर्वज कपि बना मनुष्य
मानव बनाने में युगं से
मानव ही ऊर्जा व बुद्धि का प्रयोग करता रहा है
प्रकृति तत्वों का ही सत्व निकाल
या आगे पीछे कर अनेक बदलाव करता रहा है
तत्व न कई निर्मित किया
प्रकृति तत्वं का ही रूप बदल
अविष्कार का नाम देता रहा है
घर में बैठ या आकाश में उड़
सारे विश्व को इंटरनेट से जोड़
एक लड़ी में भी पिरोता रहा है
समाज विश्व हित कार्य कर
देवता बनता रहा है
प्रकृति एक बीज से अनेक वृक्ष फूल फल दे
मानव से अनन्त गुना कर्म कर
विशाल-हृदय का स्वरूप दिखलाती रही है
ऊर्जा प्रचंड पृथ्वी पहाड़ नर्म सबको हिला
अपनी शक्ति दिखलाती रही है
मात्र भाव से हर जीव का ध्यान कर
पर हित करना सिखाती रही है
अपने पास न रख एक से अनेक कर
सम्पदा लुटाने क सदा तत्पर रही है
सद्-गुरु मातृहृदया प्रकृति बताती कैसी हो श्रेष्ठता
मानव को सदा से सिखाती रही है
पर मानव सीखता कितना? वह तो बस
प्रकृति का दोहन ही करता रहा है
अपने दम्भ का प्रदर्शन कर अणु-परमाणु बम बना
सारी सृष्टि को आघात ही देता रहा है
वृक्ष काट पहाड़ काट कारखाने चिमनी युक्त से
पर्यावरण प्रदूषित करता रहा है
प्रकृति के जीव शेर चीते रीछ आदि मार
पर्यावरण को आघात ही करता रहा है
पर्यावरण प्रदूषित मौसम परिवर्तन होने लगे
प्रकृति की नाराजगी भी चल पड़ी
झेलना मानव जाति को संभव नहीं
प्रकृति से विपरीत चलकर
बोझ आपदाओं का हम भोगते रहेंगे
क्या छोड़ पायेंगे विरासत में समझना सरल है

अविष्कार ही बेकार होंगे
समझ मानव सोच में कर ले सुधार
आने वाली पीढ़ी की फिक्रकर
कोसती तुमको रहेगी, बचा जो थोड़ा सा आस्तित्व उसका
बाहरी प्रकृति का ही मत ध्यान कर
अपनी आंतरिक प्रकृति का सुधार कर
स्वहित से अधिक परहित का साधकर
प्रकृति के कोप से मानव जाति
सारी सृष्टि को बचाना चाहती है
स्व प्रकृति को सुंदर भावना से भर।

(०३-०९-०९)

Tuesday, September 22, 2009

सुपात्रता

ओम राघव
अधर्म रत मन करता आमन्त्रण विपदा का
नहीं हो सकता उपचार किसी औषधि से मनका.
शरीर नहीं मन नियंत्रण हो सके जिसका।
संचित सम्पदा से होते हैं प्राप्त अनायस अवसर भी
कुमार्ग से संचित संस्कार ही जीव को रोकते।
जिसे कहते शुभ या मूल्यवान पड़ा, होता सुषुप्तावस्था में,
रतन, मोती, सोना, चांदी खनिज आदि बिखऱे पड़े न दीखते,
होते नजरों से दूर पड़े रहते दीन बुरे हाल में
गहराई में जाने पर ही होते हैं सुलभ
प्राप्ति पर ही दिखाई देने लगती है उनकी सार्थकता
उनकी शुभता और मूल्य भी
आंतरिक प्रकृति भी पड़ सुषुप्ति अवस्था में
जाग्रत हो सके सुलभ है ग्यान विग्यान लोक परलोक भी
संचित सम्पदा भी ले चलती जीव को
जहां उसका जाना अभीष्ठ है,
प्रथम चरण मूर्छा से जागना विकसित हो सुपात्रता
तब सभी कुछ सहज है,
चेतना की उच्चस्तरीय संवेदना ही कहलाती ब्रह्म है
पात्रता के अनुरूप ही सुलभ होते परिणाम है
लक्ष्य बड़ा चाहिए पात्रता की बड़ी उत्कृष्टता
गुरु की आत्मा परमात्मा की प्राप्ति
सुपात्रता के चलते अवश्य होती सुलभ है
विकसित सुपात्रता से भी सभी कुछ सहज है
उत्तरदायित्व किसी अन्य का नहीं
स्वयं ही विकसित करनी है सुपात्रता
स्वतः ही देख लोगे क्या क्यों आना जीव का
आभास होने लगेगी अपनी अमरता।
(०६-०९-०९)

Wednesday, September 16, 2009

मोक्ष

-ओम राघव
कभी घऱ द्वार आंगन समाज
खेत जंगल श्मशान
लगते थे अपने सभी
थोड़े समय का साथ ही जिनका मिला
वे सब ही गुम हो गए।
लगता वैसा कुछ अस्तित्व में था नहीं
स्वप्न भर लगता अब तो
देखा पिछले किसी जन्म का
बड़ी पीड़ा लगी बरसों सालती रही मन को
छूटे या छोड़ना पड़ा, पर सिलसिला जीवन भर चलता रहा
स्थान दर स्थान रह-रह छोड़े
जीवन के हर मोड़ पर
विदाई का सिलसिला चलता रहा
स्थाई कोई मुकाम होता नहीं
जीवन का यही अनुभव रहा
पर मन चाहता स्थायी मुकाम
शान्ति जिससे मिल सके
स्वप्नावस्था को हम क्षणिक मानते हैं
जाग्रत अवस्था स्थायी करके जानते हैं
भेद जीवन मृत्यु का सा पर दोनों एक से हैं
मन के सारे खेल, स्थूल-सूक्ष्म शरीर को साथ ले खेलता है
जीव को लपेटता है
लगता बंध गया इनके मकड़जाल में
हर जन्म ले जीव खेल यही खेलता है
चाहता है पार जाना, पर प्रतीती को न मिथ्या मानता है
स्वप्न मिथ्या भ्रम मिथ्या, माया जो चाहे नाम दो
नाम रूप को जो मिटाना जानता है
फिर ब्रह्माण्ड में अनेक हलचल और प्रतीती
प्रकृति सबको स्वप्नवत मिथ्या मानता है
तत्व केवल एक ही जब जानता है
स्वयं को परमात्मा का अंश नहीं
परमात्मा ही मानता है
तभी वह अपने गलत कार्य के लिए
दोषी स्वयं को मानता है
कार्य कर अच्छे सुधरना जानता है
पहचान पाता है ब्रह्मांड कुछ और नहीं
वही सारा ब्रह्मांड है-तभी
सबसे प्रेम करना जानता है
एक तत्व की एक सत्ता की
स्वयं ही पहचान होती
मोह माया स्वप्न का वह
स्वयं जिम्मेदार है
भ्रम हटा शान्ति मिली
वह मोक्ष को पहचानता है।

(२७-०८-०९)

Monday, September 14, 2009

ज्ञात या अज्ञात

-ओम राघव
दीखता अदीखता विश्व ब्रह्मांड
विस्तार उसका अस्तित्व उसका
देखना संभव न हो दूरबीन आंख से भी
मानव ज्ञान पाएगा उसे?
ब्रह्माण्ड कैसा?
और भी अनेक ब्रह्माण्ड नम के द्वार स्थित
जिज्ञासा होती है और भविष्य में होती रहेगी
जाना जितना प्रकृति को लाभ मानव ने उठाया
पूर्ण रूपेण जानना जिसका असम्भव।
रचना जटिल, उसे पढ़ना गुनना कठिन,
क्यों और कैसे बना?
विशाल अणु-परमाणु, तेज या शक्तिशाली पुन्ज को
अनन्त गुना-तेज शक्तिशाली अणु या परमाणु
तेज या शक्तिशाली पुन्ज को
अनन्त गुना-तेज शक्तिशाली अणु या परमाणु,
जो कहो या फिर नाम दो
मानव जान पाया बुद्धि या भौतिक विकास से
जो किया अब तक किया
जाना बहुत कुछ पर रहा शेष अनन्त गुना जानना
बहुत कुछ पाने के बाद कई युगों का अनुभव जुड़ा
जन्म देखें, मृत्यु देखो उसके बाद
हर बार जंजीर में बंधुआ बन युगों की शृंखला
पर क्या शान्त जिग्यासा हुई?
तब फिर कल्पना में खोने लगा
परे दूर बहुत दूर
खोजने का उपक्रम करने लगा
पर शान्ति बना आकाश कुसुम
अशान्ति का ही विस्तार होने लगा
मुड़ चला बाहरी सीमा को छोड़ अंतर की ओर
हार-थक कर
चमत्कार सा होने लगा
समाधान मानो मिल गया
दूर समझा था जिसे
वह अंतर में बैठा मिला
ब्रह्माण्ड का विस्तार भी और सजीव शान्ति।
(१३-०८-०९)

Tuesday, September 8, 2009

दादा जी का संकलन-भाग ५

सफलता का मंत्र

ओम राघव
जीवन में सफलता हर कोई चाहता है, मगर यह उन्हीं को मिलती है, जो खुद को एक अनुशासन में ढाल लेते हैं। अनुशासन व्यक्ति को विश्वसनीय बनाता है। अगर समाज आप पर विश्वास करने लगता है तो आपको अधिक अवसर देता है। इस तरह आपकी सफलता की दर बढ़ जाती है। इसके अलावा आठ अन्य ऐसे कारक हैं, जो जीवन में व्यक्ति की सफलता तय करते हैं-
१. निर्णय शक्ति - यदि आप सच-झूठ, कर्तव्य- अकर्त्तव्य, मर्यादा-अमर्यादा में स्पष्ट भेद आसानी से कर लेते हैं तो यकीन मानें की आपके निर्णय आपको सफलता दिलाने वाले होंगे।
२. साहस- निर्णय लेने के लिए साहस की भी जरूरत होती है। कई बार आपको सबके भले के लिए प्रचल्लित सोच से अलग हटकर निर्णय लेना होता है। छोटी-छोटी समस्याओं से घबराने वाले सही निर्णय नहीं ले पाते। इसलिए साहस आपकी सफलता की दर को गति देता है।
३. सहन शक्ति - किसी भी निर्णय को कोई आसानी से नहीं स्वीकारता। आपको कटु आलोचना का सामना भी करना पड़ सकता है। अगर आपको लगता है कि आपका निर्णय ही सबके भले में है तो सिर्फ आलोचना से डर कर निर्णय नहीं बदलना चाहिए। आप में इसके लिए निंदा सहने की शक्ति होनी चाहिए। मान-अपमान के क्षणिक बोध से ऊपर उठकर ही ऐसा संभव है।
४. व्यापक दृष्टिकोण - आपका दृष्टिकोण सागर की तरह व्यापक होना चाहिए। दूसरों की बातों को खुद में समालेने की शक्ति होनी चाहिए। इतनी गंभीरता आपको सफलता की ओर ले जाएगी।
५. विस्तार - विचारों का निरंतर विस्तार होते रहना चाहिए। इसके लिए आपमें जिग्यासा और बाहरी ग्यान को समेटने की शक्ति होनी चाहिए। ऐसा होने पर आपके व्याख्यान और संदर्भ सटीक होंगे और वे सही निर्णय तक आपको ले जाएंगे।
६. स्नेह और सहयोग- आपका वर्ताव स्नेह और सहयोग वाला होना चाहिए। अगर आप सबको सहयोग देंगे तो आपको भी जरूरत पड़ने पर सहयोग ही मिलेगा।
७. श्रम और कर्म - श्रम और कर्म का बहुत महत्व है। अगर कर्म ही नहीं करोगे तो सफलता कहां से मिलेगी।
८. परखने की शक्ति - लोगों को परखने की शक्ति लगातार व्यवहार से आती है। इसके लिए अधिक मोल-जोल और दोस्त बनाने की आदत डालनी चाहिए।

Tuesday, September 1, 2009

दादा जी के संकलन से -भाग ४

अहंकार - यह व्यक्ति के जीवन के लिए सबसे ज्यादा समस्याएं पैदा करता है। अहंकार से मुक्ति के लिए विद्वानों ने चार मार्ग कहे हैं-
१. वाक संयम - वाणी का संयम सबसे अच्छा उपाय है। व्यर्थ की बातों में शक्ति नष्ट होती हैं, आवश्यक्तानुसार बोलना ही लाभकारी होता है।
२. स्वार्थ त्याग - स्वार्थ के कारण ही मनुष्य का अहं भाव उस पर हावी होता है। अतः एक दूसरे का ध्यान रखते हुए जीवन को सुन्दर बनाना चाहिए।
३. योग साधना - मन को विरत करने के लिए मनुष्य को ध्यान योग की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। मन के एकाग्र होने पर क्लेश निराश आदि समाप्त होते हैं और अहंकार की उत्पत्ति ही नहीं होती।
४. विवेक- स्वाध्याय से मनुष्य में विवेक और बुद्धि जाग्रत होती है। विवेकशील व्यक्ति अहंकारहीन ही जाता है।

