Monday, June 28, 2010

जगना मूर्छा से

ओम राघव
प्रकृति का हर पदार्थ युक्त है असीम शक्ति से
अपने में समेटे है अनन्त शक्ति का समुद्र
दृष्टा आत्मा की होती अनुभूतियां
इन्द्रिया होती मात्र माध्यम।
ज्ञान का अनुभूतियों का अस्तित्व
ज्ञाता अन्दर होता, बाहर नहीं।
प्रचंड शक्ति और हलचल हो रही
उपक्षित स्थिति में पैरों तले पड़े
तुच्छ से अणु में भी
मूर्छा का आवरण ही बनाता तुच्छ पर
समेटे अनन्त शक्ति का समुद्र निज कोख में
पदार्थ विज्ञान का काम है
जड़ परमाणुओं की मूल सत्ता को जगाना
और उचित उपयोगी बनाना
पर चेतन जीवाणु की शक्ति असंख्य गुना है
अधिक जड़ परमाणु की करें तुलना अगर
चेतन एक छोटा घटक परब्रह्म का
अपनी मूल सत्ता के समान है समर्थ वह भी
एक समूची दुनिया में समेटे बैठा है
जीवाणु का प्रत्येक नाभिक
प्राणी का शरीर असंख्य जीवाणुओं का समूह
जड़ के ऊपर चेतन का अनुशासन
अत्यंत सामर्थ्यवान यंत्र वाद्य भी निष्क्रिय होते
मानवी बुद्धि कौशल के बिना
दीन दयनीय स्थिति कठिनाई से ढोते
जिन्दगी की लाश को।
न स्वयं पर संतोष न दूसरा संतुष्ट जिनसे
जुड़े गुण कर्म स्वभाव चेतना स्तर की
गिरावट से दयनीय स्थिति
दुर्गति मूर्छा में पड़ा निष्क्रियता के कारण
पर असहाय अशक्त कोई चेतना होती नहीं
हर वस्तु तुच्छ सार की बनी दीखती
मूर्छा के आवरण में लिपटी पड़ी
जागने की देर है अनन्त शक्ति बिखरी पड़ी
पर उसके लिए जो सचमुच जागना चाहे।।
(१९-०६-२०१०)

Sunday, June 27, 2010

संस्कार

ओम राघव

मन जमीन पर जमी

पाश्विक कुसंस्कारों की मोटी परत

प्रभु की साधनारूपी खराद से,

उतारनी पड़ती।

बन जाते जीव के संस्कार

प्रयास कर परिचित हो सके

आत्मा परमात्मा से

रसानुभूति का परम आनन्द

उसको मिल सकेगा।

स्वयं है अजरता अमरता का खजाना

वह जान लेगा।

उम्र चाहे जितनी बढ़े,

मन के रंग-ढंग पुराने ही रहेंगे,

संस्कार गर अच्छे न रहे।

परिणाम दुख ताप दुख और संस्कार दुख

विषय भोग के कारण बनें

तीनों गुणों (सत-रज-तम) की वृत्तियों में विरोध होता,

इसलिए सभी भोग ही दुखरूप होते

अशक्ति और अहंकार शून्य चित्त सदा ही सम रहे

अच्छे संस्कार स्वतः ही बन सकेंगे।।
(०९-०६-२०१०)

