Wednesday, October 6, 2010

ऐसे अनेक रामदेव बाबा चाहिए

ओम राघव
अब नहीं लगते
उबाऊ, भड़काऊ, कुत्सित, अश्लील
आए समाचार दैनिक प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया से
कभी कहते थे
घृणित फूहड़ भड़काऊ अश्लील नैतिकता से परे
आंग्लदेशवासियों के पहनावे को
डूब गए हम कंठ तक कीचड़ में
पर नजर नहीं आती अश्लीलता
अशिष्ठ साहित्य में भी बल्कि कर रहे महिमामंडित
कहकर- समाज का दर्पण है साहित्य
यथार्थवाद की आड़ लेकर
नहीं थकते थे कभी कोसते जिनको
अपने युवा भी बढ़ावा दे रहे
अश्लील चित्रों को देखकर
लांघ गए हैं सभी सीमाएं
सारी तोड़कर आगे जाने का आधुनिक होने का
दावा कर रहे हैं
नई पीढ़ी उन्हीं का साथ देने आ गई है
परिणाम दिनरात ऐसा साहित्य दर्शन पेश करने का बन गया है
आचार उनका सीखते जिनसे वही सिखा रहे हमको जिन्हें हम कोसते थे
उन्होंने भारतीय संस्कृति को सीख करकर लिया सुधार अपना
हम उसका अनुकरण कर रहे हैं
जो छोड़ उन्होंने दिया
क्या हमें छोड़ना आदर्श अपना
नैतिक परंपरा साथ देकर अश्लीलता का अपनी पीढ़ी का कितना
नुकसान हम कर रहे?
पैसा-शौहरत केवल बनी आधार जिनका
वे सब ऐसा करेंगे जिन्हें अपने परिवार
देश मानव जाति का हित बने
ऐसे अनेक रामदेव बाबा चाहिए।
(१३-०९-१०)

Friday, September 24, 2010

सहनशक्ति

ओम राघव
परमार्थ के मार्ग में जीव को
उतना बल मिलेगा
सहन शक्ति का शरीर मन में
जितना संबल बनेगा
दुखी लाचार का निष्काम भाव से
जीवन का निर्वाह होगा
कर्म (वैसा) श्रद्धा सहनशक्ति अहंकार
शून्य का वाहक बनेगा
जाति धर्म की खातिर बलिदान करे
आदर का भागी बनेगा
भाईचारा विश्व दृष्टिकोण सर्व सुख की
चाह का आधार होगा
पाप से कलुषित मन सुस्रजन की बात
भला कैसे करेगा
ज्ञानेंद्रियां भी न सहायक आत्मानुभूति
कैसे हो सके
परमपिता परमात्मा विद्यमान मुझ में
और आप में भी
सहन शक्ति से पारम्भ होता
आसान प्रत्याहार भी
सरल राह प्रारंभ
सहनशक्ति से करना पड़ेगा
खुल सकेंगे ज्ञानचक्षु
बाहर भीतर से शुद्ध तो होना पड़ेगा।

(०९-०९-२०१०)

Monday, September 20, 2010

उद्देश्य

ओम राघव
अधिकता ध्यान के अभ्यास से मन वासना शांत होते,
शरीर के निर्वाह के लिए पूर्व अभ्यास ही कारण बनाते
भोगरूपी अंकुर प्रारब्ध रूपी बीज से उत्पन्न होता,
बीज भी काल कर्म से शक्तिहीन होकर नष्ट होता।
मन और वासना जब नष्ट हो न शरीर संयोग रह पाता
स्वतः देह यात्रा का निर्वाह सुषुप्ति का आभास भर देता।
अंतःकरण समाधिस्थ होकर अल्प जगत व्यवहार रह पाता,
अविचल स्थिति बनकर विचार प्रकृष्टता से सुलभ होता
ज्ञानी उत्तम मध्यम जिसको ज्ञान, न जानना कुछ शेष रहता
जीवन में विचार शक्ति संगति और अच्छी शिक्षा का प्रभाव होता
सुखी रहे सर्वदा जानना जीव का यही उद्देश्य रहता।
(३-०९-१०)

Tuesday, September 7, 2010

नजरिया

ओम राघव
हर वस्तु घटना को देखने का कैसा नजरिया?
एक भौतिक दूसरा आध्यात्मिक होता है जरिया।
अहम से भरा एक, अहम से शून्य दूसरी प्रक्रिया
मैं भौतिकवादी और वह बनता वेदान्ती नजरिया।
कर्ता सर्वदा एक है, वह परम-आत्मा की क्रिया
जगत की रचना और चलाना, कृतित्व बनता नजरिया।