Sunday, August 30, 2009

दादा जी की संकलन से - भाग ३

समस्या
१. जीवन में जो समस्याएं होती हैं, वह मूलत हमारी इच्छाएं होती हैं।
२. ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई समाधान न हो।
३. समस्याओं को हम सुलझाना नहीं चाहते, क्योंकि हमें उनके साथ जीने की आदत पड़ जाती है।
४ हम समस्या रहित जीवन की उम्मीद करते हैं, यही सबसे बड़ी समस्या है।
५. कुछ लोग समस्या को इस तरीके से सुलझाते हैं कि कोई नई समस्या पैदा कर जाते हैं।
६ कुछ लोग समस्याओं को दूसरों के जरिए सुलझाते हैं, मगर चाहते हैं कि दूसरा उनके ही तरीके से सुलझाए, इस तरह यह भी एक समस्या बन जाता है।
७. समस्याओं का समाधान की तलाश में ही इतने पंथ बने। इन पंथों का आपसी टकराव फिर समाज के लिए नई समस्या बना।
५. समस्या के समाधान के लिए शासन व्यवस्था बनी। मगर इस व्यवस्था में व्यक्ति समूहों से प्रति दिन होने वाली गलतियां अनेक समस्याएं खड़ी करती हैं। प्रशासक के स्तर पर होने वाली गलती और भ्रष्टाचार से पूरा समाज समस्याग्रस्त होता है।

(विद्वानों के कथनों का संग्रह)

Friday, August 28, 2009

दादा जी के संग्रह से-भाग २

चार तरह की मानसिक तरंगे होती हैं, इन्हीं में दुख और सुख की अनुभूति छिपी है।

१ अल्फा- जब मस्तिष्क शांत, निष्क्रीय, तटस्थ और तनाव रहित होता है, यह प्रति सैकेंड ८ से १३ की आवृति (फ्रीक्वेंसी) करती है। ध्यान में स्थित योगियों में अल्फा तरंगे सक्रिय होती है। साधारण आदमी में भी जब यह उठती हैं तो आनन्द का अनुभव कराती है। अर्थात कुछ चीजों के दृश्य या श्राव्य प्रभाव से यह उत्पन्न होती हैं तो मानव आनन्द की अनुभूति करता है।

२. बीटा - इन तरंगों की आवृति प्रति सैकेंड १४ या उससे कुछ ज्यादा होती है। जब आदमी एकाग्रचित होकर किसी काम को करता है जैसे हिसाब-किताब या कोई गुत्थी सुलझाना। तभी यह सामान्य मस्तिष्क में सक्रिय होती हैं।

३ थीटा- प्रति सैकेंड ४ से ६ आवृत्ति, अर्द्ध निद्रा की अवस्था में यही तरंगे सक्रिय होती हैं।

४ डेल्टा- प्रति सैकेंड १ से ६ आवृत्ति होती है। ये निद्रा की अवस्था में ही सक्रिय होती हैं, जाग्रत अवस्था में नहीं होतीं।

मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में अल्फा और बीटा तरंगे एक साथ भी उठती रहती हैं। अंतमुर्खी व्यक्तियों में अल्फा तरंगे ज्यादा उठती हैं। अल्फा तरंगे आंतरिक कुम्भक और त्राटक के द्वारा भी मस्तिष्क में उत्पन्न की जा सकती हैं। त्राटक एक जगह ध्यान केंद्रित करने की क्रिया है। इस तरह मन को स्वस्थ्य रखने के लिए कुम्भक और त्राटक बड़ी ही उपयोगी क्रियाएं हैं।

(ओम राघव के संकलन से)

Thursday, August 27, 2009

दादा जी का संकलन - आध्यात्मिकता की ओर

दादा जी महान विभूतियों के विचारों और जीवन उपयोगी बातों का जो संकलन तैयार किया है उसमें से कुछ अपनी रुचि के अनुसार में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं -
बातचीत के शिष्टाचार नियम
१. दूसरे की बातचीत भी ध्यानपूर्वक सुनें।
२. अपनी बारी आने पर ही बोलें।
३. सभी को बोलने का समान अवसर दें।
४. अपनी बात को जबरन मनवाने का प्रयास न करें।
५. आवश्कयक हो तो चुप रहें।
योग के ८ आंग जो शास्त्रों में कहे गए हैं वे इस तरह हैं -
१. यम- अहिस, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
२. नियम - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रावधान
३. आसन - सुख पूर्वक, बैठना आसन कहलाता है। आसन ८४ होते हैं।
४. प्राणायम - जीव द्वारा प्राण वायु का लेना और छोड़ना
५. प्रत्याहार-उपवास, अल्पाहार और मितहारी होना।
६. धारणा -चित्त का किसी केन्द्र पर केन्द्रित कर देना। योगी २१ मिनट ३६ सैकेंड बिना श्वास के रह सके तब अनायास धारणा की सिद्ध हो जाती है। धारणा की सिद्धी से ध्यान के अभ्यास के योग्य योगी हो जाता है।
७. ध्यान- ग्यान एक सा बना रहना। जब मन निर्विषय हो तो वह ध्यान की अवस्था है। यह ४३ मिनट १२ सैकेंड की होती है।
८. समाधि- ध्यानावस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय। इन तीनों का ग्यान बना रहता है परन्तु जब ध्याता भूल जाता है कि वह ध्याता है, ध्यानरूप क्रिया भी भूलकर केवल ध्येय ही उसके लक्ष्य में रह जाता है तब इस अवस्था का नाम समाधि कहा जाता है। समय सिद्धि १ घंटा २६ मिनट और २४ सैकेंड समाधि की सिद्धि।
मोक्ष के साधन - यौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्रश्रवण, तपस्या, स्वध्याय, स्वधर्म पालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्त सेवन जय और समाधि।
( ओम राघव के संकलन से)

Tuesday, August 25, 2009

सुधीर राघव: वेद कालीन स्त्री - स्वतंत्र और पूजनीय#links

सुधीर राघव: वेद कालीन स्त्री - स्वतंत्र और पूजनीय#links
पढ़ने के लिंक पर क्लिक करें।

सुधीर राघव: पुराणों की हिन्दू स्त्री#links

सुधीर राघव: पुराणों की हिन्दू स्त्री#links

पुराणों में स्त्री को ब्रह्महत्या के दोष से पीड़ित तक कहा गया है और यह दोष उसकी काम आतुरता की वजह से उसे मिला बताया जाता है-

Monday, August 24, 2009

आधुनिक कविता या अकविता

-ओम राघव
पुराना राग लगता बेसुरा, आधुनिक कविता सुनाओ,
पुरानी कविताएं सुन चुके, नया राग अब गुनगुनाओ।
मुस्कराना देख हो चांद मुख, कह डाला था कभी,
मिलन विरह के फेर में, थी बन गई कविता कभी।
मिलन बिछुड़न विरह अब आपका लकता नहीं
था अस्तित्व बाहर भाषता, आज अंतर में वही।
दीखता, क्षण भंगुर, रम अंतर में देता है आनंद वही,
केवल हम सुंदर लगें, वही होता केवल अच्छा नहीं।
वन सम्पदा मरुभूमि समतल लहलहाती भूमि भी
चन्द्र तारे और सूरज अस्तित्वहीन होंगे सभी।
आधुनिक कविता चाहे पात्र आधुनिक देखें,
विकास करती कविता शब्द और अर्थ देखें।
शब्द निःशब्द बने, प्रकृति जीव अविषय बने
भूखे प्यास आत्महत्या दूर हो तभी जीव मानव बने।
उड़ाते मजाक आधुनिक विकास का
बना निर्यात हर शहर नगर गांव कसबे का
लगा बदनुमा दाग सभ्यता के नाम पर
होते हैं करोड़ों अरबों के घपले विकास के नाम पर
विकास हो रहा सिर्फ कागजों पर
रुपया तो पैसा बन पहुंचता निर्दिष्ट स्थान पर
व्यय बजट में प्रावधान का पैसा
हो खर्च वहां जहां के लिए बना बजट
मात्र कुछ माह में ही प्रगति दिखाई देगी
न दिखाई दी जो वर्षों के अन्तराल में
विकासशील देश बने विकसित
राजनीतिग्य संबंधित अधिकारी सुनिश्चित कर सकें यह
कहीं यह स्वप्न रहे न दूर
उस क्षितिज के पार?
दिखाते हैं दिवास्वप्न सब
लेना होता है उनका वोट
जो है कीमती है उनके लिए
सूक्ष्म की स्थूल के प्रति प्रतिक्रिया
किसी भी वस्तु में प्रआम मान व्यक्ति सौन्दर्य
छायावाद कहकर पुकारें
प्राचीनता से मोहभंग राष्ट्रीयता
सामाजिकता धार्मिक चेतना
आदर्शवादी रुख बना द्वेवेदी युगीन
काव्य की संगत संवारें
राष्ट्रप्रेम का स्वर, रूढ़ियों का विखंडन
निर्गुण सगुण भारतेन्दु युगीन कविता कहाये
भोजपुरी, अवधि, मागधी
खड़ी बोली, भाषा ब्रज की अपनाएं
कविता चलती रहेगी, समाज का
मानस विचार ज्यों-ज्यों बदलता रहेगा
तुकांत अतुकांत का दौर भी चलता रहेगा
कहां तक दृष्टि तेरी असीम जिसका भाव हो
रस प्रेम शौर्य संतोष पैदा हो सके
वही कविता बने, चाहे फिर उसे
प्राचीन अर्वाचीन आधुनिक कविता कहो
शब्द घोड़े अर्थ घनेरे
संदेश शिक्षाप्रद बने
वह कविता ही वरदान हो।
(15 अगस्त 09)

Saturday, August 22, 2009

यह कौन अन्तःकरण

ओम राघव
भेद बन नाम रूप, सत्य कहीं जा कर छिपा दिया था,
अगर प्रकट सत्य हो, फिर कहाँ कैसा तिमिर था
नाम रूप स्वर्गिक छवि, प्रकटत: जिसे देखा हुआ,
अंत: प्रेरणा ही सत्य है, तब एसा नही समझा गया
आंनद प्रसूत अंत: प्रेरणा से, कुछ काल तक मिलता रहा,
समझ से दूर था वह, यह आनन्द रहे क्या सर्वदा ?
निज समझ से प्रसूत ग्यान, पर जिसे माना नही,
मानते गर तथ्य उसको, मार्ग साधन का सही
ना समझ या समझ कारण, एक व अनेक थे,
वातावरण या स्वयं दोषी, या समाजी दंभ थे
सत्य मे बाधक रही, स्व, गृहीत, कुत्सित भावनाए,
बनी जीवन की कारण, मानसिक -देविक यातनाएँ
हर शुभ जीवन के लिए, गुण -कर्म राह को ठुकराना,
न उनका अनुसरन किया, न अंतर का निर्देशन माना
सुन्दर आदर्श निर्देशन, कौन समझ तब पाता है,
समझे पूर्व संस्कारों बस, वही गुणी व्यक्ति कहलाता है
हक़ीकत बन छण बेला सी, बन स्वप्न, समझ आता नही,
अंतर की स्पष्ट समझ, तब तिमिर जगत रहता नही
लगता जब सत्य असत्य, कभी असत्य सत्य सा लगता है,
क्षण बदले लगे सत्य असत्य, वह न सत्य हो सकता है,
सत्य की भाषा पहचान सहज, जो एक रस सर्वदा रहता है,
घटता है न बढ़ता और न बदलता है, वह एक सर्वदा रहता है
क्षणिक मिली रोशनी से, त्रशा-तिमिर बुझती नही है,
हरकोण से जो जगमगाए, और स्थायी जलती रही है
वह निरंतर जल सकेगी, बाल-पन से अभ्यास चलता हो,
अनुकरणीय हो अंत: प्रेरणा, बस उसी का ध्यान रहता हो
संदेश वर्षो बाद भी, प्रकाश मुझ को दे रहा है,
दूर करता हर तिमिर को, आस पास मे घिरता रहा है

दोहा
आत्मा अंत: करण से, देती है आदेश ,
सत्य उसे मान लो, समझ बड़ा उपदेश

फिर तेरा कल्याण है, दूर नही फिर देश,
दर-दर तलाश में, घूमा देश - विदेश

Thursday, August 20, 2009

सुख -दुख

ओम राघव
कभी कहकर , कभी देकर दुख , कल्पते हम सर्वदा ,
दैहिक, दैविक और भौतिक, ताप देते हैं सदा।
है कहीं दुख और सुख , ज्ञान में आए नही,
तव देव वह मानव, दुखों को ध्यान में लाए नही।
ना दुख कहीं ना सुख कहीं, हो तटस्थ होकर सोचना,
असर किंचित ना पड़े , चाहे वाणी विरस अशोभना।
परीक्षा मानव - मन की , दिन रात होती है सदा,
नही होना उनसे दुखी, मानस निखरे सर्वथा
दुख आया ध्यांन में, मानव शक्ति नष्ट हो सर्वथा,
शक्ति ही जब नष्ट करली, सोचते फिर भाग्य में ये ही बदा।
सुख- दुख का दाता न कोई, सहने की आदत आ गयी ,
स्वकर्म के सब फल मिलें, समझो की मंज़िल आ गयी।
आत्मसंतोष हो जहाँ, वहां कष्ट आता ही नही,
सोचने का फेर केवल, फिर अन्यथा होता नही।
हो चित में परोपकार- त्याग, जितना सुख मिलेगा,
सुखदाता शुभकर्म हो, तब दुख भला कैसे मिलेगा।
ईर्ष्या ही दुख की जननी है, जो दुख पाने का कारण है,
पर- प्रगति से प्रसन्न रहे, दुख का सही निवारण है।
विपरीत सोच बदलने से, कल्याण अवश्य हो जाता है,
परिश्रम हो- पर हित हो, परिणाम भला हो जाता है।
परिणाम गलत तो परिदृश्य भी गलत ही दिखता है
चिंतन में मिले स्वदोष पर विलोम सा लगता है।
गर भाव मन के ठीक रहे , कर्म स्वत् ठीक हो जावेंगे,
अनुकरणीय, आदर्श कर्म, पीढ़ी की लीक बन जावेंगे।
ठीक लीक पर पेर रखें, परिवार- समाज सुधर जाएँ,
राज्य , समाज स्वत् ठीक चलें, मंत्र मुखर हो जाएँ।
सुधरे दूसरा इस चक्कर में , नही सुधरना चाहते है,
समाज सुधार की आशा केसे? हर जगह बहाना चाहते है।
नत्थू ऐसा-फत्तू ऐसा, नाम अरे बदनाम किया?
जिनने समाज को भ्रष्ट किया, उसने ऐसा काम किया।
आदर्श यहां अनेक हैं, गर इच्छा सुधार की रखते है,
भारत भूमि , विश्वासी भी, ज्ञान की थाती रखते है।
निक्रिष्ठ सोच व करम बदलने है, पर कार्य कठिन सा लगता है,
हम दृढ़निश्चयी बन जाएँ, फिर नही कठिन कुछ रहता है।
जीवन के कई जन्मों की, परिणाम की जाली लगी हुई,
सहज उतर नही पति है, जन्मो की कालिख लगी हुई।
सुख संस्कृति का धरा जननी , महासागर स्वय समेटे है,
महमानव जिनसे आदर्श मिले, वे इसी धरा के बेटे है।
आज पुरषों के आदर्शकरम , गर जीवन मे धारें हम ,
यह धरा स्वर्ग ही बन जावे, काम, क्रोध, दंभ को मारे हम।।
15-03-2002

