Saturday, December 19, 2009

बुढ़ापा

आज का युवा कल का बूढा है, पर-
कल-जिसे युवा न देखता, न सुनना चाहता है
लगता एक व्यवधान जिन्दगी में, उसको सुनना भी,
जिया जीवन, भी बड़े अनुभव का नाम भी है,
जन्मना-मरना सत्य है- पर बीच का
जिया- जीवन अवश्य नाटक मात्र है
पात्र बन्ने के बाद अभिनय अनिवार्य है?
या मजबूरी ?
जीवन ताकि चल सके- हेतु बनाना पथ सरल
चाहता मरे नहीं, सब कुछ ज्ञात रहे सुखी सदा
मूल में सत - चित, आनंद की चाह
आस-पास का वांग्मय - संसार में आकर परिचय मिला,
संस्कार बस मिला- कृत्य अपना स्वयम का
समाज-परिवार ने- चलना, फिरना व समझ दी ,
सायद कदम एक भी स्वयं न चल सका
चारों और जीवन देखा, मरण देखा, लोगों का,
संघर्ष देखा- पैदा - प्रेम लेकर हुआ-
इर्ष्या , क्रोध, लालच संघर्ष कहाँ से आ गया ?
समझ का फेर संस्कारों में त्रुटी कहाँ से आ गयी ?
करने पैर विचार, आती अवश समझ,
संस्कृति, आप्त पुरुष अध्यन आचरण से
बहुत कुछ बतला गए
धारण हम करते नहीं आचरण में सर्वथा -
आभाव उनका , भंवर में गिर निकलना हम चाहते
लाखों वर्षों से चलता सिलसिला - एक जाता
एक आता - पर न सीखना हम चाहते
जीवन स्वयं का सिखाता बहुत कुछ
न स्वयं सीख पाते - पर सीख अन्य को
ऐसी सीख दो - जीवन यापन के लिए
मार्ग हो सुगम
करता कठोर संघर्ष आशा में बच्चे बनेंगे सहारा
बुढ़ापे का होम देते सारा जीवन - अपने सुख चैन का
बलिदान कर
सुख-सुविधा से संपन्न संतान हो-------
आभाव जो देखा- न देखना पड़े उनको ,
पर क्या सहारा मिला- चल चित्र बना बागवान का
मिलता नहीं - आभाव समय का परिस्थिति का ,
बुरा समझने का न किसी का अधिकार है -
मिला - मिलता रहा अपना ही संस्कार है
जन्म- जात मरना शेष रहता है ,
भोग संग्रह छोड़ समर्पण कर उस ब्रहम की शरण में
शांति का मार्ग - शेष जीवन जहाँ से मिला-
उसी को सोपना - यही आखिरी काम है
ओम राघव
३०-११-2009

2 comments: