Monday, November 21, 2011

क्रोध

बनता भयंकर शत्रु-शांति हर-संताप बढाता
मित्रता नाशक आँख वाले को अँधा बनता

भले बुरे का विवेक भी क्रोध ही नष्ट करता
आपसी प्रेम का नाशक, क्षय धर्म का करता

क्रोध की आग में जल कर बुद्धि नष्ट हो जाती
स्वयं भी जलता-दूसरे को दे संताप जलाती

वर्षों का संचित सुभ कर्म क्षणिक क्रोध हर लेता
मूरखता ही प्रथम इसका कर्म बन जाता

न करे क्रोध गर मानव-तो महान हो जाता
समय पर बिफल कर दे, वह विचार ज्ञान बन जाता

स्मरण परमात्मा का हो-इस का नाश कर देता
विनम्रता सीख ले मानव, त्रोहित क्रोध हो जाता

समस्याएँ अनेक जीवन की, स्वयं का क्रोध करता है
विगत क्रोध से रहे मानव , सागर संसार तरता है

क्रोध से दूर रहना ही विनम्रता-सदाचार सिखलाये
दूरियां जो बन चुकी अबतक-विगत क्रोध मिटाए

ओम राघव

Tuesday, November 8, 2011

समय

' सदा रहेगा - सच गुजरा हुआ कल,
कसक उठता है - याद करते आज भी
समय - स्थान - सब, सब लोग दूर कहाँ चले गये
वह वर्तमान - कल बन' अनजान बन गया .
छूटे सभी जहाँ-तहां - यहाँ रहे कुछ वहां गये
कई जाकर न लौटे कभी
यही सब नहीं हो रहा निरंतर
साड़ी सृष्टी में
कहाँ - कैसा ? प्रेम मिटता - द्वेष करता -
अभावों से घिरी नहीं है क्या - ये सारी दुनिया ?
उसमें ही रमता रहा - साडी जिन्दगी मन,
समय के फेर का ही नाम क्या दुनिया,
समझना कठिन - और कठिनतर होता गया
समय का भेद कब कैसे मिटे ?
समझना आगया --
छण का गुजरना - पहर दिन - वर्ष -
युग का समझना -
आसान हो जाये
इति ओम राघव

" संत "

संत सुख-सुविधा त्याग सिखाते उपाय -
क्या होती सुख - सुविधा समाज की
प्रेरणा स्त्रोत बनते संसार की -
संतोष - नम्रता - त्याग शांति की
प्रति मूर्ति बनकर
सिखाते जीवन जीने की कला
परिवार में रहने का ढंग सिखाते
महकते स्वयं विश्व - समाज महकाते
सिखाते छमा अन्य को करना
चलते फिरते तीर्थ संत होते
स्थान - जहाँ होता पदार्पण उनका
बसंत लहलहा उठता -
संत न आते जगत में
हाहाकार होता चरों ओर-
और जल मरता स्वयं ही संसार
आते सदा संत - मार्ग दर्शन करने -
समाज का
उदेश्य आने का संसार में
भली - भांति समझाते -
छूट सके भवसागर से
तथ्य और ज्ञान समझाते
इति ओम राघव

Sunday, February 20, 2011

निदान

ओम राघव
आया नहीं कहीं से फिर जाना कहां?
प्रश्न से स्वयं ही उलझ रहा
अहसास मूर्छा का खेल
छोड़ एक जिंदगी...

दूसरी ढोता रहा
असहज रहा सदा मूर्छा से जागना
अवश्य तभी एक वाणी
क्षितिज से दुलारती थी

क्यों न अब जागकर
शरण में उसकी आ रहा
अस्तित्व मेरा मूर्छा मेरी
पुकारना किसका
समझ कुछ आने लगा है

शरण था, शरण हूं
शरण में आगे रहूंगा
स्वंय से कहना
स्वयं से कहता रहूंगा
सुनने वाला दूसरा कोई नहीं
मोहताज कल्पना के खेल का
अब न रहूंगा
याद कैसी और किसकी?
चक्करों में क्यों पड़ूंगा?

समस्या स्वयं, समाधान स्वयं
निदान भी खुद ही करूंगा।

Saturday, February 12, 2011

समस्या

जीवन का आभास ही सबूत है

समस्या के आस्तित्व का

समस्या से रहित जीवन नहीं होता

समस्या सुलझाने की चाह होती है

प्रस्तुत समाधान करती महत्वाकांक्षा भी

कभी बन जाती अपनी समस्या

दूसरा नहीं होता कारण

समस्या के प्रसूत का

प्रेरणस्रोत मूलरूप से हम उसका

दोष पर दूसरों को देते रहते सदा

शरीर और कर्म का सद्पयोग होना चाहिए

सहनशक्ति स्नेह व सहयोग के साथ

सटीक निर्णय की त्वरित शक्ति चाहिए

नहीं कम गंभीरता भी समाधान जैसा चाहिए

होगा समस्या का अवश्य निदान

अपेक्षित कथित तत्व होने चाहिए।

ओम राघव

15-11-2010