नासा ने भी कहा-धरती पर जीवन अन्य ग्रह से आया

नासा ने अपनी साइट पर यह जानकारी डाली है कि धरती पर जीवन कहीं अन्य ग्रह से आया इसकी पुष्टि उसके प्रयोग से हुई है। नासा के डॉ जैसी एलसिला के अनुसार नासा के वैग्यानिकों ने जीवन के मूल तत्व ग्लाइसिन को एक धूमकेतु में पाया है। धरती पर जैव विकास की डार्विन से आगे की थ्योरी लेकर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के माल्युकुलर जीव वैग्यानी जैम्स ए लेक भी हाजिर हैं।
इस संबंध में विस्तार से पढ़ें- http://sudhirraghav.blogspot.com/

Wednesday, August 19, 2009

जीवन धुन्ध

-ओम राघव
याद करने पर भी, न वे क्षण लौटते न दिन
न वे बातें लौटतीं और न दादा-दादी नाना-नानी
न माता-पिता मौसी-बुआ का प्यार लौटता
लगता था सारा परिवार और रिश्ते बने हैं अपने लिए
याद आती टीस उठती कहां-कब कैसे गया चला
वह समय जो अब इतना दूर है
किशोर अवस्था खेलते-कूदते बीत गई
प्यार मिला, साथी मिले-जंगल पार्क में
उठते-बैठते
आई फिर स्वर्णिम युग सी लगती युवावस्था
लगता सदा रहेगा फैलता इसका प्रकाश
मिले विचार कहीं नींव पड़ी मित्रता की
कहीं पायी वैर-भाव ईर्ष्या की सामिग्री
अधिक कुत्सित और गर्हित विचारों की शृंखला
आदिम युग में भी न रही जैसी
सभ्यता विकास का ओढ़ रखा आवरण
विकास देखा पर मानवता देखी दूर जाती
पर समझा उसे स्वर्गिक प्रकाश रहेगा
स्थाई या फिर सामाजिक प्रवाह
नित नई सभ्यता की ओर उन्मुख
जब वह जीवन भी समझ न आया
एक अस्थाई पड़ाव
हुआ वह भी विदा
जैसे बचपन भागा छोड़कर
मात्र धुंधली सी यादें लगता
देखा था एक स्वप्न
यौवन की स्वर्ण अवस्था भी हो गई तिरोहित
देखकर कोई दिवास्वप्न जाग पड़ा जैसे गहरी नींद से
समय की गति चलती रही
जो चली है सृष्टि के पूर्व से ही
गति तेज हवा की गति से भी तेज
कैसे कटा?
मधुर स्वर्णिम लगा जीवन
बचपन युवावस्था और जरा
तीव्रतर रही जीवन की गति
आवृत्तियां मात्र मधुर व कड़वे फलों की
वायु की गति न गलती वैसी क्षणिक
जैसी लग रही समय की तेज गति
जो हृदय को इतना सालती
कोई निशां छोड़ आई है नहीं लगता
चीर डाले नहीं तो हृदय के तन्तुओं को
वाहन यान वायु बह रहे हैं आज भी
देती हैं तारोताजगी वैसी ही-जैसे
मां ने लिया हो प्रथम बारी गोद में
जीवन कितनी दर्दीला क्षणिक
पग-पग पर होता अहसास
गया चला कितनी दूर
वह स्थान वह प्यार संबंध मधुर
अब दिखे जो मात्र धुंध ही
हर खेल जीव का, एक लम्हा-एक बुलबुला
कैसा जीवन- कैसा मरण।
कब-किस युग से चल रहा यह चक्कर जीव का
मिले स्थाई मुकाम क्योंकि नहीं ये अंतिम
मुकाम सोचते जो अंतिम परिणाम इसे
भटकाव उनका दूर मंजिल ही रहेगी
और रहेगी परिणाम में केवल जीवन धुन्ध।।
(3 नवम्बर2005)

Tuesday, August 18, 2009

जीव कालचक्र

-ओम राघव
प्रथम बीज अंकुरित हो एक नया चक्कर चलता है,
किसलय पुष्प बन वांड्गमय सुरभित बनता है
प्रसूत फूल या फल से, वह चक्कर चलता है,
कड़ी एक से दूजी, फिर तीसरी जा बनता है।
सिलसिला नहीं खत्म होता कई जन्म तक जाकर
कटते नहीं बंधन, षट रोग से प्रीत लगाकर
ग्रंथि च्कर में पड़ा होता ग्यान नहीं है,
मन माया से निकले, यह आसान नहीं है।
मत अनेक ग्रंथ वैदिक, पंथ भी समझाते हैं
भवसागर हो पार, युक्ति सभी बतलाते हैं।
कहें संत का वरद्हस्त, कल्याण जीव का होता
ग्यान हुआ तो धाम का मिलना सरल है होता।
शृंखला जीवन पर्यंत प्राण के साथ अभिन्न रहेगी
बदले नाम और रूप, निशेष न भिन्न रहेगी।
गर दें छोड़ नाम और रूप, इति इंद्र जाल होता है,
दिखे भिन्नता जब तक, नाम-रूप ही दिखता है।
कहें गर ये फंद आकर अब नहीं कटता है,
चौरासी का चक्कर, भुगतना फिर पड़ता है।
आप्त पुरुषों ने ग्रंथों का सार यही निकाला है,
भव सागर से तरे स्वयं, औरों को तारा है।
युगों-युगों तक जीव, काया रूपी वस्त्र बदलता,
जब तक नहीं वह अपनी मंजिल को पाता।
समझो शुद्ध स्वरूप, आत्म तत्व का ग्यान हो गया,
मिली अमरता, पार जीवन का उद्धार हो गया।
(11 मार्च 02)

Sunday, August 16, 2009

जिन्ना के अनुयायी

बड़ी-बड़ी बातें करते थे
ये कैसे भाजपायी निकले
सावरकर की बात छेड़कर
जिन्ना के अनुयायी निकले।
(यह कविता विस्तार से पढ़ने के लिए इस ब्लॉग पर जाएं-

http://sudhirraghav.blogspot.com/

Saturday, August 15, 2009

जिन्दगी

-ओम राघव
लगती जिन्दगी इक पहेली सी,
पिछले अंक की कड़ी है, सफर जीव का
रहा शेष कल का, भुगतान अब कर रहा,
ले-दे रहा शेष था जो किसी का
खोज पर पता शायद लगे, सिलसिला क्या ये नहीं
चला ये चक्र क्यों और कैसे
समझना कहां इतना सरल,
प्रथम जन्म के कर्त्तव्य रह गए थे अशेष।
जिन्दगी का जोड़ हर मोड़ बनता नव जन्म पर,
चाल जिससे जिन्दगी की सतत चलती रहे
आधार किसी संकल्प का जीव
पूर्णमानव हो गया।
न मिलता सामाजिक परिवेश जीव का क्या पशुवत न होता,
सिखाया समाज ने पीना-खाना चलना फिरना
वाणी दी भाषा अथाह धरोहर दी विचारों की
नहीं संभव था बिना समाज सब
कितना ऋण समाज का।
विचार व्यक्ति की महत्त या समाज की
फिर भी चला समाज निर्माण
व्यक्ति एवं व्यक्तियों के समूह से
व्यक्ति की उपलब्धि प्रगति सभ्यता लायक
बना समाज के लिए
समाज से ही सीखकर
व्यक्ति के बिना समाज समाज बिना व्यक्ति
क्या नहीं अधूरा एक-दूसरे के पूरक
महत्त्वपूर्ण समाज व्यक्ति विशेष के संदर्भ में
सब कुछ पहले सीखा समाज से
वर्षों बाद व्यक्ति ने दिया नई खोज नव विचार
मात्र दो या चार पर बातें हजारों के लिए
वह ऋणि समाज का
समाज की अवहेलना सोचना केवल अपना भला
कर दूसरों की आलोचना हित साधक बन
भूल जाता समाज भी उसे
था अमुक अंग-संग उसका।
प्रगतिवान-चरित्रवान सुन्दर या असुन्दर
कैसा है समाज करता क्या निर्भर उन प्राणियों पर
रहते जो उस समाज में
सार्थकता व्यक्ति के अस्तित्व की
कर्म समाज वास्ते बन शुभ उसका चिन्तन
दे समान अवसर रोजी-रोटी मकान
शिक्षा क्षमता बढ़ाए जिससे
समान अवसर प्रतिभा चमके स्वयं ही,
योग्यता आधार बन निरंतर समाज का
उत्कर्ष ही
जिन्दगी बनेगी एक निधि आपसी सहयोग
कष्ट बिना हो आसान जीना सभी का
दूसरे के सुख-दुख में बांट सके हाथ
मिले परम सुख शांति मन से तन से।
नियंत्रण करना आ गया मन के विकारों पर
समझो जीना जिन्दगी का आ गया।
जीओ और जीने दो का सूत्र और सुयोग
अगर पा गए स्वर्ग बन जाएगी धरा धाम ही
उपजेगा-सुख ही सुख चारों ओर
दूर भाग जाएगी कलह-दरिद्रता।
(01-05-02)

Friday, August 14, 2009

आजा़दी

-ओम राघव
कुछ बोले, आज़ादी मिल गई,
कुछ बोल, कहां आज़ादी
कुछ ने कहा, दुनिया पर छा जाएंगे
कुछ बोले, बढ़ी आबादी।
कुछ कहते, सब लोहा मानेंगे,
कुछ बोले, बस बर्बादी।
सबको सब कहने-सुनने की
है भाई पूरी आज़ादी
जिनको लगता नहीं मिली है
उनको भी तो है आज़ादी।
जय हो आज़ादी। जय हो गांधी।

कान्हा का संदेश

-ओम राघव
कान्हा तुमने कर्म का संदेश दिया
कान्हा तुमने प्रेम का संदेश दिया
कुछ कर्म विहीन तुम्हारे संदेश
के मंदिर बनाकर कमा रहे हैं,
कुछ तुम्हारे संदेश को भुलाकर
तुम्हारे ही नाम पर लड़ रहे हैं।
तुमने कहा है कि यह तुम्हारी ही माया है
मैं इस माया को नहीं तुम्हें प्रणाम करता हूं,
जन्मदिन मुबारक हो।

Wednesday, August 12, 2009

चलते फिरते लोग

-ओम राघव
चलते-फिरते, हाड़-मास के बने मगर कार्टून
बने गुलाब, मधुर रक्ताभ कोई, रीत गए
कितने वंश पीढ़ी दर पीढ़ी न देखा अवसान दिन का
रात्रि का बीत गया कब पहर, ऐसा श्रम किया।
अग्यानता या विवशता
न होता गर इनका श्रम,
विकसित होना तो दूर
कठिन होता विकासशील रहना भी
संतोष भाग्य को निर्णायक मान न दिया किसी को दोष
भले ही हो गया शीलहरण
भोले पक्षियों को बहलाना फुसलाना आसान है
दिखाते उन्हें रहे दिवा स्वप्न
बढ़ाते सामाजिक राजनीतिक प्रभुत्व अपना
फूट वैमनस्यता का बीज बो
धर्म की बातें न सिखा-सिखाते अधर्म ही
कहते धर्म वह -जो वे सिखा रहे सरताज बनकर
विग्रह से तो टूटेगी प्यार की रस्सी ही,
न्योता देगी जो अवांछित क्रांति को
जगती सारी बच सके भारी विनाश से.
संभलो-संभलो कर्णधार देश के
प्राथमिकता हो-मानसिक, शारीरिक आर्थिक
व्याधियों से मुक्त हो समाज
अवश्य ही ऐसी योजना हो।
(5 दिसंबर 2005)

