ओम राघव
समाज एक स्थल है, प्रगति के क्रम में जीव का,
सृष्टि के आरम्भ में नहीं था समाज
और अंत में भी रहना नहीं
अतः शास्वत नहीं समाज।
विकास के उच्चस्तरों तक जाने का मात्र माध्यम समाज जीव का।
नीतिशास्त्र का क्षेत्र है असीम मनुष्य
आगे जाना है, जिसे भौतिक जगत से
नीतिशास्त्र बनता साधन पाने को साध्य जीव का।
भौतिक जगत चाहे कितना भी लगे आनन्ददायक
और उद्देश्य प्रकृति ही केवल नहीं है।
उससे ऊपर ऊठे मनुष्य यही प्रयत्न ही
बनाता उसको मनुष्य और उसकी मनुष्यता।
वाह्य प्रकृति आंतरिक दोनों से ही उठना है ऊपर उसे
भव्य है समाज की सुन्दरता के लिए जीतली वाह्य प्रकृति
पर अनंत गुना श्रेष्ठ है जीतना आंतरिक प्रकृति का
कलुषित कुत्सित मनोवेग इच्छाएं भावनाएं जीतना जिनका
करता सहायता सदैव इसमें नीतिशास्त्र है।
(२७-७-२०१०)
Monday, August 23, 2010
Saturday, August 21, 2010
असली घर
ओम राघव
केवल कर्मों का यह खेत है वर्तमान घर,
विगत जन्मों के कर्मों का चुकता हिसाब करने
आये यहां, पर यह संसार अपना असली घर नहीं,
कोई भी वस्तु दुनिया की नहीं हमारे साथ जाएगी
भले ही लगा दें उसे पाने में अपनी सारी जिन्दगी।
मन सोचता रहता कुछ और ही बदल दे सोच
लड़ना पड़ता सदैव उससे मानसिक रूप में भी।
आसान तभी हो सके राह असली घर की,
जिसने जन्म दिया निरन्तर सुमिरन उसी का।
ना मांगे तुच्छ वस्तुएं संसार की,
अविश्वास करते उससे मांग कर।
हमारी जिन्दगी-जीविका की चिन्ता उसे हमसे अधिक
अविश्वास की बात क्यों कर फिर करें।
मन स्थिर हो सके यह जीवन का संघर्ष है,
मन न भटका सके दुनियावी चमक में जीव को,
कब से ढो रहे स्वकर्मों का ही भार सब
तोड़नी पड़ेगी परतें सभी कुसंस्कार-संस्कार की भी,
बीते अनेक युग, असली घर को छोड़कर
जीव जीवन का सारा सार है-
घर असली अपना मिल सके।।
(२१-०७-२०१०)
केवल कर्मों का यह खेत है वर्तमान घर,
विगत जन्मों के कर्मों का चुकता हिसाब करने
आये यहां, पर यह संसार अपना असली घर नहीं,
कोई भी वस्तु दुनिया की नहीं हमारे साथ जाएगी
भले ही लगा दें उसे पाने में अपनी सारी जिन्दगी।
मन सोचता रहता कुछ और ही बदल दे सोच
लड़ना पड़ता सदैव उससे मानसिक रूप में भी।
आसान तभी हो सके राह असली घर की,
जिसने जन्म दिया निरन्तर सुमिरन उसी का।
ना मांगे तुच्छ वस्तुएं संसार की,
अविश्वास करते उससे मांग कर।
हमारी जिन्दगी-जीविका की चिन्ता उसे हमसे अधिक
अविश्वास की बात क्यों कर फिर करें।
मन स्थिर हो सके यह जीवन का संघर्ष है,
मन न भटका सके दुनियावी चमक में जीव को,
कब से ढो रहे स्वकर्मों का ही भार सब
तोड़नी पड़ेगी परतें सभी कुसंस्कार-संस्कार की भी,
बीते अनेक युग, असली घर को छोड़कर
जीव जीवन का सारा सार है-
घर असली अपना मिल सके।।
(२१-०७-२०१०)
Monday, August 9, 2010
जाप
ओम राघव
विचलित व्याकुल कर देने वाले प्रसंग
उद्विग्न कर देते मन को
खोजता मन का संतुलन करता निश्चित दुश्परिणाम
असंगत चिंदन कथन क्रियाकलाप होते
उद्वेग के कारण
लक्ष्य की विस्मृति स्वरूप को न जानना
बनता हमारी विपन्नता का कारण
अवांछनीय आकर्षण संसार का घटना
दूर करता आने वाला अवांछनीय संकट भी
एक क्रम एक गति विश्राम बिना
विशिष्ट शब्दों की सीमित शब्दावली का
जाप निश्चित करता शुभपरिणाम
शांति लक्ष्य और अपने स्वरूप को जानने का
मूर्छित पड़ा अंतर्जगत अनुभव करने लगता
नए जागरण का दिव्य जन्म का
होती उत्पन्न दिव्य उपलव्धियां
निरंतर जाप से
सीमित ग्रहण और धारण शक्ति का
विस्तार होता चमत्कारी कार्य सम्पादन बने।
(१३-०७-२०१०)
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