Thursday, December 24, 2009

ज्ञान या भक्ति

ओम राघव
जिज्ञासा मानव की रही सदा, सब कुछ जान ले,
दृष्टि से ओझल, उस असीम विस्तार को मान ले।
बहुत कुछ का मिला पता , पर असीम के भी पार क्या?
खोज से सुविधा मिली, पर असुविधा बन दूसरे की
जान ले सब कुछ उसका नाम तो ज्ञान ही,
नाम न आकार, स्थान विशेष पर रहता नहीं
पर सब कुछ जान लेना , क्या है इतना सहज ,
प्रश्न पर प्रश्न उठता , उपजता ज्ञान में है महज
विचार, कर्म देंगे अद्भुत ऊर्जा संवेदना?
न नाम न आकार स्थान- ज्ञात यह नहीं मानता,
उससे भी आगे और क्या? क्यों नहीं जानता।
पर भक्त की कल्पना ने नाम - आकार सब गढ़ लिए,
उसको लगा कल्पना ने संदेह सारे शांत कर दिए
संवेदना , अद्भुत ऊर्जा अनुभव में आने लगी,
इन्द्रियां शिथिल, शांत मन, दृष्टि दूर तक जाने लगी
विचार कहाँ से उपजता, कौन है जो बोलता,
वेदना आती कहाँ से, स्वयं को न तोलता
असीम विस्तार उसका, अज्ञान ढकता ज्ञान से,
अगोचर, असीम भला जान पायें कैसे उसे?
जिज्ञासा जानने की बलबती होती गयी,
उत्सुक जानने को सब कुछ , ज्ञान की महिमा यही
न जानना चाहे सब कुछ अज्ञानी बन केवल समर्पण,
सब कुछ जान सकता ही नहीं, बेकार जानना सब कुछ
उत्सुकता से केवल क्या जान पाया- सब कुछ क्या कहाँ?
पर अंत में देखा यही सब कुछ अधूरा ही रहा
समर्पण - गुलाम की सुन्दरता पर मुग्ध केवल ,
नहीं प्रयत्न उत्सुकता की कहाँ से कैसे और केवल
रंग रूप , उसका पाया जानने की जरूरत फिर कहाँ?
ज्ञान के प्रयत्न में परिश्रम का फिर अधिक मोल क्या?
समर्पण मात्र में शांत जिज्ञासा हुई,
बस महत्वपूर्ण, एश्वर्याशाली शक्ति वही
ब्रह्म कहलाती, ईश्वर खुदा, जो भी नाम दो
गोचर-अगोचर वही सब सामर्थ्यवान वो।
मन का सहारा इन्द्रियों के पार वह जा सके,
शक्ति इंद्रियों की सीमित, असीम कैसे पा सके?
खोज में. या समर्पण करे? चुनाव मानव करे
मन ही पहुंचा सके-कौन मैं? आया कहां से?
आत्मा का भान, मन ही करेगा।
साक्षात मोक्ष की चाह संभव करेगा।।
-२७-११-०९