Tuesday, August 11, 2009

पीएम इन वेटिंग

हमें मिले पीएम इन वेटिंग
जिनकी नहीं बची है रेटिंग
पार्टी वाले बात न पूछें
बच्चे ही अब उखाड़ें मूछें
मीडिया वाले आस न पालें
कोई अपना घास न डाले
बोले, भइया क्या बतलाऊं
कैसे अपना हाल सुनाऊं
महंगाई बढ़ती जाती है
भाव सुन फटती छाती है
शर्म नहीं पीएम को आती
रोटी संग अब दाल न आती
सब्जी की तो पूंछो मत ना
घी-दूध हुआ अब सपना
अगर पीएम हमको बनवाते
इतना तो न दुख उठाते।
उनकी सुन पप्पू मुसकाया
झट निकल कर बाहर आया
ऐसा था तो पहले कहते
तब घाटे में काहे रहते
तब हिन्दू-हिन्दू चिल्लाये
आम आदमी की सुध नाय
मंदिर तब इकलौता मुद्दा था
महंगाई में जीव फंसा था
अब बहुतेरे रंग मत बदलो
बुढ़ापे में एक प्रण लो
भला-बुरा पहले विचारो
और एक राह अपना लो
मजहब, धर्म ईमान की बातें
गीता और कुरान की आयतें
सब पवित्र हैं, कैसा भेद
मनवता को मत इन से छेद
आओ करें विकास की बातें
एक अरब की सुख सोगातें।
-सुधीर राघव
11-08-09

Monday, August 10, 2009

बाबा

एक है बाबा, उसका ढाबा
चल निकला तो शावा! शावा!
नहीं थी उसकी महिला मित्र,
देखा उसने तब चलचित्र
मन की कुंठा बाहर आई,
हीरोइन को खरी-खरी सुनाई,
कोई न बोला, सुनकर वाह!वाह!
एक है बाबा, उसका ढाबा,
चल निकला तो शावा! शावा!
बाबा ने तब आंख दबाई,
नहीं मिली उसे कोई दवाई
बस पब्लिक की सांस फुलाई
आंख मूंद कर करी कमाई
उस पर खूब ग्यान का दावा
एक है बाबा, उसका ढाबा,
चल निकला तो शावा! शावा!
जितने गे गुंडे मवाली,
सब पर उसने की कव्वाली,
गालों पर तो भी नहीं लाली
अपने गुरु की साख दबा ली
बुरे लगें गिरजा और काबा.
एक है बाबा, उसका ढाबा
चल निकला तो शावा! शावा!
-सुधीर राघव
09-08-09

कालखंड

-ओम राघव
हो सकता है, काल खंडित, क्या हम ऐसा मान लें,
बंटा क्षण-पल घट ध्वनि में ऐसा जान लें।
पहर दिन रात सप्ताह, पक्ष महीना मान लें,
वर्ष ऋतुएं जन्म बचपन युवा मृत्यु जान लें।
शताब्दी युग-कल्प वायु प्रकाश गति से जान लें,
काल को कर लें विखंडित, और खंडित मान लें।
ठहरा कहां द्रुतमान कब, यह नहीं हम आंक पाये,
कलयुग द्वापर आदि युग जिसे नहीं बांध पाये।
कालखंडित नहीं, समाजिक व्यवस्था चल सके,
समझकर की है व्यवस्था, मानव आवस्था पल सके।
मानव जीव की केवल, व्यवस्था यह नहीं है,
प्रकृति के हर अंग में, यह व्यवस्था पल रही है।
निश्चित गति में, पृथ्वी चांद सूरज चक्कर लगाते हैं,
ब्रह्मांड के ग्रह अन्य भी स्वर में स्वर मिलाते हैं।
प्रतिपल जीव की धड़कन यही संदेश देती है,
न लांघो सीमा समय की, यह संदेश देती है।
विभिन्न व्यवसाय, कल कारखाने, समाजिक व्यवस्था के इदारे,
समय-सीमा में चलें मानव जीवन के सहारे।
निर्माण प्रगति में हो सहायक, अधिकांशतः होता नहीं,
बहुधा काल का प्रयोग सद्पयोगमय होता नहीं।
शुभ अशुभ कहते कभी, काल है मंडित नहीं,
प्रकृत गति अपने बांटने से ही काल है बंटता नहीं।
बांटने से काल व्यवस्था दिख सकती है,
काल नहीं है खंडित, वह आदि शक्ति है।
काल एक विचार शक्ति, सृजन पालन करता है,
एक महायुग में रह कर सृष्टि विसर्जन करता है।
होने से प्रेरणा काल की, सृष्टि कर्म चल पड़ता है,
जीवजंतु ग्रह आदि का, उद्भव कर्म बन पड़ता है।
जीव प्रकृति ग्रह आदि काल को माप रहे हैं,
सूर्य चंद्र मंडल सौर, उसीको जाप रहे हैं।
है जब तक अग्यान, रहे काल माया का चक्कर,
हो जाए जब ग्यान, तभी हो सत्य का दर्शन।
रहे वेद ग्रंथि में जीव, अग्यानी भ्रमित होता,
प्रतिभासित ये कालखंड, युगों-युगों तक भासित रहता।
खुलें अंतक्षचु पड़े न दीख काल माया की सूरत,
समझ पड़े जैसे ही ग्यान, खंडकाल की न पड़े जरूरत।
बाद प्रतिबिम्ब सत्य देखता कालखंड नहीं है,
दीखे साश्वत स्वयं व्याप्त और अखंड वही है।
न आना जाना कहीं, न दिन और रात कहीं है,
सत्य युगों से बोला था, जो ब्रह्मानंद वही है।
दोहा
आ जाए जब ग्यान, कुछ भी रहे न भिन्न,
अन्तर चक्षु जब खुल गए, सबकुछ लगे अभिन्न।
(29-03-2001)

Saturday, August 8, 2009

आधुनिकता

-ओम राघव
संस्कार प्रभाव बदलता है निरंतर,
कलात्मक-सौन्दर्य की ओर होता अग्रसर।
कहते कुछ साम्राज्य विरोधी, जगरण है,
यथार्थ के निकट है, मूल्य हीनता ही आवरण है।
संस्कृति पूर्व की निष्ठा न मानो, आधुनिक कहलाओ,
न समझो प्रकृति न ब्रह्म माने, प्रगतिशील कहलाओ।
माने ब्रह्म सर्वोच्च हम पिछड़ते हैं,
अविकिसत बना देश, जकारण इसे मानते हैं।
भविष्य के गर्त में क्या छिपा किसको पता,
जान लें पहेली, यह आवश्कयक नहीं रहा।
भविष्य का क्या सोच, वर्तमान का ध्यान हो,
आधार भविष्य का निश्चय यह जान लो।
वर्तमान को जानलें, भूत को समझना आसान है,
भूत कारण इसका, भविष्य का अवसान है।
मूल्य हीनता आधुनिकता का मूल्य है,
मानदंड ही श्रेष्ठता का, साहित्यक मूल्य है।
साहित्य मूल्य खो रचना किधर जार ही,
गर्व आधुनिकता का मूल्य सारे खो रही।
यथार्थ हो आदर्श मंडित, समाज सुमार्ग पर चले,
साहित्य रचना इस तरह, प्रेरणा दायक बने।
सबकुछ खत्म हो न सबको जोड़ पाये,
परम्परा की बात अच्छी, व न मिटने से मिटाए।
अंध विश्वास परम्पराएं, गलत सब टूट जाएं,
विभिन्नता विचारों की वेशक मिट न पाये।
तथ्य सहित देना विवरण, सभी का अधिकार है,
सर्व हारा नारि शक्ति, विवेचन का आधार है।
स्वतंत्रता का अर्थ दूसरा आहत न हो,
स्वत्व जो अन्य का, उसकी कभी चाहत न हो।
साहित्य व कर्म वह, जो मन से मन जोड़ दे,
आधुनिकता वह ही बने, कर्मठ प्रगति में मोड़ दे।
दोहा
शुभ विचार और कर्म से हो सब प्रगतिवान।
सच्ची आधुनिकता बने लें इसको पहंचान।।
(23-03-02)

Friday, August 7, 2009

उड़नतस्तरी

सबने देखी उड़नतस्तरी
कुछ बोले, इसमें नर है,
कुछ ने कहा, नहीं स्त्री।
सबने देखी उड़नतस्तरी
(यह कविता पूरी देखें -
http://sudhirraghav.blogspot.com/

Thursday, August 6, 2009

दिव्य झरना -

ओम राघव
बहता जहाँ दिव्य झरना
ऊँचे पर्वत की श्रेणी पर
हर तृषित जीव वहाँ चाहता जाना
कर सके मन आँख शीतल डुबकी लगा
ताकि हो सके आंनद मय जीव
चलने की नही जब तक तीव्र इच्छा
अधिकांशत मुश्किल होता है चलना ही
सीढ़ी प्रथम चढ़े स्वयं नर
यह संस्कार बस ही होता
है कठिन मंज़िल दुरूह , फूलती साँस
चला ना जाए अनवरत निरंतर चलता
ध्यान , खेल कभी समझ ना आता
मन चन्चल कपि समान
दूर तक दौड़ा जाए उछल कूद कर पर
अटल अचल ही मन जीव का साथ निभाए
उसकी कृपा से बने ध्यान
एकाग्रता मन की हो जाए
छोर सीढ़ी का मिले पगडंडी
मिले मंज़िलें दिव्य झरने की
हो जाए आसान पहुँच प्राणी की
अनवरत चल कर ही सुन पड़े अनहद नाद उसीका
आनन्द मय दिव्य झरना
बहा जा रहा युगों -युगों से
पुकार रहा हर मानव को
चलना ही नही चाहता
देख भयनक राह मुड़-मुड़ आवे जीव
खा रास्ते की ठोकर
हाथी चीते रीछ भयानक
मिले राह में
अंजानी होती राह या फिर भूली जो लगाती
हज़ारों टक्कर
मन कचे के साथ ना बन पाएगी बात
मार्ग कठिन मंज़िल फिर कैसे आएगी
बिगड़े मन सभी रास्ते और ठिकाने
उल्टे सीधे करता यत्न और इच्छाएँ पाले
ये ठीक रास्ते ना दे जाने
जो मार्ग पकड़ा सही नही छोड़ा जाता है
पुनः वहीं चंचल मन को जोड़ा जाता है
मिले देखते धार दिव्य झरने की
मन डूबे उतरावे निरत सुरत में
धन्य ही हो जावे फिर जीव
हो जाता मार्ग मंगलमयी
थकान ख़त्म युगों युगों की .
दोहा
आनंद ही आनंद है एक बार मिल जाए।
कृत्रिम दुनिया के आनंद है यहां ठिकाना नाय।।
१३-०५-२००१

Wednesday, August 5, 2009

उद्भोदन-3

बीती बातों को भूलो, अब आगे की अच्छी सोचो,
भला हो मानव जाति का, ऐसी युक्ति की सोचो।
हों दो अरब हाथ, उस देश को करना क्या मुश्किल?
प्रचुर भंडार शक्ति का, उस देश को करना क्या मुश्किल?
योजनाएं अब ऐसी हों, हर हाथ जिनसे काम मिले,
खाली हों हाथ जहां इतने, अपराध भला क्यों न हों?
योजना अभी ऐसी बनी नहीं, खुशहाली नहीं आ पायी,
अपनी संस्कृति भी भूल गए, उल्टे तंगहाली आई।
नेता, विग्यानी, पूंजीपति, बुद्धिजीवी व युवावर्ग,
रवैया हो सहयोगपूर्ण, योजना बनाएं बिना फर्क।
कृषि कारखाने आदि का, ऐसे सुधार किया जाए,
निरंतर समाज प्रगति पर, बेरोजगार न कोई रह पाये।

समय अधिक अब बचा नहीं, जलती मही पर बैठे हैं
लोभ-क्रोध ऐश्वर्य के बल, बड़े गर्व से ऐंठे हैं।
जिन बातों व कार्यों से, है लगता कष्ट तुम्हे भारी,
अपने पर अंकुश लगा सकें, सुख पाये मानवता सारी।
उल्टा देते कष्ट दूसरों को, खुश हम फिर हो जाते हैं,
आवाज न आत्म की सुनकर, मनभावन करते जाते हैं।
आशा करते जगत पुरुष, ऐसा निष्कर्ष निकालेंगे,
गरल-सिन्धु में डूबी मानवता, उसे कुछ भान दिलावेंगे।
परमात्मा दे सद्बुद्धि हमें, मन रहे सदा परहित में,
कोई जीवन कभी कष्ट पावे, हिलमिल जीएं मरें पर हित में।
दोहा
बीते दुर्गुण भूल जा, मतकर उनकी याद।
अब पर हित होवे सदा, कर प्रभु से फरियाद।।

