Thursday, April 29, 2010

दादा जी की 100 वीं पोस्ट

उच्चतम - दर्शन
ओम राघव
मन एक ही भूत करे विश्व की सत्ता में समाहित,
अभिन्नता मात्र न मिलता कुछ भी रहे लक्षित।
न रहे भय कोई अपनों से डर कहां अभिन्नता में,
दर्शन एकता का ही बन जाए अनेकता में।
सारा विश्व इंद्रियों में लिप्त जीव को भौतिक लगेगा,
बुद्धि से परिष्कृत मानव आत्माओं के समूह में दर्शन करेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि जिसकी विराट रूप ईश्वर लगेगा,
पाप के गर्त में गिर रहा उसे विश्व गर्हित ही सुन्दर लगेगा।
खोजी सतत आत्मा का स्वर्ग सा उसको लगेगा,
अंत हो जब सारी सांसारिक वासनाओं का
नश्वर मानव ही विराट ईश्वर बनेगा।
न खोज करनी सत्य सत्ता की,
न रूप से परे भ्रम का जाल टूटेगा,
यही बना उच्चतम दर्शन हमारे ज्ञान का,
अमीर-फकीर राजा रंक खाक में मिलते ही
मुट्ठी भर राख में भेद कहां होता नहीं
भौतिक दृष्टि भी बतलाती यही
भेद ही है जड़ सारी कलुषित विपन्नता की।
(०६-०४-१०)

Thursday, April 22, 2010

ध्यान से परिमार्जन

ओम राघव
कई युगों की विस्मृति से उत्पन्न विपन्नता
ध्यान के सहारे ही छूट पाती
विस्मृति को ध्यान स्मृति में बदल देता
परिणाम ध्यान का अनिवार्य
जगाता करिणा और संवेदनशीलता
विस्मृति अपने लक्ष्य की और निज स्वरूप की
उस ओर ध्यान ही ले जा सकेगा
असंगत चिंतन कार्य कलाप
कड़वे अनुभव यंत्रणाएं उत्पन्न करते
मनुष्य सत्ता ढल जाती उसी प्रतिबिम्ब में
निर्भर दैवत्व या रखो असुरत्व के विचार
उथला चिन्तन दुर्बल चिंतन मन स्थित करे
हवा में उड़ रहे तिनके बिखराव ही बिखराव
निर्थक विचार प्रवाह को रोक सकता ध्यान ही
होती ऊर्जा इतनी एकत्र विश्व को चमत्कृत करे

संग्रहीत ध्यान जनित शक्ति का परिणाम हो
आध्यात्मिक ध्यान योग से प्रकट दिव्यशक्तियां
पा सके लक्ष्य जीवन का उत्कृष्ट
ईश्वर स्तर का होता पूर्णत्व को प्राप्त मानव
न रहता कोई अवरोध जीवन का
और न आवागमन का
जिस चक्र में था बना दानव युगों से
०३-०४-२०१०

Tuesday, April 20, 2010

वाणी

ओम राघव
शीतल जल चन्दन का रस छाया ठंडी पीपल की
आहलादित नहीं करती, जितनी मीठी वाणी हर जन की।
शोक और चिन्ता में डुबाती कटुवचन की गरलता
झूठ बन जाता सहारा करे नष्ट अर्जित महती सम्पता
दुरवचन से क्रोध आमन्त्रण करे अनेक आपदा
डालता उलझनों में सोच से परे मिटें कुल की सम्पदा
मधुर वाणी से अर्जित सुर दुर्लभ असीम शांति सम्पदा
मन के स्तर से ऊंची और भिन्न होती वाणी से आकांक्षा
जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष में है वाणी की शक्ति का योगदान
अहसास होता देख गूंगा - ओजस्वी वक्ता की भिन्नता
मधुर वाणई संवाद परिवार से दूर वाले से रिस्ता बनाता
कठोर वाणी तोड़ देती अपने स्वजनों से भी नाता
कटुवाणी कारण बनी विभिषिका ऐतिहासिक युद्ध का
विनास का कारण परिवार नष्ट हुए कारण क्रोध था
क्रोध के आवेश युद्ध का कारण बनी शक्ति वाणी की
शब्द शत्रु या मित्र बनाते सामर्थ्य अनन्त शुभाशुभ वाणी की
भूख-प्यास नींद जाये चिन्ता का संदेश सुनकर
जनसमूह को उत्तेजित जगाता शब्द एक जुट बनाकर
-प्रभावोत्पादक चेतना तत्व जुड़े शब्द के साथ।
ब्रह्माण को प्रभावित करे है वाणी शक्ति विशाल।
(31-03-10)