पाप बड़ा माने स्वयं को कर्ता का नजरिया
सफलता असफलता यश अपयश, कर्ता नहीं ऐसा नजरिया।
अहम हो जाए विलीन, परमात्मा अद्वैत का बनता नजरिया।
शुद्ध अशुद्ध सम्मिश्रण भ्रम ब्रह्मांड का नजरिया
परम शुद्ध पुरुष एक से अनेकता का खेल दिखाता नजरिया,
शऱीर और मन का स्तर छो़ड़, बन आत्मस्तर का नजरिया।
(२५-०८-२०१०)

Sunday, September 5, 2010

अवस्थाएं

ओम राघव
जागृति मुख्य भाग है सम्पूर्ण जीवन का
मन-वाचा-कर्मणा में उसका मौन रहता
स्वप्नावस्था में देखा सभी सत्य लगता
जाग्रति में सभी मिथ्या का आभाष देता
जाग्रति अवस्था भी दीर्घ स्वप्न मात्र होती
उपरोक्त अवस्था वेदान्त से अयाथार्थ होती
अवचेतन और अचेतन मदारी मन के बने
जिन्दगी को खिलाते खेल स्वप्नवस्था ही बने
जाग्रत व स्वप्नावस्था में मेल जीव गर कर गया
तभी वह प्रमाणिक और ईमानदार बन गया
सुषुप्ति में मन पूरी तरह निश्चेष्ट हो जाता
अहम-अविद्या शेष रह विकार रहित आत्मा
सुषुप्ति चेतन ध्यान बन जाते
गाढ़ी निद्रा में विचार न स्वप्न रह जाते
अहम अविद्या विद्यमान रह पाते
समाधि में वासनाएं स्वप्न जगत नष्ट हो जाता
लोक का वस्तु जगत भी लोप हो जाता
अविद्या नष्ट होती आनन्द स्रोत उमड़ पड़ता
चैतन्य पूर्ण के समीप पहुंच जीव जाता
अनुभव या चेतना का आधार बन जाती
कहानी जीव की समाधि अवस्था में पूर्ण हो जाती।
१७-०८-२०१०

Thursday, September 2, 2010

शुभाचरण की महक

ओम राघव
जीवन एक पुस्तक बना
पढ़ना है जिसे जिन्दगी भर
भावनाएं विचार बनतीं
कर्म का आधार बनकर
न हो आहत कोई
अपनी जुबान या हथियार से
विचार न करें अहित
पैदा करें आत्मीयता प्यार से
अच्छाई की महक
स्वतः फैल जाती चारों दिशा में
खुशबू फूल की महकती
केवल वायु की दिशा में
हर क्षण अपनी जिन्दगी का
एक तस्वीर है
हर कर्म लिख रहा
हर कर्ता की तकदीर है
देखा न पहले, सो देखना
फिर न दिखा पाये अपने लिए
हर क्षण मोहक सुन्दर बने
सुघड़ जीवन के लिए
फूल की महक
वायु के रुख के साथ चल पाती
शुभ आचरण की महक
जीवन के हर ओर महकती
शक्ति वर्धक अस्त्र हैं
शांत रहा और मुस्काना
समस्याओं का कभी समाधान
बन जाता मुस्कराना
शुभाचरण की महक
सुघड़ जीवन का आधार बन जाती
आधार जीवन का बने शुभ आचरण
आदत ही आधार बन जाती।
(१३-०८-२०१०)

Monday, August 23, 2010

नीति शास्त्र

ओम राघव
समाज एक स्थल है, प्रगति के क्रम में जीव का,
सृष्टि के आरम्भ में नहीं था समाज
और अंत में भी रहना नहीं
अतः शास्वत नहीं समाज।
विकास के उच्चस्तरों तक जाने का मात्र माध्यम समाज जीव का।
नीतिशास्त्र का क्षेत्र है असीम मनुष्य
आगे जाना है, जिसे भौतिक जगत से
नीतिशास्त्र बनता साधन पाने को साध्य जीव का।
भौतिक जगत चाहे कितना भी लगे आनन्ददायक
और उद्देश्य प्रकृति ही केवल नहीं है।
उससे ऊपर ऊठे मनुष्य यही प्रयत्न ही
बनाता उसको मनुष्य और उसकी मनुष्यता।
वाह्य प्रकृति आंतरिक दोनों से ही उठना है ऊपर उसे
भव्य है समाज की सुन्दरता के लिए जीतली वाह्य प्रकृति
पर अनंत गुना श्रेष्ठ है जीतना आंतरिक प्रकृति का
कलुषित कुत्सित मनोवेग इच्छाएं भावनाएं जीतना जिनका
करता सहायता सदैव इसमें नीतिशास्त्र है।
(२७-७-२०१०)

Saturday, August 21, 2010

असली घर

ओम राघव
केवल कर्मों का यह खेत है वर्तमान घर,
विगत जन्मों के कर्मों का चुकता हिसाब करने
आये यहां, पर यह संसार अपना असली घर नहीं,
कोई भी वस्तु दुनिया की नहीं हमारे साथ जाएगी
भले ही लगा दें उसे पाने में अपनी सारी जिन्दगी।
मन सोचता रहता कुछ और ही बदल दे सोच
लड़ना पड़ता सदैव उससे मानसिक रूप में भी।
आसान तभी हो सके राह असली घर की,
जिसने जन्म दिया निरन्तर सुमिरन उसी का।
ना मांगे तुच्छ वस्तुएं संसार की,
अविश्वास करते उससे मांग कर।
हमारी जिन्दगी-जीविका की चिन्ता उसे हमसे अधिक
अविश्वास की बात क्यों कर फिर करें।
मन स्थिर हो सके यह जीवन का संघर्ष है,
मन न भटका सके दुनियावी चमक में जीव को,
कब से ढो रहे स्वकर्मों का ही भार सब
तोड़नी पड़ेगी परतें सभी कुसंस्कार-संस्कार की भी,
बीते अनेक युग, असली घर को छोड़कर
जीव जीवन का सारा सार है-
घर असली अपना मिल सके।।
(२१-०७-२०१०)

Monday, August 9, 2010

जाप

ओम राघव

विचलित व्याकुल कर देने वाले प्रसंग

उद्विग्न कर देते मन को

खोजता मन का संतुलन करता निश्चित दुश्परिणाम

असंगत चिंदन कथन क्रियाकलाप होते

उद्वेग के कारण

लक्ष्य की विस्मृति स्वरूप को न जानना

बनता हमारी विपन्नता का कारण

अवांछनीय आकर्षण संसार का घटना

दूर करता आने वाला अवांछनीय संकट भी

एक क्रम एक गति विश्राम बिना

विशिष्ट शब्दों की सीमित शब्दावली का

जाप निश्चित करता शुभपरिणाम

शांति लक्ष्य और अपने स्वरूप को जानने का

मूर्छित पड़ा अंतर्जगत अनुभव करने लगता

नए जागरण का दिव्य जन्म का

होती उत्पन्न दिव्य उपलव्धियां

निरंतर जाप से

सीमित ग्रहण और धारण शक्ति का

विस्तार होता चमत्कारी कार्य सम्पादन बने।
(१३-०७-२०१०)

Wednesday, July 28, 2010

योग और तप

ओम राघव
चेतना को दिशा-निर्देश और प्रेरणा मिल सके,
जीव की ससीमता ब्रह्म की असीमता में मिल सके
आवश्यक क्रिया-कलाप योग वास्ते यह साधना चाहिए
आत्मा को परमात्मा से जोड़ दे वही योग कहलाए
योग और तप आत्मिक प्रगति के लिए चाहिए
लक्ष्य विहीन साधना मात्र मनोरंजक भटकाव है
उत्पन्न हो उपयुक्त भाव चेतना उत्कट भाव आना चाहिए
जन्म-जन्मान्तरों के संग्रहीत कल्मश
पशु प्रकृति पर पूरा नियंत्रण चाहिए
एकाग्रता तन्मयता भाव-समाधि विचार शून्यता
साध्य सिद्धी का बनते वह आधार चाहिए
भजन ध्यान की आदत स्वभाव में परिणित बनेगी
भजन की आवश्यक्ता आदत भजोन से अधिक चाहिए
सांसारिक प्रेम की लिप्सा भक्ति श्रेयी आकांक्षा बने
प्रवृत्ति पशु स्तरीय छोड़ देव स्तरीय ही चाहिए
निरुद्देश्य जीना हवा के साथ इधर-उधर उड़ते पल हैं
भटकना यत्र-तत्र-सर्वत्र नहीं ऐसा जीवन चाहिए
समीप पहुंचना ब्रह्म के सुनिश्चित मार्ग ही सम्भव
योग और तप करे संभव आधार उनका चाहिए।
०९-०७-10

Saturday, July 24, 2010

कला का कमाल

ओम राघव
नहीं कमी सम्मान देने वालों की
सुन्दर कला का कमाल आना चाहिए।
दूसरों की परीक्षा सारी उम्र कर ली,
परीक्षा अंतःकरण की स्वयं करनी चाहिए।
कभी स्वर्ग कभी नर्क जैसा लगता घर
उसी घर को मधुरता से सजाना चाहिए।
आदतें पक्की हो गईं चाहते सुधारना उनको
छोड़ आशा दूसरों की स्वयं को सुधरना चाहिए।
सुधरें भला वे क्यों कर सीखें किसलिए?
सुधरने का सलीका खुद को आना चाहिए।
भिन्न-भिन्न मानना ईष्ट को भ्रांत कहना दूसरे के धर्म को।
विश्वव्यापी धर्म को आवर्ती होना चाहिए।
विकृत चिंतन से बहुमूल्य शक्ती नष्ट कर ली,
कुसंस्कारों को छोड़कर सुविचरण ही चाहिए।
शरीर सीमा इन्द्रिया मन बुद्धि तक सीमित
मान हो असीम का बनना असीम आना चाहिए।
बुद्धिजीवियों का क्षेत्र अधिकार विचार ही होते
जंजाल सारे टूट जाएं ओम का ही ध्यान होना चाहिए।
(27-06-10)

Monday, June 28, 2010

जगना मूर्छा से

ओम राघव
प्रकृति का हर पदार्थ युक्त है असीम शक्ति से
अपने में समेटे है अनन्त शक्ति का समुद्र
दृष्टा आत्मा की होती अनुभूतियां
इन्द्रिया होती मात्र माध्यम।
ज्ञान का अनुभूतियों का अस्तित्व
ज्ञाता अन्दर होता, बाहर नहीं।
प्रचंड शक्ति और हलचल हो रही
उपक्षित स्थिति में पैरों तले पड़े
तुच्छ से अणु में भी
मूर्छा का आवरण ही बनाता तुच्छ पर
समेटे अनन्त शक्ति का समुद्र निज कोख में
पदार्थ विज्ञान का काम है
जड़ परमाणुओं की मूल सत्ता को जगाना
और उचित उपयोगी बनाना
पर चेतन जीवाणु की शक्ति असंख्य गुना है
अधिक जड़ परमाणु की करें तुलना अगर
चेतन एक छोटा घटक परब्रह्म का
अपनी मूल सत्ता के समान है समर्थ वह भी
एक समूची दुनिया में समेटे बैठा है
जीवाणु का प्रत्येक नाभिक
प्राणी का शरीर असंख्य जीवाणुओं का समूह
जड़ के ऊपर चेतन का अनुशासन
अत्यंत सामर्थ्यवान यंत्र वाद्य भी निष्क्रिय होते
मानवी बुद्धि कौशल के बिना
दीन दयनीय स्थिति कठिनाई से ढोते
जिन्दगी की लाश को।
न स्वयं पर संतोष न दूसरा संतुष्ट जिनसे
जुड़े गुण कर्म स्वभाव चेतना स्तर की
गिरावट से दयनीय स्थिति
दुर्गति मूर्छा में पड़ा निष्क्रियता के कारण
पर असहाय अशक्त कोई चेतना होती नहीं
हर वस्तु तुच्छ सार की बनी दीखती
मूर्छा के आवरण में लिपटी पड़ी
जागने की देर है अनन्त शक्ति बिखरी पड़ी
पर उसके लिए जो सचमुच जागना चाहे।।
(१९-०६-२०१०)

Sunday, June 27, 2010

संस्कार

ओम राघव

मन जमीन पर जमी

पाश्विक कुसंस्कारों की मोटी परत

प्रभु की साधनारूपी खराद से,

उतारनी पड़ती।

बन जाते जीव के संस्कार

प्रयास कर परिचित हो सके

आत्मा परमात्मा से

रसानुभूति का परम आनन्द

उसको मिल सकेगा।

स्वयं है अजरता अमरता का खजाना

वह जान लेगा।

उम्र चाहे जितनी बढ़े,

मन के रंग-ढंग पुराने ही रहेंगे,

संस्कार गर अच्छे न रहे।

परिणाम दुख ताप दुख और संस्कार दुख

विषय भोग के कारण बनें

तीनों गुणों (सत-रज-तम) की वृत्तियों में विरोध होता,

इसलिए सभी भोग ही दुखरूप होते

अशक्ति और अहंकार शून्य चित्त सदा ही सम रहे

अच्छे संस्कार स्वतः ही बन सकेंगे।।
(०९-०६-२०१०)

Wednesday, June 23, 2010

वेदान्त सार

ओम राघव
दृश्य जगत सत्य या मिथ्या?
जीव ब्रह्म से भिन्न अथवा नहीं?
ब्रह्म का स्वरूप क्या? उसकी प्राप्ति का फल क्या?
अद्वैत-द्वैत व विशिष्ट द्वैतवादी
विचारधारा कहो, दर्शन कहो वेदान्त का
ढूंढता उत्तर उपरोक्त प्रश्नावली का।
इन सभी की विवेचना करता वेदान्त दर्शन
द्वैत भाव अविद्या जन्य मिथ्या दृश्य जगत अद्वैतवादी मानते।
जीव की स्वतंत्र सत्ता नहीं, जीव ही ब्रह्म है जानते
निज को सबमें और सबको निजमें पहचानते
यही है जीव की अमरता।
मरणोंपरांत स्वर्ग नहीं जीव की अमरता
मैं तुम प्रत्येक वस्तु ब्रह्माण्ड की
अंश नहीं ब्रह्म का, वरन स्वयं ही ब्रह्म है।
माया देश काल निमित्ति एक परदा व्यवधान स्वयं और ब्रह्म के मध्य में।
भ्रम कृत्रिम सभी असलीयत जिनकी नहीं,
आत्मा ब्रह्म निर्लिप्त एक ही, लेना-देना उसका कुछ नहीं।
व्यवधान इतना जीवन के विस्तार को
देख पाता एक झलक मात्र ही
अनुभव की आंख से यदाकदा
उतना ही गहन और विशाल जीवन का विस्तार
जितना अनन्त ग्रह नक्षत्रों से भरा दीखता नीला गगन
जीव प्रकृति ब्रह्म की भिन्न-भिन्न द्वैतवादी सत्ता मानते।
प्रकृति वाह्य और आंतरिक दोनों जिनके पार स्थित चरम लक्ष्य
आत्मा की परमआत्मा
आत्मा के धर्म नहीं जन्म और मृत्यु देह के ये धर्म केवल।
अज्ञानियों का विषय संसार है अविद्या मात्र
सोया जीव अनादिमाया से घिरा जागता
जान लेता जन्महीन निद्राहीन स्वप्नहीन
वह स्वयं ही अद्वैत ब्रह्म है
मुक्ति नहीं साध्य बल्कि सिद्ध वस्तु है उसके लिए
जगत की सत्ता नहीं ब्रह्म मैं जगत का भ्रम
सार यही अद्वैत-द्वैत वेदान्त का।।
(०७-०६-२०१०)