Tuesday, August 4, 2009

उद्बोधन-2




-ओम राघव
जहां भी देखें और सुनें, भ्रष्टाचार दिखाई देता,
आदर्शों का शिरोमणि देश, पतित दिखाई देता।
आपाधापी दिन-रात लगी, है मृषित जनता सारी,
दुर्भाव न जब-तक बदलेंगे, दुख पाये मानवता सारी।
जो बोना वही काटना है, सत्य सनातन सत्य है ये,
आप्त वचन ये ऋषियों के, हर समय हर जगह सत्य है ये।
समाज के ये नेता, मन से तन से शुभकर्मा न बन पाये,
दृष्टि भविष्य को देखती है, विकराल रूप रख कर आए।
चक्रवात, भूकम्प आदि विश्व को दुखी कर डालेंगे,
सृष्टि की इति के आयुध बना लिए, ये भष्म कर डालेंगे।
चित्र भयाभय यह कितना, समझ में न यह आ सकता,
लोभ-ईर्ष्या कहां छोड़ेंगे, क्या कुछ नहीं फिर हो सकता।
इस तरह अति हो जाती है, परिणाम भयानक होता है,
सोचो शुभ भला कर, परिणाम सुखद ही होता है।
अति से पहले अच्छा है, हम सब लोग सुधर जाएं,
आदर्श राम-बुद्ध नानक के, जगत पुरुष सब अपनाएं।
शंकर, कबीर, महावीर, नरेन्द्र व ऋषिवर दयानन्द,
रविदास आदि संतों के कर्म पैदा करते हैं आनन्द।
जो भटके आदर्शों से, उन्हें मार्ग पर लाना होगा,
नेता ही जिम्मेदार नहीं, सबमें सुधार लाना होगा।
विग्यान जनित योजना बना, तन-मन से कोशिश करते,
आरूढ़ होते प्रकृति पथ पर, सम्पन्न और हर्षित होते।


उद्बोधन-1

-ओम राघव
काश, धरा से ऐसे अमृतधारा फूट पड़े
कलह-द्वेष-विष, दुष्कर्म कहीं न दीख पड़े।
इस धऱा पुण्य पर सदा, सुख-शांति की सरिता बही रहे
सारा समाज सुख सुविधा से, सदा फूलता फला रहे।
हों धर्म पारायण सब नेता, जनता धर्म पालने वाली हो,
स्त्रियां सद आचरण हों, मर्यादा रखने वाली हों।
सामाजिक बल नैतिक शिक्षा, जब नारी को मिल जाएगी,
तब सभी क्षेत्र में मानव जाति, प्रगति के पथ पर आएगी।
माता, बहिना अबला का, सहयोग चरित बल साथ में हो,
कार्य योजना सफल रहे, पारंगत क्षेत्र हाथ में हो।
वर्ग व्यवस्था ऐसी हो, जहां राजा-प्रजा भाव न हो,
मिलकर रहें जिग्यासू जन, कोई द्वेष स्वभाव न हो।
शुभ नैतिक आचरण नहीं, जब तक क्रिया में होंगी,
भ्रष्टाचार आतंकवाद के नाटक बंद नहीं होंगे।
अहित सोच हिंसा करना, अन्त में काम न आते हैं।
आप्त पुरषों के आदर्श पर, चले नहीं सत्ताधारी,
जनता ने जिनकों सौंपी थी, सत्ता की जिम्मेदारी।
प्रभुता पद कुर्सी पाकर, प्रगट पर अभिमान किया.
बहलाई जनता शब्दों से अपना ही कल्याण किया।

तीन पग में विष्णु ने कैसे नापी धरती

कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने तीन पग में यह धरती नापी थी। ऋग्वेद में यह संकेत इस तरह मिलता है कि भगवान विष्णु तीन चरण में यह धरती बसाई। इस संबंध में विस्तार से पढ़ें -
http://sudhirraghav.blogspot.com/

Monday, August 3, 2009

विचार

-ओम राघव
जहॉं भी देखें-सुनें, क्रोध-काम का गरल दिखाई दे,
दुख जीवों का बांट सके, वह दीन न कहीं दिखाई दे,।
वर्गों में बंटे इस विश्व का ढांचा बिगड़ रहा है
पैदा कर उन्माद विश्व की बाहं मरोड़ रहा है।
अर्थहीन- अर्थवान का कैसे हो सामंजस्य
दो किनारे एक नदी के मिलें न कभी सहर्ष।
किसी समस्या का हल हमेशा होता युद्ध नहीं,
एक डोर से बांधे हरजन, ऐसा क्रोध नहीं है।
बांधेगी केवल प्रेमडोर, इस सारी बसुधा को,
तभी मानव कर पायेगा, सार्थक निज जीवन को।
एक-दूसरे की पीड़ा जब तक स्वयं को कष्ट न देगी,
व्यापक तत्व आत्मा की दृष्टि तब तक नहीं होगी।
कष्ट सहे जीव मन दुखी रहे, कोई न दिखाई देता,
सत्य यही अपना न कोई, परिहास दिखाई देता।
शरीर मिला जिस हेतु तुझे, उसे निभाना भूल गया,
चक्कर में मन-माया के पड़, बुरी तरह से डूब गया।
संकेत आए पर ध्यान नहीं, बालों को काला करा लिया,
नव जीवन के भ्रम में पड़ कर, कृत्रिम दांतों को चढ़ा लिया।
जगह न कोई समय नहीं, रोके मौत के तांडव को
काल का हर क्षण अपनाता है, कब धक्का दे नराधम को।।
दोहा
गांव-शहर गलियां-स्वजन, कभी मिलें फिर नाय।
जीवन यह अनमोल है, मत गप-शप में निपटाय।।

Saturday, August 1, 2009

विचार-2

-ओम राघव
आदत गलत पड़ जाए, वह छोड़ी नहीं जाती,
आदत बन जाती स्वभाव, तो छूट न पाती।
कटने लगता कर्म से, आदत गलत राह ले जाती,
नर ने अगर नहीं त्यागा, त नर्क द्वार ले जाती।
गलत राह छोड़, सद् मार्ग पर चलने वाले जाने जाते,
डाकू बहुत रहे सदा अनजाने, महाऋषि ही पहचाने जाते।
पूर्व कर्म त्याग सारे ग्यान चक्षु फिर खुलने लगे सारे.
आत्म तत्व को जाना, आहत पक्षी को देखा वाण लगे।
मानव को तुच्छ समझते थे, हृदय परिवर्तन कर ऋषि बने,
पूर्ण ग्यानी होकर स्वयं, विश्व के ग्यान रूप का आधार बने।
क्षमादान मांगा आखेटक ने, निःसंकोच क्षमा से लाद दिया,
प्रताप तपस्या का देखो, लाखों का जीवन साध्य किया।
उदगार हृदय से निकल पड़े, रामायण सुन्दर ग्रंथ बना,
आदर्शरूप राम का वर्णन कर, कितना सुन्दर तथ्य गुना।
सीता व पुत्र लव-कुश को, पाला बेटी पोते सम,
शस्य-शास्त्र की शिक्षा दे वे रहे नहीं किसी से कम। रामराज सब का समाज, धर्म परायण नर होंगे,
बसुधैव कुटम्बकम, सर मंत्र परायण सब नर होंगे।
महिमा पुण्य धरा की, यह तब ही बन पायेगी,
स्वर्ग से बढ़कर मानव जाति, यह गुण विकसित कर पाएगी।
दोहा
पानी जैसा बुलबुला, मानव का अस्तित्व।
कहां कब चल पड़े, छोड़ के पांचो तत्व।।

विचार-2

-ओम राघव
आदत गलत पड़ जाए, वह छोड़ी नहीं जाती,
आदत बन जाती स्वभाव, तो छूट न पाती।
कटने लगता कर्म से, आदत गलत राह ले जाती,
नर ने अगर नहीं त्यागा, त नर्क द्वार ले जाती।
गलत राह छोड़, सद् मार्ग पर चलने वाले जाने जाते,
डाकू बहुत रहे सदा अनजाने, महाऋषि ही पहचाने जाते।
पूर्व कर्म त्याग सारे ग्यान चक्षु फिर खुलने लगे सारे.
आत्म तत्व को जाना, आहत पक्षी को देखा वाण लगे।
मानव को तुच्छ समझते थे, हृदय परिवर्तन कर ऋषि बने,
पूर्ण ग्यानी होकर स्वयं, विश्व के ग्यान रूप का आधार बने।
क्षमादान मांगा आखेटक ने, निःसंकोच क्षमा से लाद दिया,
प्रताप तपस्या का देखो, लाखों का जीवन साध्य किया।
उदगार हृदय से निकल पड़े, रामायण सुन्दर ग्रंथ बना,
आदर्शरूप राम का वर्णन कर, कितना सुन्दर तथ्य गुना।
सीता व पुत्र लव-कुश को, पाला बेटी पोते सम,
शस्य-शास्त्र की शिक्षा दे वे रहे नहीं किसी से कम। रामराज सब का समाज, धर्म परायण नर होंगे,
बसुधैव कुटम्बकम, सर मंत्र परायण सब नर होंगे।
महिमा पुण्य धरा की, यह तब ही बन पायेगी,
स्वर्ग से बढ़कर मानव जाति, यह गुण विकसित कर पाएगी।
दोहा
पानी जैसा बुलबुला, मानव का अस्तित्व।
कहां कब चल पड़े, छोड़ के पांचो तत्व।।

Friday, July 31, 2009

विचार-3

-ओम राघव
सब गुण से भरपूर धरा, गर कर देंगे देवाधि देव,
तब देव न मैं बनना चाहूं, आमरण की न रहे चाह देव।
मिलता मोक्ष धरा से ही, यह सत्य सनातन कहलाया,
ऋषियों ने यही तत्व खोजा, गाया भी और फिर पाया।
देख धरा की ऐसी गरिमा, स्वर्ग देव भी आएंगे,
मुक्ति का द्वार धरा खोले, यह तथ्य समझना चाहेंगे।
आनन्द स्वर्ग का भोग चुके, थे चकित भोग विलासों से,
पाप प्लावन धरती धरती-दरिया से, ये सुखी स्वर्ग की सांसो से।
अब समझेंगे स्वर्गिक आनन्द भी, सोने की बेड़ी होता है,
बेड़ी लोहे की हो, सोने की हो, बेड़ी तो बेड़ी होती है।।
दोहा
आकर कितने चले गए, अमीर दानी रंक,
दृश्यमान रहना नहीं, सभी काल के संग।

(24 फरवरी 2001)

पद्म पुराण में मिलते हैं मानव के किसी अन्य ग्रह से आने के संकेत

-सुधीर राघव
धरती पर मानव जीवन क्या किसी अन्य ग्रह से आया। इसके कुछ -हलके संकेत पुराणों में मिलते हैं। इस लिहाज से पद्म पुराण में सृष्टि के निर्माण की कथा भीष्म और पुलस्त्य के संवाद के हवाले से मिलती है। ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण कैसे किया इसे लेकर काफी रोचक विवरण है। यह विवरण आप पढ़ सकते हैं-
http://sudhirraghav.blogspot.com/

जीवन ध्येय

-ओम राघव
करो कुछ ऐसा काज कि दुनिया जाने.
ऐसे छोड़ो निशान, जिसे दुनिया माने।
होकर पैदा जाने कितने ऐसे चले गए.
न पाया कोई जान, लोक उस चले गए।
ग्रह-पिंड ब्रह्माण्ड जीवों से भरा पड़ा है,
यह पृथ्वी-आकाश सारा अटा पड़ा है।
और अधिक विस्तार न पाए पार दृष्टि का
संचार व्यवस्था का जोर, जानने इस सृष्टि का।
विग्यान-ग्यान से अनेक ग्रहों का ग्यान हुआ,
नवग्रहों से अधिक ग्रह हैं, यह भान हुआ।
और भी जानेगा विग्यान, पर सृष्टि को जान न पाया,
आवश्यक है यह अगर काम हित मानव आए।
विश्व समाज हेतु लौकिक ग्यान-विग्यान चाहिए,
सबको सुविधा मिले अधिकतम वह ग्यान चाहिए।
पर यह अर्जित ग्यान, मानवता को लील रहा है,
होते लाखों बलिदान आयुध से सब लील रहा है।
होता है, आभास मानव पर हित नहीं सोच रहा है,
नितनव कर आविष्कार, सृष्टि को नोच रहा है।
करे न सब हितकाम, नहीं वैसा विग्यान चाहिए,
मानव-हित हो लक्ष्य, बने वरदान वह विग्यान चाहिए।
तन-मन-धन लगा की हैं विग्यान ने खोजें,
वे धन्यवाद के पात्र, उन्हें हम कैसे भूलें?
ऐसी दे समाज को दृष्टि, युगों तक काम आ सके,
हो ऐसा आदर्श, करे सदा अनुकरण जमाना,
मर्यादा-मान सद्चरित्रता का बने खजाना,
आप्त पूर्वज की संतान, धरोहर में मिली अनूठी धाती,
कर जिनके कार्य-आचरण याद, फूलती अपनी छाती।
राम-कृष्ण नानक कबीर, याद सदैव किए जाते हैं,
बुद्ध ईशा दयानन्द ऐसी धाति बन जाते हैं।
उनके जीवन के आदर्श युगों तक याद बन गए,
संस्कृति में रच-पच, आदर्श ख्याल बन गए।
अनेक सपूत ऐसे, जिन निज जीवन से राह दिखाई.
बने प्रेरणा स्रोत, सार्थक जीवन की याद दिलाई।
सत्य-अहिंसा शुभ कर्म, दूर पाखंड भगाने वाले,
दिए दिव्य आदर्श जन-मानस को लुभाने वाले।
केवल करने से याद, काम नहीं अपने आए,
धरे उन्हें आचरण में तभी उचित फल दिखलाए।
स्वस्थ आचरण की ख्याति स्वतः ही चल पड़ती है,
शुभकर्म और अच्छी बातें, नहीं कभी छिपकर चलती हैं।
किया न सद्पयोग, व्यर्थ मानव का जीना,
मानव से तो अधिक वृक्ष पशु देते चिन्हा।
ऐसे नहीं छोड़ते याद, जिसे करे नित याद जमाना,
क्या अंतर फिर रहा, पशु वृक्ष पत्थर का होना।
दोहा
कर कुछ ऐसा जगत में, करे जमाना याद,
नित जिसकी चर्चा रहे, तेरे जाने के बाद।।
(23 मार्च 2001)