Monday, April 19, 2010

जिज्ञासा

ओम राघव

छटपटाता किस उपलब्धि के लिए जीवन
न शेष कुछ पाना रहे-पूर्ण शांति संतोष जीवन
असंयुक्त मन जब जगत के जंजाल से निश्चल
शांत रहने लगे
दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मर्माहित होने लगे
जिज्ञासा उत्पन्न होती पहुंच अपने चरम पर
लिखना-कहना-बोलना उसका बन जाता दर्शन
अन्य प्राणियों से भिन्न उसका फिर सारा आचरण
अनेक संतों से प्रपादित धारणा बनी वेदान्त दर्शन
आत्मा और ब्रह्म को पर्यावाची कहा-
निचोड़ चरम उस जिज्ञासा का रहा
जिज्ञासा विचार से दर्शन षड्यंत्र में बंट गया
मनीषी-संतों की जिज्ञासा का चरम ही कारण रहा
सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक वेदान्त-मीमांसा कहा-
सत्चित आनंद का स्वरूप है आत्मा
न सद्चित आनन्द का स्वरूप है आत्मा
न सद चित और आनन्द स्वरूप परमात्मा
ब्रह्म है निर्गुण और निधर्म-फिर भी पर्यायवाची
औपचारिक मात्र है-ज्ञान स्वरूप आत्मा-आश्रम न ज्ञान का
जिज्ञासा-चिन्तन-पराकाष्ठा से निचोड़ निकला
उपनिषद उद्घोष करते,
नहीं मानते कि हम ईश्वर को पूर्णतया जानते
ब्रह्म का जानना और न जानना
ऐसा ही है कुछ-कुछ जाना सा कुछ-कुछ अनजाना सा
ब्रह्म ऐसा है-ऐसा नहीं सदैव ऐसा रहेगा
यही बनेगा उसका जानना
बस जानते हैं कुछ
उसे शांत जिज्ञासा हुई
जानते ही स्वयं को उसको भी जान लेते
यही सारी जिज्ञासा का अंत है।

(29-06-10)

Friday, April 16, 2010

भोग

ओम राघव

संस्कार ताप परिणाम दुख से लिप्त हैं भोग सारे
तामस राजस सात्विक गुणों से युक्त सारे
सभी की वृत्तियों में विरोध विवेकी पुरुष
के लिए बनते दुखरूप सारे
जन्म रोग जरा मृत्यु का न रहे कोई विचार
अभाव अहंकरा का आसक्ति का
घर धन पुत्री स्त्री चेतन व जड़ माया
की न रहे तनिक भी ममता
राग द्वेष से दूर आहार सात्विक और हल्का
संयमित जीवन बुद्धि विशुद्ध से युक्त मन
भोग सारे दीखते सुख रूप
पर सदा दुख के ही हेतु बने।
अंधेरे मार्ग का निष्काम सेवा दीपक बने।

गृहणकर्त्ता सत्य का ही सत्य वादी बने
जिसका पतन कभी होता नहीं
जानक्र सत्य नर नारायण बने
सोचा और जो कुछ किया सारा मन में अवस्थित
संस्कार ही करते कार्य निरंतर साथ सूक्ष्म शरीर के
स्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी।
सूक्ष्मभाव से आते स्थूल भाव में
दुहराना फिर उसी का स्मृति तरंगाकार होती पुनः
शृंखला एक चक्र की भांति
अभिव्यक्ति सूक्ष्मभाव की स्थूल के द्वारा
भोग सारे भोगने पड़ते ही उस चक्र में
नष्ट पदार्थ होता नहीं रूपान्तर होता था
देता दिकाई नूतन कुछ भी नहीं
भोग सारे का प्रयोजन
बनेगा चक्र शृंखला तरंगाकार हो
चल पड़ेगी भोगने दूसरी ओर मंजिल।।
(27-03-10