Tuesday, June 22, 2010

कर्म का प्रतिफल

ओम राघव
सम्पूर्ण समाज की रचना आधारित
संयम नीति संगत भाव पर
सहिष्णुता क्षमा रूपी पाठ नहीं पढ़ा जिसने
कष्टमय जीवन उसे जीना पड़ेगा
क्षमा प्रतिदान नहीं त्याग भी मांगती है
तभी प्यार का सागर हिलोरे मारता।
दंड देना युद्ध अनैतिकता आतंकवाद
असुनी अमानवीय कृत्य हैं
क्षमा से भी सुधार जिनका नहीं होता
जिनकी दृष्टि के मध्य मलिनता का पड़ा गहरा आवरण
लौकिक दुख अनन्त गुना झेले पड़ते
उन्नत सत्य उच्चतर आदर्श जीवन के लिए
व्याख्या जिसकी हो नहीं सकती
विधि का विधान प्रकारान्तर से
प्रतिफल ही है निज कर्म का
जगत है मिथ्या और सत्य का मिश्रण
कितना सीख पाते इस मिलन को
प्रकाश अंधकार, सुख-दुख सत्य-असत्य लगता रहेगा।
कभी दानव कभी देव जान पड़ते
सब न एक हैं और न अनेक हैं
जितन दूर जाओ विचार के रथ पर चढ़कर
सभी माया के आवरण
अभिन्न से भिन्न मानने की भूल ने
कर्म का चक्कर चला दिया
प्रतिफल उसी का हर बार है
अब भोगना पड़ता।।

(०१-०६-२०१०)

Saturday, June 19, 2010

फादर्स डे और दादा जी की रचनाओं के साथ एक साल

२० जून को आज ही के दिन एक साल पहले गर्मियों की छुट्टियों में मैंनें दादा जी की रचनाओं को इस ब्लाग पर डालने का काम शुरू किया था। यह काम मैंने पापा जी की प्रेरणा से शुरू किया था मगर बाद में मुझे खुद इसमें आनंद आने लगा। पापा जी ने मुझे दादा जी की डायरी थमाई थी और कहा था कि तुम नेट पर गेम खेलते हो, इससे ज्यादा अच्छा है कि यह काम करो। शुरू में कुछ बोझ लगा बाद में मुझे इस काम में मजा आने लगा। एक-एक करके डायरी की सभी रचनाएं पोस्ट कर दीं। जैसे कि मैंने आपको पहले भी बताया है कि मेरे दादा जी भिवानी में रहते हैं और मैं यहां मोहाली में। इसलिए डायरी की सभी रचनाएं खत्म होने के बाद में दादा जी की नई रचनाएं पोस्ट कर रहा हूं। यह नियमित नहीं हैं और देर से मिलती हैं। दादा जी लिखने के बाद दो या तीन की संख्या में मुझे डाक से भेजते हैं, फिर मैं उसे यहां पोस्ट करता हूं। यह एक अच्छा संयोग है कि इस बार २० जून को फादर्स डे भी है। दादा जी की सौ के करीब रचनाएं आज इस पोस्ट पर है। इन्हें तो ब्लागर साथियों ने सराहा ही है पर साथ ही मुझे भी इसे शुरू करने के लिए समय-समय पर अपनी टिप्पणियों के जरिए प्रशंसा और आशीर्वाद दिया है। इसने मेरा उत्साह इतना बढ़ाया है कि अब मैं दादा जी की रचनाओं का इंतजार करता हूं और देर होने पर उनसे फोन पर जल्दी भेजने को कहता हूं। नियमित न होने का बावजूद एक साल में करीब २०० टिप्पणियां और १७ फॉलोअर किसी भी ब्लागर का उत्साह बढ़ाने के लिए काफी है। इसके लिए मैं आप सबका भी धन्यवाद करता हूं।