Thursday, July 30, 2009

समुद्र मंथन के दौरान ही मिला ग्रहण गणना का ज्ञान

-सुधीर राघव
स्कंद पुराण की समुद्र मंथन की कथा से यह संकेत मिलते हैं कि सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के आकलन का ज्ञान हमारे पास तब तक उतना सटीक नहीं था। मदरांचल की क्रेश लैंडिग भी सूर्य ग्रहण के दिन हुई होगी। यह ग्रहण क्यों पड़ा यह सूर्य, चंद्र और राहु के बीच विवाद का कारण बना। इस तरह इस विवाद का अंत विष्णु ने किया और उन्होंने जो गणना निकाली, वह हमे सूर्य और चंद्र ग्रहण के आकलन का वह ज्ञान देती है जो आज भी सटीक बैठता है। इस संबंध में विस्तार से इस ब्लॉग पर पढ़ें-
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प्रातःकाल

-ओम राघव
हर जीव से पहले जगी, गीत गाती एक चिड़िया
जागे जगत, जागे प्रकृति, ऐसा मधुर संगीत गाती।
समय से जागें सभी, ग्यान देती,
कैसे समय का ध्यान रखती, पूर्व ऊषा के आगमन से,
मानो हर दिशा को संदेश देती, गर चाल समय संग न चल सके तो
रोना पड़ेगा ता जिंदगी, यह भान देती।
रश्मि का सूर्य से आना,
स्वर्णिम संसार करते, नाम रूप का वरदान देती,
लापता था निविड़ अंधकार में, अब भासता सब कुछ, आह्वान देती।
कुछ अनोखा आज करके बन सके जो लीक ऐसी
पुट नैतिकता का मिला हो, कर्म करना लक्ष्य तेरा
जीव वनस्पति सब को प्राण दान देता सूर्य।
कर्त्तव्य की ओर जगती मुड़े
परिवार, समाज, देश-विश्व का, जिससे भला हो।
कलरव मधुर पक्षियों का, क्या नहीं संदेश देता।
सीख मानव से नहीं लेना चाहते,
पक्षी-प्रकृति से वह ग्यान ले लो
अपने श्रम से जो नहीं मिल सका-
घूमना प्रातः प्रकृति का आनन्द लेना।
समीर विविध का पुलकाय मान करना,
जान वे कैसे सकेंगे, जो करवट बदल सोते रहे,
प्राण वायु का आनन्द, वे कैसे जान पायें भला
तान चादरा जो सोते रहे।
अच्छी सीख जो मान ले, मसझकर उस पर चले
बने सार्थक जन्म-गर स्वयं को सुधारने की ठान ले।
विकार सारे दूर हों, विश्व का कल्याण हो,
स्वयं का ग्यान हो, हर दिन संदेश देता।
प्रातःकाल है।
शान्त रहना, हर वस्तु का नाम-रूप देना,
वनस्पति-जीव को जीवन-दान देना,
बुद्धि, उसकी रंग, फूल-पत्ती, जो जिसके लायक बना।
सुन्दर उदाहरण इससे अधिक, सामाजिकता का कहीं मिल सके
कल्पना से भी परे, सीख कितनी दे रहा
हर रोज वह कह रहा- सीख लो
ऑंख-कान खोलकर, करो आचरण जैसा मैं कर रहा-
नाम प्रातःकाल मेरा, हंसते रहो, मुस्कुराते रहो
प्रातःकाल आता-यह भी सिखाने, हम सीखते कितना?
हम कहीं से किसी से नहीं चाहते कुछ सीखना,
प्रकृति, पशु, चींटी, सिखाते, आहार-विहार,
परिश्रम-कब कैसे करें
प्रमाण उस ब्रह्म का आस्तित्व का।
हमारा अहम आ जाता बीच में,
नहीं हम चाहते फिर सीखना उनसे
सोचते मानव ही है, उत्कृष्ठ नमूना ब्रह्म का
जो नहीं सीखता, बल्कि पालता है,
दम्भ अपने अल्पग्यान का।
(3 नवंबर2002)

Wednesday, July 29, 2009

दूसरे ग्रह से आए यान की क्रैश लैंडिंग की पहली कथा

समुद्र मंथन महज एक पौराणिक कथा नहीं है। समुद्र मंथन की कथा असल में अंतरक्षीय घटनाओं पर विमर्श की पहली दस्तावेजी घटना है। इसका वर्णन कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण जरूर है। यह कथा स्कंद पुराण के माहेश्वर खंड में मिलती है। इसे पढ़ने पर जो संकेत मिलते हैं, उससे लगता है की किसी अन्य ग्रह से इंद्र आदि देवताओं के लिए रसद लेकर आया अंतरिक्षयान (मन्दराचल) पृथ्वी के वायुमंडल में खराब हो जाने के बाद अपने तय स्थान क्षीर सागर में नहीं उतर सका। इस यान का समुद्र में लाकर ही खोला जा सकता था। इसलिए is मिशन को नाम दिया गया समुद्र मंथन। उस समय दैत्य राज बलि ने इंद्र को पराजित कर समस्त संसाधनों पर कब्जा कर रखा था, ऐसे में बिना उनकी मदद से इस यान को वापस समुद्र में लाना संभव नहीं था। राक्षसों को मनाने के लिए इस मिशन के मूल तथ्यों को गुप्त रखा गया।इस संबंध में विस्तार और वैग्यानिक नजरिए से स्कंद पुराण की कथा नए संदर्भ में इस ब्लॉग पर उपलब्ध है
-http://sudhirraghav.blogspot.com/

Tuesday, July 28, 2009

पथिक की खोज

-ओम राघव
विगत जन्मों के संस्कारों का भंडार पड़ा है,
सूक्ष्म शरीर के साथ, युगों से अटा पड़ा है।
संचित कर्मों का भंडार, न ठीक रास्ते चलने देता,
न एकाग्र चित्त ठीक रास्ता बनने देता।
मंजिल को जाने जीव जरूरी यह होता है,
जाना है जिसने मंजिल को, वह हाथ जरूरी होता है।
ग्यानी गुरु दुर्लभ, पथ भटकन का होता है
मार्ग-दर्शक मिलने से, मंजिल भटकन न होता है
कहते राह कठिन गुरु का सहारा न रहा
स्वयं पाना नाह कठिन पता न किनारा कहां रहा।
प्रकाशक तिमिर रास्ते का कभी स्वयं मिल जाता है,
विकसित सुपात्रता होने से कष्ट नहीं रह जाता है।
साथी बच्चे मन-माया के चलते कदमों को रोकते हैं,
कड़वे-मधुर फल जीवन में चलने से बरबस रोकते हैं।
मन-माया का चक्रव्यूह जीव उन्हीं से है ठग जाता,
पग-पग पर जाल बुना हुआ, पथिक अकेला हैं फंस जाता।
कहते हैं स्वयं की कोशिश भी मंजिल को पा सकती है
मंजिल को दूर समझते हो, वह स्वयं पास आ सकती है।
आप पुरुषों ने बतलाया मंजिल कभी दूर नहीं है।
अन्तरतम में खोजोगे, वह अंतर में है दूर नहीं है
स्वयं या सद् गुरु का हाथ सत्य मार्ग मिल जाता है,
तिमिर दूर हो जीवन का, लक्ष्य तभी दिखने लगता है।
लगता है तब पता-जन्म मृत्यु दो वस्तु नहीं है,
पहलू दो एक वस्तु के, पर आपस में भिन्न नहीं हैं।
आत्मा को नहीं कहीं आना या जाना होता है-
जो पैदा होती नहीं उसे कैसे मरना होता है।
आए विराट पुरुष की समझ, ग्यान फिर हो जाता है,
न ऊंचा-नीचा न कोय, बड़ा-छोटा फिर कुछ नहीं होता।
कितन मंडल सौर, न गिनती हो सकती है,
सूर्य चंद्र ग्रह आदि, न दृष्टि पा सकती है।
ग्यानी, विग्यानी लगाकर अपना ग्यान चले गए,
न पाया उसका पार, कह नेति-नेति उस पार चले गए।
हो गया अनन्त प्रभु की, पाना पार आसान नहीं है,
माया का हो ग्यान, वस्तविक ग्यान नहीं है।
परम् प्रभु ही तत्व एक, ब्रह्माण्ड में छाया भर है,
न उससे कुछ भिन्न, नाम रूप माया भर है।
तत्व एक ही जाना-माना, सत्य-सनातन कहलाता है,
समझते ही यह तत्व, न ग्यान पुरातन रह पाता है।
(25 मार्च 2001)

Monday, July 27, 2009

विरह गीत

-ओम राघव
हम रोते रह गए महफिल में, तुम गाते-गाते चले गए,
फिर याद न तुमने हमें किया, बस हमें रुलाते चले गए।
दिन-महीने फिर सालें बीतीं, याद तुम्हारी खो न सके,
चुपके-चुपके आहें भर कर, खुल कर भई हम रो न सके।
काश, ये दिल की गहराई, ये दिल भी तुम्हारा जान सके,
संतोष करेंगे यह सुनकर, ना काबिल समझकर चले गए।
हम रोते रह गए...
दिन भी देखे रातें देखीं, जाड़ा और बरसात यहां,
गरमी की ऊष्मा भी देखी, पर मन को संतोष कहां।
गर आज अचानक आ जाओ, वर्षों का सिंचित प्यार यहां
सभी लुटा देंगे तुम पर, गर दे एक नजारा चले गए।
हम रोते रह गए...
( 24 मई 1965 को लिखा गया यह गीत भाग्यविधान उपन्यास से है, जो 1966 में प्रकाशित हुआ)

मिलें दादा जी से


दादा जी ओमपाल सिंह राघव का जन्म ३ नबंवर १९३९ को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के गांव मीरपुर-जरारा में हुआ। लेखन की रुचि उन्हें अपने पिताजी से मिली। जमींदार परिवार था मगर पढ़ने-लिखने का शोक पुस्तैनी समझो। इसी शोक के चलते दादा जी ने तीन उपन्यास लिखे। ये रहे-भाग्यविधान, कांच की चूडियां, मेरी लाज। रेलवे में नौकरी के बाद १९९८ में रिटायर हुए। अब हरियाणा के भिवानी के न्यू उत्तम नगर में रहते हैं। रिटायरमेंट के बाद लेखन कार्य फिर शुरू किया, दूसरे दौर का यह कार्य अध्यात्म का पुट लिए हुए है। इस उम्र में भी गांव जाकर खेती-बाड़ी का हिसाब किताब करके आते हैं। लोग बुजुर्गों का सहारा बनते हैं, मगर उनकी कर्मठता के चलते उनके भाइयों और पिता जी व चाचा जी को भी खूब राहत है। नहीं तो यह सब संभालने के लिए उन्हें भागदौड़ करनी पड़े। गत जनवरी में उन्हें एक ब्रेन अटैक हुआ था, एक बार तो लगा कि यादाश्त चली गई है। पीजीआई में इलाज चला। जीवन में नशा न करने और शाकाहारी भोजन की आदत वरदान साबित हुई, उन्होंने इस उम्र में बड़ी तेजी से रिकवरी की। एक माह में ही स्वस्थ्य हो गए। अब भी अकेले सफर कर लेते हैं।
-अद्वैत राघव

Sunday, July 26, 2009

पोते का फोन

-ओम राघव
सुन पोते का फोन, मन दादी का भर गया
घर के सारे लोगों में अनन्द कर गया।
वाणी तोतली दादी में नवप्राण भर गई
माहोल सारे घर का शीतल यान कर गई।
याद पोते की दादी को खूब सताती है,
जब आता नहीं फोन, तब उसे रुलाती है।
मां-बेटे करना फोन, दादी रोज बताती है
गर सुन ना पाये फोन, दादी की फटती छाती है।
रहता पोता दूर, वह पास न आता है,
कहता-लो मैं आ गया, फोन से उसे बताता है।
दादी का पूछे हाल, अपना हाल बताता है
छोटी अपनी बहना का भी राग सुनाता है।
दादी तरस रही है, पोता जल्दी आएगा
सुन्दर चांद सा मुखड़ा आकर उसे दिखाएगा।
रूठेंगा, झगड़ेगा, मां को गलत बताएगा
सौ-सौ हैं पापा की गलती, उसे सुनाएगा।
दादी डॉंटेंगी उनको, पोते को लाड़ लाड़ाएंगी,
दादी की ये प्रीत लाल को खुश कर जाएगी।
(17 सितंबर 2004)

Saturday, July 25, 2009

सद्कर्म

-ओम राघव
क्या स्मृति बिगत की कुछ रहती नहीं
फिर कल्पना से मान लें
मिला है शरीर बुद्धि मन स्थान और आत्मा को जान लें-
प्रारब्ध नियति पूर्वकर्म कुछ भी कहो
बिना सोचे क्या जिन्दगी नहीं उम्र भर चलती रही?
और पुण्य व पाप के घट भरती रही -
कब क्यों इच्छित अनिच्छित भोग-भोगे?
दिल-दिमागी चित्र खींचा एक ने
समझने में बड़ा प्यारा लगा
पर व्यवहार में कुछ और देखा
पर दूसरा इन्सान जिसका चरित्र और व्यवहार
आदर्श अनुकरणीय देखा
क्या सोचना?
यह होगा न वह होगा
न सोचा कभी- होता रहा वैसे अधिक
कर्म तो होते रहेंगे दृष्टिकोण अपना या गैर का
गेऱना समझना फेर किसका
समझना क्या आसान?
दोष कहां-फिर और किसका?
अतःएव-
विगत में क्या किया?
मात्र सदकर्म करने में ही ध्यान हो
परिणाम-इदम शरीर स्थान मन बुद्धि कर्म सुख
जो पाया वर्तमान में
वर्तमान आधारशिला भविष्य की
सदकर्म से सदमार्ग
शांतिमिले जीव का निश्चय ही कल्याण हो।
सदकर्म की हो सोच और कर्म कर।
(13 सितंबर 2004)