Tuesday, December 22, 2009

सत्य क्या

अपने अपने ढंग से विद्वान् कहते -
" एक सद विप्र बहुदा बदंति "
एक सत्य , शेष सब है भ्रान्ति
स्वयं को न जान सके और क्या जाने भला?
में कौन- आया कहाँ से - भ्रान्ति या भ्रान्ति से निर्मित
इन्द्रियों से दीखता भ्रान्ति जब !
भ्रान्ति-आगे पीछे , ऊपर नीचे - में भी भ्रान्ति
के कारण ही भाष्ता ? असत्य - भ्रम केवल
बाद और प्रतिवाद करता - जो भी मिलता
उत्पनं - संवाद होता- भ्रान्ति क्या वह भी नहीं
" वादे - वादे जायते तत्व बोध "
सब कुछ भ्रान्ति है फिर इसका - उसका
मेरा - अस्तित्व कैसा ? भ्रान्ति तो असत्य है
अभिमान- यथा- कथित अभिजात्य वर्ग का -
पैर केवल वह उनमे नहीं मुझ में और तुझमें
भी भर गया है
स्वयं की पहिचान भूल- स्वयं भ्रान्ति बन गया में
प्रत्येक जन को - संबोधन प्रेम से वाणी द्वारा
भी भूल बैठा भ्रान्ति को सत्य मान
न छोटा - न बड़ा कोई - आभाव से सर्वमान्य
कैसे बने - भावना हो गयी प्रदूषित
सामाजिक सोहार्द - लोक व्यव्हार से बनेगा
भाद्र्भावना से मुक्त व्यवहार - हो धर्म का
पर्याय बनता
आभाव में सत्य दूर होता गया- सबसे अधिक
समीप गर कुछ था - या है वहन सत्य कैसे भाष्ता
सब का- सब के लिए बहन होने लगे-
सत्य की और कदम चलने लगे समझो -
निजत्व नहीं मोलिकता नहीं तत्व ही जब एक है
भिन्नता से उपजता दोष - अभिनता ही सत्य है
दीख पड़ती अद्भुत प्रतिभा- सर्वमान्य , पावन- प्रतिक
उच्चता - दीख पड़ती सत्य -
की और - अभाष - उसी से सत्यम शिवम् सुन्दरम का
ओम राघव
०९-१२-2009

Saturday, December 19, 2009

बुढ़ापा

आज का युवा कल का बूढा है, पर-
कल-जिसे युवा न देखता, न सुनना चाहता है
लगता एक व्यवधान जिन्दगी में, उसको सुनना भी,
जिया जीवन, भी बड़े अनुभव का नाम भी है,
जन्मना-मरना सत्य है- पर बीच का
जिया- जीवन अवश्य नाटक मात्र है
पात्र बन्ने के बाद अभिनय अनिवार्य है?
या मजबूरी ?
जीवन ताकि चल सके- हेतु बनाना पथ सरल
चाहता मरे नहीं, सब कुछ ज्ञात रहे सुखी सदा
मूल में सत - चित, आनंद की चाह
आस-पास का वांग्मय - संसार में आकर परिचय मिला,
संस्कार बस मिला- कृत्य अपना स्वयम का
समाज-परिवार ने- चलना, फिरना व समझ दी ,
सायद कदम एक भी स्वयं न चल सका
चारों और जीवन देखा, मरण देखा, लोगों का,
संघर्ष देखा- पैदा - प्रेम लेकर हुआ-
इर्ष्या , क्रोध, लालच संघर्ष कहाँ से आ गया ?
समझ का फेर संस्कारों में त्रुटी कहाँ से आ गयी ?
करने पैर विचार, आती अवश समझ,
संस्कृति, आप्त पुरुष अध्यन आचरण से
बहुत कुछ बतला गए
धारण हम करते नहीं आचरण में सर्वथा -
आभाव उनका , भंवर में गिर निकलना हम चाहते
लाखों वर्षों से चलता सिलसिला - एक जाता
एक आता - पर न सीखना हम चाहते
जीवन स्वयं का सिखाता बहुत कुछ
न स्वयं सीख पाते - पर सीख अन्य को
ऐसी सीख दो - जीवन यापन के लिए
मार्ग हो सुगम
करता कठोर संघर्ष आशा में बच्चे बनेंगे सहारा
बुढ़ापे का होम देते सारा जीवन - अपने सुख चैन का
बलिदान कर
सुख-सुविधा से संपन्न संतान हो-------
आभाव जो देखा- न देखना पड़े उनको ,
पर क्या सहारा मिला- चल चित्र बना बागवान का
मिलता नहीं - आभाव समय का परिस्थिति का ,
बुरा समझने का न किसी का अधिकार है -
मिला - मिलता रहा अपना ही संस्कार है
जन्म- जात मरना शेष रहता है ,
भोग संग्रह छोड़ समर्पण कर उस ब्रहम की शरण में
शांति का मार्ग - शेष जीवन जहाँ से मिला-
उसी को सोपना - यही आखिरी काम है
ओम राघव
३०-११-2009