अद्वैत राघव

Wednesday, June 9, 2010

विश्वास

ओम राघव
विद्या हुनर और काम
सीखना पड़ता है काबिल गुरु से
शरीरी यात्रा निर्विघ्न हो अन्न-जलादि का संतुलन चाहिए।
उच्चस्तरीय चिंतन बने पदार्थ निज चेष्टा ज्ञान चाहिए।।
शक्ति सागर एक लहरें अनगिनत जैसी शक्तियां
होता भान उनका बन अनेक देवी देवता।
डाली से जुड़े पत्तों की तरह, ईश मूलरूप वृक्षका।।
सूर्य की किरण भिन्न लगती अस्तित्व केवल सूर्य का
प्रतीक साधन ईष्ट की कह सकें प्रथम कला
साधना निराकार की बन जाती उच्च शिक्षा
श्रद्धा विश्वास हो स्थान नहीं तर्क का
परे तर्क से साधन विश्वास से साध्य कक्षा
शक्ति मंत्र की निहित श्रद्धा और विश्वास में
मन की शक्ति बन जाती मंत्र की उस भाव में
विश्वास नहीं करता जो किसी अन्य का
कौन भला अभागा उससे दूसरा होगा।
विश्वास ही परम के निकट ला सकेगा
दिल दिमाग खुलकर प्रकाश अंदर आ सकेगा।।
(३१-०५-२०१०)

Saturday, June 5, 2010

पंछी की उड़ान

ओम राघव
संसाररूपी बाग में जीव पंछी विचरण कर रहा है,
मौत रूपी बाज रहता निकट उठाने की ताक में
लालची मन बना विषय विकार की लालसा में
मन के बस में प्राण हो गया शैतानी ताकत बना
मन माया दो पाटों के बीच में जीव दाना पिस रहा
घुट रहा दिन रात कीचड़ में राग द्वेष बनकर
हजारों पंछी उड़ गए अपनी-अपनी बोली बोलकर
कार्य संसारी अधूरे छोड़कर तुझे भी जाना पड़ेगा।
मौत आना जन्म लेना अवस्थाएं नरक की
भूल की सत पुत्र था ये देश घऱ तेरा नहीं
असीमित इच्छा बना कर मन बेलगाम
परेशानियों का मूल कारण बन गया।
राग द्वेष की लहरें उठीं मन रूपी तालाब में
चाल अपनी भूल पंछी जाल में फंस गया।
काम क्रोध लोभ मोह शत्रु बलशाली बन गए
हो गए दया दीनता और नम्रता ज्ञान के वाहक बने
दुनियावी बुद्धि कारगर होती नहीं
निर्मल बुद्धि चाहिए
संगत शिक्षा विचार शक्ति अच्छी चाहिए
सांसारिक वस्तु अस्थाई और है नाशवान
सच्चा आनन्द फिर कैसे मिलेगा?
मंजिल दूर पंछी तेरी आशियाना जहां मिलेगा।
(२३-०५-१०)

Sunday, May 16, 2010

अनुभूतियां

ओम राघव
अनुभूतियों का अहसास होता इंद्रियों से
दृष्टा आत्मसत्ता जिस क्षण होती तिरोहित
इंद्रियां होतीं पर अनुभूति कुछ नहीं होती
माध्यम इंद्रियां बनती मूलतः अनुभूति आत्मा की होती
आस्तित्व बाहर न होता प्रकट अंतर से होती
आवरण देह-मन रूपी संस्कार पिछले
तारतम्य शिक्त पवित्रता का
दृष्टा आत्मा उसी आधार पर प्रज्वलित होती
भिन्नता होती परिमाणगत नहीं प्रकारगत होती
हृदय निर्मल कार्य पवित्र उन्हें उच्चकोटि की अनुभूतियां होतीं
एक छाया मात्र विकृत सत्य का जगत है कुछ भी नहीं
भ्रम से परिचालित दीखता जग है इच्छा जैसी अपनी
आत्मोपलब्धि की बने श्रेष्ठ अनुभूति
चरम है वह सबी प्राप्त अनुभूतियों का।।
(२०-४-२०१०)

Thursday, May 13, 2010

आत्मा

ओम राघव

स्वप्नकाल जैसा है प्रतीयमान दृश्य तो,
काल विद्या राग कला और नियति
जीव को आच्छादित करते
आयु की इयन्ता (काल) कुछ जान सकना (विद्या)
तृष्णा (राग) कुछ कर सकना (कला)
परतंत्रता (नियति)
संयुक्त उपरोक्त से संज्ञा पुरुष बनती
अनादि कर्म-अकर्म की वासना का समूह प्रकृति ठहरती
प्रसूत उनसे फल सुख दुख और मोह
पुरुष रूपी जीव को भरमाते शरीर देकर
भाष्य पदार्थों से रहित भान शक्ति
अधिष्ठत है आत्मा समग्रभाव से
नहीं विषय ज्ञान का स्वयं वही ज्ञान है
ज्ञेय पदार्थों का जैसे ही होने लगता निषेध
होने लगता बोध आत्म तत्व का
चैतन्य ज्ञात का ही परमार्थ स्वरूप है आत्मा
अदीखता, अजर, अमर, ब्रह्मस्वरूप जो भी नाम दो।
अदीखता अजर अमर ब्रह्मस्वरूप जो भी नाम दो।।
(१९-०४-१०)