Friday, July 24, 2009

मृत्यु है आनंददायक

-ओम राघव
रहें तन से मन से स्वस्थ्य
वही जीना सुंदर है
रहें रोगी तन से मन से
वह जीना ही असुंदर है
स्वस्थ रहें जब तक दुनिया में
जीने का वास्तविक अर्थ है
थकें हाथ-पैर उंगलियां शरीर की
औरों के सहारे का जीवन ही व्यर्थ है।
जिएं जितने वर्ष दुनिया में
उसका क्या मूल्य है
समाज हित किए कर्म जिसने
वही जीवन अमूल है
रोगी तन-मन कर्ज समाज का
बनी केवल भार इस भूमि का
विश्व में पल रहे अनेक जीव
जीना उसका भी यथा एक कृमि का
गर मौत आ गई शोक-मलाल कैसा?
न कभी जीव और न मन मरे
मरण केवल मानव शरीर का
छोड़ना जब कभी यह तन पड़े
मृत्यु है आनंददायक
डूब आकंठ जीव स्नान करे जिसमें
जीवन के श्रम की होती थकान दूर
नए वस्त्र जीव पहन नव-द्वार चल पड़े
स्वागत है आए मौत उसका,
चल पड़ मेहमान की तर्ज पर
आया जो रहता कुछ देर-दिन
चला जाता लौट निज द्वार जिस तरह।।
(11 सितंबर 2004)

मौन या संवाद से

-ओम राघव
कैसे-किसको पुकारें?
कब-कहां संसार में रह कर
और कैसे संवारें?
मौन से या संवाद से
व्यवधान लगते संवाद से प्रसूत तर्क
मन-इंद्रियों की शक्ति अपनी-मौन ज्यादा
संवाद से संतुष्ट, कुछ असंतुष्ट होते
कैसे हो सके संवाद?
सर्वमान्य फिर
बिना संवाद शून्य है समाज
है तथ्य यह भी नहीं क्या?
साथ मन के संवाद-बने मौन
इन्द्रिय गोचर नहीं, पर वह भी तो संवाद है
यह संसार कल्पित, संवाद से ही होता प्रकट
सुख-दुख-हर्ष-अमर्ष लेकर
मानो वास्तविक लगता और गहरा संसार फिर
आज है भविष्य में ऐसे ही रहेगा?
मन से मौन-संवाद आत्मा से हो
जीव लाखों वर्ष से कर रहा है खोज जिसकी
क्या संभव है सार्थक पुकार?
फिर सोच कैसी?
सोचना ही व्यर्थ जैसे
समझना अनिष्ट या कष्ट का कारक दूसरा (संवाद)
सुख-हर्ष अपना साख दे निज अहंकार को
है जो कल्पित निरा
निज सोच का भाव उसके अनुरूप ही संवाद है?
अंदर से मिले शक्ति मौन से
बाह्य विचारों की बने शून्यता
तब ही लक्ष्य होगा सामने
ये दृश्य संसार कुछ और ही दृश्यमान होगा
पुकार-सत्य का कहना कठिन, सुनना कठिन
न शरीर अपना, न मन अपना, बने सहज स्थिति
आनंदानभूति प्रकट सबकुछ स्वयं हो
आना सफल जीना सफल समाज का
और सफल अंतिम सफर
संवाद से संसार है-समाज है
पर आत्मा की तो मौन ही आवाज है
संवाद करना ही पड़ेगा-दीखते संसार में
मौन होना ही पड़ेगा, सत्य को अगर खोजना है
मौन ही है अंतिम पड़ाव जीव का।
(९ नवंबर २००४)

Wednesday, July 22, 2009

अभिन्नता

-ओम राघव
अभिन्न से भिन्न होते ही
समय ने करवट बदली
बदला काल, शीतल लालिमा
चकाचौंध बन पूर्व दिशा बदले यथा
भाष्कर की लालिमा क्षितिज को छोड़कर जाने लगी
मिलन से पूर्व की प्रार्थना
प्रार्थना का सफर
सहचर्य में नहीं पड़ा खलल
मांगा न कुछ- हो प्रसूत अविश्वास जिससे
न लेना भला और न देना भला
मन का देवता, न कुछ चाहिए
जहां सब कुछ सामान्य है
विश्वास खोकर अविश्वास मिलता
शांति की भेंट कोलाहल पर चढ़ गई
सुनामी लहर जैसी आगे बढ़ गई
तीव्र वेग-रोक पाये कौन उसको
अविश्वास का प्रतिकार
प्रारब्ध प्रसूत संस्कार
क्षमता घटना बदले अघटना में
गीता के ब्रह्म वाक्य सा
न करेगा-युद्ध अर्जुन-कौरव सेना बच सकेगी
शरीर नश्वर नष्ट होंगे
संस्कार वस , स्वभाव बरबस लगा दे कार्य पर
जिसक न तू करना चाहता
अभिन्नता का ग्यान हो
फिर भिन्नता कैसी?
जन्म कैसा? मृत्यु कैसी?
क्लेश कैसा?
जब नहीं भिन्नता
ईर्ष्या अहंकार क्रोध कैसा?
और किस पर?
दीखता भिन्न वह स्वयं है।
अभिन्नता ही ग्यान, आनंद, मोक्ष है
समझभर की देर
नसमझभर का ही फेर है।।
(7 जनवरी 2004)

कौन प्रथम

-ओम राघव
भाष्कर होगा उदय-अभी देर है
निकल पड़े घर से- चरवाहा मजदूर किसान
चाह पाले खेत करने काम करने
मिले जो भी काम-
घर पुताई या रंगाई, फसल की हो कटाई
कारखाने की सफाई
जो भी काम हो करेगा, दिन के अवसान तक
खेत जोते फसल बोई, कभी अधिक वर्षा
खरपतवार सूखा कभी टिड्डीदल ही खा गया
जमींदार बना पर मजदूर हो गया
न खाने का पूरा पड़ा, लगान देना रह गया
घर से निकला सदा, सूरज से बहुत पहले
नवजात शिशु अनजान-बाप के अस्तित्व से
जंगल की हो कटाई या कारखाने की सफाई
मालिक की रहे सलामत मुटाई
स्वयं लक्कड़ काट काठ बन गया
नहीं बनना चाहता अधिक धरती का बोझ
काम ही नियती बना उसकी
जीवन यापन की भरपाई हो सके
कार्य विनिमय से बस इतना चाहता
बच्चे पल सकें पढ़ सकें
उनके ब्याह चिंता से हो सके मुक्त
इसी को मान लेता परम मुक्ति
जीवन के पार मुक्ति का
उससे कोई सरोकार नहीं
अवसर ही नहीं उससे अधिक सोचने का
उसके निकलने के बाद
निकलता है दिन
कौन निकलता है प्रथम
पता अब चल गया है?
(5 नवंबर 2003)

Tuesday, July 21, 2009

अराधना

-ओम राघव
छोड़ मोह-माया को जल्दी, लगजा प्रभु की याद में
रह जाए केवल पक्षतावा, इस जीवन के बाद में
नश्वर ये संसार, छोड़ कर जाना ही होगा
है कई जन्मों का भार, जिसे उठाना ही होगा
हीरे से अधिक कीमती, सांसें खो डालीं
साधन बना शरीर, शीघ्र ही हो जावे खाली
बचपन युवा बुढ़ापा, ऐसे ही खो डाला
दिन खेल-कूद आराम, रात गफलत में सो जाना
बचपन और जवानी खोई, कीमती सांसें भी खोईं
बने उम्र भर कितने रिश्ते, पर रहा नहीं कोई
साधन मिला शरीर, सार्थक है इसको करना
प्रभु की रहे निरंतर याद, रहे फिर कोई डर ना
जीवन यह संसार, स्वप्नवत इसे समझना
है जबतक अग्यान, तभी तक नाटक करना
क्षण-क्षण प्रभु की याद, मंजिल को लाएगी
काम-क्रोध मद-लोभ की भट्टी, नहीं जलाएगी
किसी शब्द से और मंत्र से, प्रभु की याद करो
मंजिल तक पहुंचाएगा, न संशयवाद करो
श्रवण-कीर्तन वंदन, प्रभु का सिमरन करना है
छोड़ सहारा जग का, आत्म समर्पण करना है
आ जाए जब ग्यान, फिर पर्दा नहीं रहे
होवे नाटक का अंत, पात्र का धंधा नहीं रहे
खुले न अंतरचक्षु, तभी तक माया की सूरत
होवे आत्मा का भान, न मन की रहे जरूरत
मन का सारा खेल, निरंतर तरसाता है
बिन प्रभु की याद, जीव का मन घबराता है
( 3 नवंबर 2003)

Monday, July 20, 2009

सिरमौर

-ओम राघव
अंतर भरा अभद्र हृदयहीनता से
आदर्श फिर कैसा? नाता धर्म-भीरुता से
करे उग्र बन विस्फोट बम का
या फिर करे संहार जग का
उसे अपना भद्रतायुक्त चेहरा दीखता
बसुधा है सारी कुटुम्ब आदर्श कैसे सीखत?
उसके लिए आदर्श, नैतिकता, किताबी लेख है
आधुनिकता में जो कंटीली मेख है
होता रहे मानव अहित, भला कौन उसे टोकदे,
ताव किसमें है, जो उसका विजय रथ रोकदे,
कुत्सित मन न दे ठहरने भद्रता को
करे न माने, उस पुरानी मान्यता को
छोड़े पहली मान्यताएं तो प्रगतिशील है
तभी बने आधुनिक डाले न उनमें ढील है
परिणाम है उग्रता, बलात्कार भ्रष्टता,
संहार लाखों का भी है फिर शिष्टता
सर्वनाश कर विश्व अपराजेय बनकर
बना धवल-शील कुछ को विजयी पदक देकर
किए निर्माण दिव्य भवन-धन मन से सजाकर
बढ़ा अहंकार, श्रम-धन-बल मिलाकर
स्वतंत्रता के नीड़ में सांस था जिसने लिया
डाल कर बम मेघसम, जोश ठंडा कर दिया
कथित अशांति दूर कर, दूत शांति के बने
देखो, प्रतिफल में जयजयकार हैं सब कर रहे
सप्ताह के तूफान ने परमार्थ सारा कर दिया
अशांति के बबूलों को मानों शांत कर दिया
शंभु पराधीन कर, हुआ नहीं कृतार्थ क्या?
बड़ा प्रतिकार इससे- दान और पुण्य क्य?
मरहम लगे पीड़ितों को दूर हो अभद्रता
मांगे सबसे उदार मन, निःसंकोच सहायता
न आएगी याद बनेंगी अब भव्य कोठियां
बच्चे भाई पति खोये याद केवल रोटियां
बेरोजगारी दूर होगी इससे बड़ा उपचार क्या
काम अब उनको मिलेगा, जिनको न कोई काम था
वह विजयी भी होगा न क्या शांत एक दिन?
करेंगे याद उसकी रचा था उसने इतिहास एक दिन
समाधी पर चढ़ेंगे श्रद्धासुमन, लगें प्रतिवर्ष मेले
कभी कांपता था विश्व सारा जिसका नाम ले ले
कुत्सित हृदय सोचता सब ठीक ही होता रहेगा
बाद जाने के उसे फिर क्या कोई देख लेगा
आत्मा है अमर हर जीव में विराजती
वह क्या समझा सकेगी-बुद्धि न समझना चाहती
दूसरी व्यक्तित्व देखा, शुभ कर्म लीक पर चला
चाहे अपार कष्ट, सारी जिन्दगी सहता रहा।
मिली सत्ता सम्पदा को दूर ही करता रहा,
आदर्श की वेदी पर चढ़ त्याग सब करता रहा
परिवार पत्नी, पुत्र छोड़े व्यवहार मर्यादित किया
लांक्षन लगे तटस्थ रह निज लीक को सार्थक किया
शान्ति भद्रता व्यवहार में आदर्श अवश्य बन गया
मर्यादा में बंधा, सर्वमान्य वह उत्तम पुरुष बन गया।
(3 नवंबर 2003)

Sunday, July 19, 2009

प्रसन्नता

-ओम राघव

प्रश्न
प्रसन्न कैसे रहें जग में
हर कोई यह चाहता
प्रसन्न रहने का सूत्र
खोज से भी नहीं मिलता
निर्देशित मार्ग होता सीधा
पर वह कभी सीधा न लगता
डिगा है विश्वास, तो श्रद्धा बनेगी कैसे?