Wednesday, June 23, 2010

वेदान्त सार

ओम राघव
दृश्य जगत सत्य या मिथ्या?
जीव ब्रह्म से भिन्न अथवा नहीं?
ब्रह्म का स्वरूप क्या? उसकी प्राप्ति का फल क्या?
अद्वैत-द्वैत व विशिष्ट द्वैतवादी
विचारधारा कहो, दर्शन कहो वेदान्त का
ढूंढता उत्तर उपरोक्त प्रश्नावली का।
इन सभी की विवेचना करता वेदान्त दर्शन
द्वैत भाव अविद्या जन्य मिथ्या दृश्य जगत अद्वैतवादी मानते।
जीव की स्वतंत्र सत्ता नहीं, जीव ही ब्रह्म है जानते
निज को सबमें और सबको निजमें पहचानते
यही है जीव की अमरता।
मरणोंपरांत स्वर्ग नहीं जीव की अमरता
मैं तुम प्रत्येक वस्तु ब्रह्माण्ड की
अंश नहीं ब्रह्म का, वरन स्वयं ही ब्रह्म है।
माया देश काल निमित्ति एक परदा व्यवधान स्वयं और ब्रह्म के मध्य में।
भ्रम कृत्रिम सभी असलीयत जिनकी नहीं,
आत्मा ब्रह्म निर्लिप्त एक ही, लेना-देना उसका कुछ नहीं।
व्यवधान इतना जीवन के विस्तार को
देख पाता एक झलक मात्र ही
अनुभव की आंख से यदाकदा
उतना ही गहन और विशाल जीवन का विस्तार
जितना अनन्त ग्रह नक्षत्रों से भरा दीखता नीला गगन
जीव प्रकृति ब्रह्म की भिन्न-भिन्न द्वैतवादी सत्ता मानते।
प्रकृति वाह्य और आंतरिक दोनों जिनके पार स्थित चरम लक्ष्य
आत्मा की परमआत्मा
आत्मा के धर्म नहीं जन्म और मृत्यु देह के ये धर्म केवल।
अज्ञानियों का विषय संसार है अविद्या मात्र
सोया जीव अनादिमाया से घिरा जागता
जान लेता जन्महीन निद्राहीन स्वप्नहीन
वह स्वयं ही अद्वैत ब्रह्म है
मुक्ति नहीं साध्य बल्कि सिद्ध वस्तु है उसके लिए
जगत की सत्ता नहीं ब्रह्म मैं जगत का भ्रम
सार यही अद्वैत-द्वैत वेदान्त का।।
(०७-०६-२०१०)

Tuesday, June 22, 2010

कर्म का प्रतिफल

ओम राघव
सम्पूर्ण समाज की रचना आधारित
संयम नीति संगत भाव पर
सहिष्णुता क्षमा रूपी पाठ नहीं पढ़ा जिसने
कष्टमय जीवन उसे जीना पड़ेगा
क्षमा प्रतिदान नहीं त्याग भी मांगती है
तभी प्यार का सागर हिलोरे मारता।
दंड देना युद्ध अनैतिकता आतंकवाद
असुनी अमानवीय कृत्य हैं
क्षमा से भी सुधार जिनका नहीं होता
जिनकी दृष्टि के मध्य मलिनता का पड़ा गहरा आवरण
लौकिक दुख अनन्त गुना झेले पड़ते
उन्नत सत्य उच्चतर आदर्श जीवन के लिए
व्याख्या जिसकी हो नहीं सकती
विधि का विधान प्रकारान्तर से
प्रतिफल ही है निज कर्म का
जगत है मिथ्या और सत्य का मिश्रण
कितना सीख पाते इस मिलन को
प्रकाश अंधकार, सुख-दुख सत्य-असत्य लगता रहेगा।
कभी दानव कभी देव जान पड़ते
सब न एक हैं और न अनेक हैं
जितन दूर जाओ विचार के रथ पर चढ़कर
सभी माया के आवरण
अभिन्न से भिन्न मानने की भूल ने
कर्म का चक्कर चला दिया
प्रतिफल उसी का हर बार है
अब भोगना पड़ता।।

(०१-०६-२०१०)