Saturday, May 8, 2010

सत-चित-आनन्द

ओम राघव
ब्रह्माण्ड के मूल में
है विद्यमान एक शक्ति महत्वाशाली,
निरतशय ऐश्वर्याशाली
कहते परमेश्वर या परमात्मा
मायारूप मेघ बनकर
वही बरसता जगतरूपी नीर बनकर।
स्वयं वह न उसमें भीगता
विस्मृत स्वयं होकर विलग
जीव पूरी तरह से भीगता।
गुबार गर्द कोहरे से ढका
अपना असली चेहरा न दीखता
कैसा कैसा नहीं? परमात्मा
जानना न जरूरी साधक के लिए
मेरा है-उसका आस्तित्व रहेगा मेरे लिए सदा
हर क्षण दृढ़ आस्था के लिए सोचना
यही आवश्यक अपने लिए
चाहता सुख आनन्द हर जीव अपने लिए
वास्तविक इच्छा है सद-चित-आनन्द की।
शरीर संसार जड़ से पूर्ण हो सकता नहीं
जड़ सत्य व ज्ञान के वाहक नहीं
क्रिया और पदार्थ कार्य हैं प्रकृति के
निज स्वरूप में स्थित
असंशय हो शरीर और संसार से
कामना सदैव सुख की जीव की
सत-चित आनन्द की पूर्ण होगी तभी
संसार की कोई वस्तु नहीं अपनी
साथ-सदैव फिर कैसे रहेगी
अपने हैं परमेश्वर परमात्मा
दूरी फिर कहां कैसे रहेगी। (१५-०४-१०)

Tuesday, May 4, 2010

रसानुभूति

ओम राघव
शरीर मन स्वस्थ बनें जिम्मेदारी स्वयं की अन्य की होती नहीं,
स्मरण शक्ति तीव्र जिनकी, प्रशंसा विभूतियां उन्हें ही हस्तगत होतीं,
पाप कर्म स्वयं के प्रकट होते दंड के रूप में स्वचालित यंत्र की तरह
राग और द्वेष से बच सकें, पाप के प्रेरक दंड का भागी करें।
क्रोधी स्वभाव का परिणाम विवेक धैर्य स्वास्थ्य भी नष्ट होता,
धैर्य न विवेक से ढंग के और सुखदायी परिणाम बनता।
विशुद्ध करे प्रणी मात्र को सत्य में करे दीक्षित
सिद्धांत विशाल बने वही बन जाता धर्म मानव
शक्ति नियम में होती नियम अनुशासन बनाता,
ज्ञान की लालसा स्वयं में ही आनन्द है,
मिले आत्मिक रसानुभूति से
उससे बड़ा न कोई और आनन्द भौतिक जगत में।
(०९-०५-१०)

Sunday, May 2, 2010

जगत व्यवहार

ओम राघव
ज्ञान की होती सत्य रूपी वासना
इसलिए -जगत परिद्रश्य कि होती बाधित-मिथ्या वासना ।
कर्म का परिपाक करने काल को कल्पित किया ।
कुचेष्टाएं - पूर्व - काल की -बना संस्कार प्रभाव डालतीं ।
इसलिए मलिनता दोष बुद्धि में आ गया ।
शेष कर्तव्य - संकल्प से। बन जाती स्वत: काम वासना ।
दोष - चिंतन से हो विमुखता।
वैरागय से वह दूर होती मिटती जगत की हर वासना।
अपने अंत:करण की करनी सतत् परीक्षा और न सोच,
बचना करें अन्य की परीक्षा।
सिद्धि बस करनी आत्म-विज्ञान रुप की
भोग - रुपी अंकुर उत्पन्न् करता प्रारव्ध रुप बीज हो।
मन और वासना शांत हो-
प्रारव्ध-रुपी बीज नष्ट अवश्य हो सकें।
प्रतीती जगत की हो रही -
प्रारव्ध-रुपी दोष के कारण
जगत-व्यवहार-स्वत: चलता-स्वभाव-सिद्धि अनुसंधान से
बन जाता-वैरागय का कारन -
विषयों में दोष-दर्शन जब हो।
परम आत्मा धारण करता जगता को।
उसके ध्यान में चिंत की तत्र्परताकहलाती भक्ति है।
अनन्य- शरणागति से ही सुलभ-ज्ञान है ।
वांछनीय-जगत व्यवहार जल से ऊपर-
कमल की तरह खिल-
करनीय जगत व्यवहार हैं।
17-2-2010