उत्तर
लाभ सुख-शांति का है, जिनसे मिलता
अमर फल-प्रसन्नता प्राप्त जिससे
दिखता वह आकाशी फूल है
प्रसन्न हों दूसरे की प्रसन्नता में
बने वह प्रसन्नता का सदमूल है

धकेलते कर्त्तव्य पीछे अधिकार बस चाहते
करे कर्म दूसरा, मिले फल हम चाहते
सोच-निष्कर्मता से, लाभ ही हमको मिलेगा,
सदा के वास्ते ही, अधिकार फल हम को मिलेगा

सदा मिले सुख-लाभ, सोचना ही भूल है,
कर्मनिष्ठ होना कारण प्रसन्नता का मूल है
अब सुख-लाभ क्या? यह अंतर की ही सोच है
सकारात्मक सोच हो, न दुख और सुख शेष है

स्वप्निल संसार में, रहेंगे जब तक,
कलेश तीन हमको सताएंगे,
रस्सी को समझे सर्प, भय का बनेगा भूत
सभी मिलकर हमको डराएंगे

पर्दा सत्य से हटेगा नहीं जब तक
स्वप्निल संसार से ऐसे ही ठगे जाएंगे
सब कुछ धन सम्पन्ति से है मिलता
पर शांति-सुख सम्पदा नहीं मिल पायेगी,

खोजने पर पाओगे-प्रसन्नता के स्वयं स्रोत हो
वह अंतर की बुद्धि-मन, आत्मा दे पायेगी।

(29 सितंबर 2003)

Friday, July 17, 2009

द्वैत या अद्वैत

-ओम राघव
अद्वैतवाद
न था पहले कभी और न पीछे रहता है
दृष्य प्रकृति पदार्थ स्वप्नवत मिथ्या होता है
भ्रम वर्तमान सत्ता है मिथ्या केवल भासती
जीव सत्ता ब्रह्म है जन्म होकर दीखती
जीव संग्या जन्म से पर होती ब्रह्म है
जन्म मरण से परे सत्य ही ब्रह्म है
अदर्शन आत्मा पुनः अदृश्य हो जाएगी
जीव जन्म ले बार बार ब्रह्म में सो जाएगी
चिंतन में आती नहीं, इन्द्रिया-नीत आत्मा
करता रहा जीव ही अजन्मे ब्रह्म की उपासना
महाकाश घटाकाश जैसे कल्पित भेद हैं
आकाश है सर्वत्र व्यापक शेष कल्पित भेद है
कर्म धर्म का अभाव बन जाता परमार्थ है
हंसना-मरण जीवन मृत्यु इनका न कोई अर्थ है
चिन्गारी प्रगटे अग्नि से, अग्नि का ही अंश है
ब्रह्म से नहीं प्रथक जीव, वह ब्रह्म का ही अंश है
दुखी जीव देह के संयोग से, असंयोग जीव ब्रह्म है
काम-क्रोध, राग-शोक, देह-मन के धर्म हैं
प्रकृति-जगत है भ्रम सदा-वस्तविक सत्ता नहीं
संकल्पित है ब्रह्म से, क्षीण प्रलयावस्था कहीं
आत्मा ही सनातन कण-कण में ओतप्रोत है
अपार अप्रमेय, उसका प्रकाश ही स्रोत है
द्वैतवाद
ब्रह्म प्रकृति जीव सत्ता आदि से है मानते
बिना जिनके सृष्टि का आकार कैसे जानते
द्रव्य के प्रकार से एक जड़ दूसरा है अजड़
प्रकृति है सारी जड़, आत्म-ईश्वर अजड़
प्रकृति व जीव दोनों, ईश्वाराधीन हैं
पर हैं दोनों भिन्न सत्ता, होती न ब्रह्मलीन है
जीव अणु अधिसंख्य में होता प्रकट
ब्रह्म उपासना से मुक्त हो, होता है फिर अप्रकट
जीव रहे निम्न ही, जब तक न करे स्वः को प्रकट
ब्रह्म दोषों से रहित, जीव दोषों का भरा घट
मत-मतान्तर देख, प्रश्न बुद्धि से करता रहा है
पाया न हल आदिकाल से, वह उलझता ही रहा है
मन-वाणी से जो अगोचर, पाओ तुम कैसे उसे
है अखंड परम सत्ता, सत्य कहते हैं जिसे
विचार व कर्म अच्छे, गर परोपकार सीखले
सदा दूर हिन्सा से रहें, सबसे प्यार करना सीख ले
नैतिक जीवन मार्ग ही, सच्ची बने उपासना
निकट है परम धाम-मोक्ष, रहे न शेष कल्पना।
(२७ सितंबर २००३)

Thursday, July 16, 2009

विस्मृति

-ओम राघव
जब से बिछुड़े भोगे हैं लाखों जन्म
कितने नाटक हम कर चुके हैं
पुत्र पौत्र बाप कितने रिश्ते अनाम
कब तक जिए क्या-क्या रूप धर
पाप-पुण्य के घट भर चुक हैं
शरीर कैसा कर्म कैसे
जीना कब तक रहा
विस्मृति की गोद में सब सो गया
त्रिगुण के मेल से आनंद या कष्ट भोगा
विगत पाये जीवनों में
मानों सभी कुछ खो गया
गर वो सब याद रहता
कैसा यह वर्तमान लगता
जीने का उपचार मिलता
साथियों को याद आती
वर्तमान को भुलाती
फिर क्या जीवन इतना सहज होता?
यौनिया बताते हैं लाख चौरासी
जीव जिनमें घूमता है
समुद्री लहर के माफिक
कई जन्म पापड़ बेलता है
मानव बना जो जीव
वही केवल सोचता है
कर्म बुद्धि ग्यान की मानव यौनि
शेष सब तो भोग यौनिया
दुख दर्द एवं भ्रांति की ही सारी यौनिया
गर विस्मृति साथ होती
मनुज कर पिछली याद रोता
न पाता चैन दिन में
न आराम से रात सोता
ग्यान तक चक्र गर चल गया
भेद सारा खुल सकेगा
हर जन्म आगे बढ़ने का है रास्ता
युगों पहले छोड़ कर जो भूल की है
हर जन्म की कोशिश मंजिल पर ले जा सकेगी
शरीर तीनों इंद्रिया मन बुद्धि
जब आत्मा में जा टिकेगी
प्रयत्न नहीं अब तक किया
वह निश्चय ही करना पड़ेगा
बिछुड़े हुए हैं, जहां से
वहां पर ही जाना पड़ेगा
कभी जो जहां से चला है
लौट कर वहीं आना पड़ेगा
अब तक शांति की खोज जो हुई है
आए हो जिस मुकाम से
वहीं जाना पड़ेगा
(१५ अगस्त २००३)

चिड़िया

-ओम राघव
कभी पास में, कभी दूर ही
अपना नीड़ बना लेती हो
थोड़ी सी भी आहट पाई
चिड़िया तुम झट उड़ लेती हो
प्यार से चुनकर दाना-तुनका
नहीं किसी से तुम लड़ती हो
विश्वास नहीं जग प्राणी का
उड़ होशियारी कर लेती हो
सुन लेती सब जग की बातें
नहीं किसी से कुछ कहती हो
श्रम को करना और खुश रहना
जुगाड़ जीविका कर लेती हो
सूखा वर्षा ओले मानव
शत्रु सारे बने हुए हैं
बचना उनसे कठिन तुम्हारा
जाल सभी ने बुने हुए हैं
प्रात उठ हिलमिल कर चलना
सीखे मानव सिखलाती है
बनकर साथी रहना कैसे?
सारे समाज को बतलाती है
प्रेम प्यार निष्काम भाव से
सब बच्चों को बहलाती है
चिड़िया पक्षी किसी तरह की
चालाकी न दिखलाती है
रोटी-चावल खाए जो प्रेम से डाले
बच्चों का खिलौना भी बन जाती
घर करे निर्माण, कर सामान इक्टठा
कहां-कहां से वह ले आती
खाना-पीना चलना-फिरना
बच्चों को सभी सिखा देती है
करना मेहनत प्रात से छिपते दिन तक
बच्चों को पाठ पढ़ा देती है
केवल अपना ही नहीं
बच्चों का पहले पेट भरेगी
लायक बच्चे नहीं हो जाते
तब तक उनके काम करेगी
सारी जिम्मेदारी मां की
चिड़िया पूरी कर जाती है
प्रकृति मानव के गुण सारे
बच्चों में अपने भर जाती है
अपने समाज की मानव समान
जिम्मेदारी पूरा करती
हटते पीछ कभी न देखा
दुख बच्चों के सारे सहती
अजब करिश्मा यह कुदरत का
घर जंगल सबकी रौनक बन जाती है
प्रकृति को कुछ समझे मानव
चिड़िया मानो बतलाती है।
चिड़िया रंग-बिरंगी कई ढंग की
नीली-पीली लाल-सुनहरी
नाम निराले, आवाज सुरीली
गौरेया तोता और टिटहरी
कौआ चातक सारस बत्तख
बटेर तीतर मोर व गलगल
जिनका है संगीत अनूठा
गाये मानव बिना शोर
केवल मन ही मन।।
(५ जुलाई २००३)

Wednesday, July 15, 2009

संवेदना जंगल की

-ओम राघव
मेर आस्तित्व को निगलती

दिल की गहराई में पैठ

दर्द की आग

कब कहां कैसे?

उजड़ा यौवन मेरा

टीस उठती-

निरन्तर प्राप्त वृद्धि-समृद्धि को जिसकी कामना

उजाड़ कर अस्तित्व मेरा

बनकर सदी का एडवान्स्ड मानव

पूर्णविराम पायेगी क्या कभी

इसकी कामना?

आचरण का शुभ-चिंतन कहां

जब आचरण हीन मानव हो रहा

प्रश्न-चिन्ह रहेगा क्या अस्तित्व मेरा

शेष चेहर?

हुआ अस्तित्व हीन मैं

अस्तित्ववान क्या मानव रहेगा

क्या प्रश्न यह उठता नहीं है

होगा वातावरण प्रदूषित-

मानवता काल-कलवित

इन्द्रिया-रोम मेरे

है नीम पीपल ताड़ केला

कीकर खजूर ढाक बेला

कतारें-सेब अखरोट बदाम अनार वाली

अनेक जिन्सें बेल डालें अंगूर वाली

घास वनस्पति लाल पत्थर

अमोल लकड़ी संगमरमर

लोंग इलायची मिर्च काली

तेज पत्ता बेल पत्ती चायवाली

अबरक कोयला और लोहा

हीरा पत्थर मैगनीज सोना

मिट्टी-पत्थर से बनी अट्टालिकाएं

किले मंदिर मसजिद भव्य बनें सारी दिशाएं

करते सामान्य पर्यावरण जन्तु ऐसे

कीड़े-मकौड़े शेर हाथी जीव जैसे

रीछ मृग खरगोस चीते

व्याल अजगर सब जीव जीते

कलरव सुघड़ पशु पक्षियों का

करता दिन-रात मंगल

मानव काटता दिल मेरा

काटकर पहाड़ और जंगल

चाहता हूं स्थायित्व मानव का

उसे न कभी दुख की आग निगले

स्वयं से नहीं सीख सकता

मुझसे ही कुछ सीख ले ले।

मानव ने जीव मारे जन्तु मारे

वृक्ष काटे दॉंत काटे

सींग- हाड़ खाल बेच और बांटे

बेचकर व्यापारियों को

धन कमाया

पर न छोड़े - फर न छोड़े

बाजार पूरे भर दिए

दुस्साहस यही मानव का रहा

कर अस्तित्वहीन मुझको

पर स्वयं को भी मानव

कंगाल क्या नहीं कर रहा?

(३ जुलाई २००३)

Tuesday, July 14, 2009

जड़ माया

-ओम राघव

कितन युग आए, बीत गए,

काल-देश में आकर माया ऐसी लिपट गई,

छूटा नहीं देश, ममता ऐसी लिपट गई।

युग-वर्ष सारे जीवन के रीत गए,

महल-हवेली-जमीं देख जायदाद को,

सोना-चांदी, रुपए-पैसे शान को।

इस जड़ माया ने सब जीत लिए,

बाबा-दादी माता-पिता-पुत्र परिवार से,

मोह न बिल्कुल छूटा पर सब छूट गए।

मालिक-परमेश्वर की भक्ति न हो सकी,

मोह-माया से सदा आत्मा ठगी।

रुकावट-मिलने में जड़ चेतन माया हो गए।

सद्पयोग भी न कभी माया का किया,

संतों की संगत नध्यान रब का किया।

केवल दिन-बरस नहीं कई युग ऐसे बीत गए।
(३ नवंबर २००२)

Saturday, June 20, 2009

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

मेरा नाम अद्वैत राघव है। यह ब्लॉग मैं अपने दादा जी के लिए तैयार कर रहा हूं। उनका नाम ओमपाल सिंह राघव है। उन्होंने काफी कुछ रचा है। उनका एक उपन्यास सत्तर के दशक में प्रकाशित हुआ था, जिसका नाम था भाग्यविधान। इसके अलावा उन्होंने दो और उपन्यास और ढेर सारी कविताएं लिखी हैं। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के जिले बुलंदशहर के एक गांव मीरपुर-जरारा में हुआ। रेलवे में लंबे समय तक नौकरी करने के बाद वह रिटायर हुए। आजकल वह हरियाणा के भिवानी में रह रहे हैं। वहीं पर मेरा भी जन्म हुआ। अब में मोहाली के गोल्डन बेल स्कूल में पढ़ रहा हूं। मेरे इस ब्लॉग पर आप मेरे दादाजी की रचनाएं पढ़ सकते हैं। मैं यह काम स्कूल की छुट्टियों में शुरू कर रहा हूं और आगे भी जारी रखूंगा।