Thursday, April 15, 2010

महानता

ओम राघव

शरीर की न केवल महानता
कर्म के साथ ही जुड़ी है महानता
संत के ज्ञान की बनता कसोटी कर्म ही
प्रचार सच्चाई का सद्कर्म से होता
कथनी के साथ ज्ञान अगर जुड़ता नहीं
और ज्ञान के साथ कर्म भी जुड़ता नहीं
महानता लोक या परलोक में मिलती नहीं
समाज में रह स्वकर्म का पालन परहित में हो
जीवन की यात्रा करता सफल
जीव है सजीव तत्व परमात्मा की सृष्टि का
रचियिता नहीं सृष्टि का रचना में सहायक बनना
मानकर पूर्ण मन में न आ पायेगी सीखने की भावना
दलदल बन रहा संसार माया डुलाती पल-पल जिसे
सुख आत्मा की जागृत हो चेतना
साधना का लक्ष्य केवल चिन्तन और कर्त्तव्य से
प्रयोजन अभीष्ठ सिद्ध हो सके
अभीष्ठ सामर्थ्य साधन तो चाहिए
पूजा उपासना स्वध्याय मनन कालान्तर में
वट-वृक्ष बने छायादार शीतल छांव दे
वर्षों के श्रम से थके जीव को
ब्रह्म लोक या मोक्ष स्थान विशेष नहीं
परिष्कृत बने आस्थाएं, पशु प्रवृत्ति से
देव सम वृत्ति बने, स्वर्गवस्था वही
देव प्रवृत्ति ढालती मोक्ष में या नक्षत्र विलग से
नहीं लोक और परलोक में स्थित परिचायक वही महानता का।।
(२३-०३-१०)

Monday, April 12, 2010

जीवन

ओम राघव
पेट और प्रजनन तक सीमित जीवन
खीझ और कष्ट भरा भार ढोता जीवन
रोते जन्म लेता, रुलाते विदा होता जीवन

हाड़-मास, मल-मूत्र से भरी काया
अति कुरूप-कर्कशा और निष्ठुर भौतिकी
घिनौना-खिलौना मात्र मानव शरीर
यह दिखती सच्चाई, शरीर और जीवन की
समुद्ररूपी जीवन की गहराई में
उतरने वाले जीव के लिए पर नहीं ऐसा

पड़ी होती बहुमूल्य रत्न-राशि
समुद्र तल की गहराई में ही,
झाग-फैन, सीप-शंख और कूड़ा करकट
से ही ऊपरी सतह भरी होती
गहराई में जाने पर ही उपलब्ध ढेर रत्न-राशि होती
विकसित अग्नि-परीक्षा से सुपात्रता होती,
बनता तभी अमूल्य धरोहर-जीवन समाज के लिए

शरीर और मन का संयुक्त श्रम
कर्म को उत्पन्न करता, हर कड़ी का
समाधान विचार और क्रिया से मिलता
चैन और संतोष कर्म की गहनता से मिले
आस्थाएं सब जुड़ी होतीं साथ अंतरआत्मा के

फूट पड़ता प्रेरणा स्रोत जहां से,
असुन्दर-कर्कश दिखता जीवन
बदल जाता सुन्दरता-सुघड़ता में सदा के लिए
स्वयं और समाज दोनों के लिए।

(०३-०३-१०)

Saturday, April 10, 2010

व्यक्त-अव्यक्त

ओम राघव

अकर्त्ता जब कर्त्ता बने,
उसके अस्तित्व का प्रकटीकरण बनता
अकर्त्ता सुषुप्ति का ही पर्याय है
कर्त्ता बना-जग गया ब्रह्म का अभिप्राय है
जग जाती जगती उसके साथ ही
आभास तभी जीवन का होने लगे
अकर्त्ता बन मुर्दा हो गए हैं
फिर मर्दे का अस्तित्व कैसा?
व्यक्त-अव्यक्त का ही खेल है।
व्यक्त (प्रकृति) ठोस स्वतः गोचर,
हर वस्तु की समग्रता के साथ प्रगट
पर आधार उसका अव्यक्त ही है
संभव स्वरूप जितने अव्यक्त ही आधार उनका
कार्य में कारण उपस्थित
हर घटना के लइ आधारा होता
विशेष कार्य का होता आदिकारण विशिष्ठ
उससे ही उत्पन्न या दिखता रहा है
व्यक्त से जानना अव्यक्त को
ग्यान की प्रथम सीढ़ी रहा है

(१३-०३-१०)