Saturday, June 19, 2010

फादर्स डे और दादा जी की रचनाओं के साथ एक साल

२० जून को आज ही के दिन एक साल पहले गर्मियों की छुट्टियों में मैंनें दादा जी की रचनाओं को इस ब्लाग पर डालने का काम शुरू किया था। यह काम मैंने पापा जी की प्रेरणा से शुरू किया था मगर बाद में मुझे खुद इसमें आनंद आने लगा। पापा जी ने मुझे दादा जी की डायरी थमाई थी और कहा था कि तुम नेट पर गेम खेलते हो, इससे ज्यादा अच्छा है कि यह काम करो। शुरू में कुछ बोझ लगा बाद में मुझे इस काम में मजा आने लगा। एक-एक करके डायरी की सभी रचनाएं पोस्ट कर दीं। जैसे कि मैंने आपको पहले भी बताया है कि मेरे दादा जी भिवानी में रहते हैं और मैं यहां मोहाली में। इसलिए डायरी की सभी रचनाएं खत्म होने के बाद में दादा जी की नई रचनाएं पोस्ट कर रहा हूं। यह नियमित नहीं हैं और देर से मिलती हैं। दादा जी लिखने के बाद दो या तीन की संख्या में मुझे डाक से भेजते हैं, फिर मैं उसे यहां पोस्ट करता हूं। यह एक अच्छा संयोग है कि इस बार २० जून को फादर्स डे भी है। दादा जी की सौ के करीब रचनाएं आज इस पोस्ट पर है। इन्हें तो ब्लागर साथियों ने सराहा ही है पर साथ ही मुझे भी इसे शुरू करने के लिए समय-समय पर अपनी टिप्पणियों के जरिए प्रशंसा और आशीर्वाद दिया है। इसने मेरा उत्साह इतना बढ़ाया है कि अब मैं दादा जी की रचनाओं का इंतजार करता हूं और देर होने पर उनसे फोन पर जल्दी भेजने को कहता हूं। नियमित न होने का बावजूद एक साल में करीब २०० टिप्पणियां और १७ फॉलोअर किसी भी ब्लागर का उत्साह बढ़ाने के लिए काफी है। इसके लिए मैं आप सबका भी धन्यवाद करता हूं।

अद्वैत राघव

Wednesday, June 9, 2010

विश्वास

ओम राघव
विद्या हुनर और काम
सीखना पड़ता है काबिल गुरु से
शरीरी यात्रा निर्विघ्न हो अन्न-जलादि का संतुलन चाहिए।
उच्चस्तरीय चिंतन बने पदार्थ निज चेष्टा ज्ञान चाहिए।।
शक्ति सागर एक लहरें अनगिनत जैसी शक्तियां
होता भान उनका बन अनेक देवी देवता।
डाली से जुड़े पत्तों की तरह, ईश मूलरूप वृक्षका।।
सूर्य की किरण भिन्न लगती अस्तित्व केवल सूर्य का
प्रतीक साधन ईष्ट की कह सकें प्रथम कला
साधना निराकार की बन जाती उच्च शिक्षा
श्रद्धा विश्वास हो स्थान नहीं तर्क का
परे तर्क से साधन विश्वास से साध्य कक्षा
शक्ति मंत्र की निहित श्रद्धा और विश्वास में
मन की शक्ति बन जाती मंत्र की उस भाव में
विश्वास नहीं करता जो किसी अन्य का
कौन भला अभागा उससे दूसरा होगा।
विश्वास ही परम के निकट ला सकेगा
दिल दिमाग खुलकर प्रकाश अंदर आ सकेगा।।
(३१-०५-२०१०)

Saturday, June 5, 2010

पंछी की उड़ान

ओम राघव
संसाररूपी बाग में जीव पंछी विचरण कर रहा है,
मौत रूपी बाज रहता निकट उठाने की ताक में
लालची मन बना विषय विकार की लालसा में
मन के बस में प्राण हो गया शैतानी ताकत बना
मन माया दो पाटों के बीच में जीव दाना पिस रहा
घुट रहा दिन रात कीचड़ में राग द्वेष बनकर
हजारों पंछी उड़ गए अपनी-अपनी बोली बोलकर
कार्य संसारी अधूरे छोड़कर तुझे भी जाना पड़ेगा।
मौत आना जन्म लेना अवस्थाएं नरक की
भूल की सत पुत्र था ये देश घऱ तेरा नहीं
असीमित इच्छा बना कर मन बेलगाम
परेशानियों का मूल कारण बन गया।
राग द्वेष की लहरें उठीं मन रूपी तालाब में
चाल अपनी भूल पंछी जाल में फंस गया।
काम क्रोध लोभ मोह शत्रु बलशाली बन गए
हो गए दया दीनता और नम्रता ज्ञान के वाहक बने
दुनियावी बुद्धि कारगर होती नहीं
निर्मल बुद्धि चाहिए
संगत शिक्षा विचार शक्ति अच्छी चाहिए
सांसारिक वस्तु अस्थाई और है नाशवान
सच्चा आनन्द फिर कैसे मिलेगा?
मंजिल दूर पंछी तेरी आशियाना जहां मिलेगा।
(२३-०५-१०)