Monday, April 19, 2010

जिज्ञासा

ओम राघव

छटपटाता किस उपलब्धि के लिए जीवन
न शेष कुछ पाना रहे-पूर्ण शांति संतोष जीवन
असंयुक्त मन जब जगत के जंजाल से निश्चल
शांत रहने लगे
दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मर्माहित होने लगे
जिज्ञासा उत्पन्न होती पहुंच अपने चरम पर
लिखना-कहना-बोलना उसका बन जाता दर्शन
अन्य प्राणियों से भिन्न उसका फिर सारा आचरण
अनेक संतों से प्रपादित धारणा बनी वेदान्त दर्शन
आत्मा और ब्रह्म को पर्यावाची कहा-
निचोड़ चरम उस जिज्ञासा का रहा
जिज्ञासा विचार से दर्शन षड्यंत्र में बंट गया
मनीषी-संतों की जिज्ञासा का चरम ही कारण रहा
सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक वेदान्त-मीमांसा कहा-
सत्चित आनंद का स्वरूप है आत्मा
न सद्चित आनन्द का स्वरूप है आत्मा
न सद चित और आनन्द स्वरूप परमात्मा
ब्रह्म है निर्गुण और निधर्म-फिर भी पर्यायवाची
औपचारिक मात्र है-ज्ञान स्वरूप आत्मा-आश्रम न ज्ञान का
जिज्ञासा-चिन्तन-पराकाष्ठा से निचोड़ निकला
उपनिषद उद्घोष करते,
नहीं मानते कि हम ईश्वर को पूर्णतया जानते
ब्रह्म का जानना और न जानना
ऐसा ही है कुछ-कुछ जाना सा कुछ-कुछ अनजाना सा
ब्रह्म ऐसा है-ऐसा नहीं सदैव ऐसा रहेगा
यही बनेगा उसका जानना
बस जानते हैं कुछ
उसे शांत जिज्ञासा हुई
जानते ही स्वयं को उसको भी जान लेते
यही सारी जिज्ञासा का अंत है।

(29-06-10)

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