Saturday, May 1, 2010

सानिध्य

ओम राघव
देखते परिणाम भले बुरे, सतसंग और कुसंग के
हो जाती वह मिट्टी भी सुगंधित
टूट पड़ता फूल गुलाब जिसपर,
वृक्ष चंदन की समीपता से
झाड़ झंकाड़ जंगल के हो उठते सुगंधित
जड़ जिन्हें हम समझते सानिध्य भले का
उन्हें भी मनभावना करता,
जैसे सान्निध्य संगत वैसा
आचरण व्यवहार बनता
परिणाम उत्तम सानिध्य उत्तम ला सकेगा,
गलत संगत असंगत परिणा का वाहक बनेगा
उपासना कृत्य आध्यात्म का
लाता और समीपता परमात्मा की
ईश्वर परमात्मा का सानिध्य नहीं आज का
सनातन है, रहेगा सदा ही
सानिध्य ही समीपता का पर्याय है।
(०५-०४-१०)

Thursday, April 29, 2010

दादा जी की 100 वीं पोस्ट

उच्चतम - दर्शन
ओम राघव
मन एक ही भूत करे विश्व की सत्ता में समाहित,
अभिन्नता मात्र न मिलता कुछ भी रहे लक्षित।
न रहे भय कोई अपनों से डर कहां अभिन्नता में,
दर्शन एकता का ही बन जाए अनेकता में।
सारा विश्व इंद्रियों में लिप्त जीव को भौतिक लगेगा,
बुद्धि से परिष्कृत मानव आत्माओं के समूह में दर्शन करेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि जिसकी विराट रूप ईश्वर लगेगा,
पाप के गर्त में गिर रहा उसे विश्व गर्हित ही सुन्दर लगेगा।
खोजी सतत आत्मा का स्वर्ग सा उसको लगेगा,
अंत हो जब सारी सांसारिक वासनाओं का
नश्वर मानव ही विराट ईश्वर बनेगा।
न खोज करनी सत्य सत्ता की,
न रूप से परे भ्रम का जाल टूटेगा,
यही बना उच्चतम दर्शन हमारे ज्ञान का,
अमीर-फकीर राजा रंक खाक में मिलते ही
मुट्ठी भर राख में भेद कहां होता नहीं
भौतिक दृष्टि भी बतलाती यही
भेद ही है जड़ सारी कलुषित विपन्नता की।
(०६-०४-१०)

Thursday, April 22, 2010

ध्यान से परिमार्जन

ओम राघव
कई युगों की विस्मृति से उत्पन्न विपन्नता
ध्यान के सहारे ही छूट पाती
विस्मृति को ध्यान स्मृति में बदल देता
परिणाम ध्यान का अनिवार्य
जगाता करिणा और संवेदनशीलता
विस्मृति अपने लक्ष्य की और निज स्वरूप की
उस ओर ध्यान ही ले जा सकेगा
असंगत चिंतन कार्य कलाप
कड़वे अनुभव यंत्रणाएं उत्पन्न करते
मनुष्य सत्ता ढल जाती उसी प्रतिबिम्ब में
निर्भर दैवत्व या रखो असुरत्व के विचार
उथला चिन्तन दुर्बल चिंतन मन स्थित करे
हवा में उड़ रहे तिनके बिखराव ही बिखराव
निर्थक विचार प्रवाह को रोक सकता ध्यान ही
होती ऊर्जा इतनी एकत्र विश्व को चमत्कृत करे

संग्रहीत ध्यान जनित शक्ति का परिणाम हो
आध्यात्मिक ध्यान योग से प्रकट दिव्यशक्तियां
पा सके लक्ष्य जीवन का उत्कृष्ट
ईश्वर स्तर का होता पूर्णत्व को प्राप्त मानव
न रहता कोई अवरोध जीवन का
और न आवागमन का
जिस चक्र में था बना दानव युगों से
०३-०४-२०१०

Tuesday, April 20, 2010

वाणी

ओम राघव
शीतल जल चन्दन का रस छाया ठंडी पीपल की
आहलादित नहीं करती, जितनी मीठी वाणी हर जन की।
शोक और चिन्ता में डुबाती कटुवचन की गरलता
झूठ बन जाता सहारा करे नष्ट अर्जित महती सम्पता
दुरवचन से क्रोध आमन्त्रण करे अनेक आपदा
डालता उलझनों में सोच से परे मिटें कुल की सम्पदा
मधुर वाणी से अर्जित सुर दुर्लभ असीम शांति सम्पदा
मन के स्तर से ऊंची और भिन्न होती वाणी से आकांक्षा
जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष में है वाणी की शक्ति का योगदान
अहसास होता देख गूंगा - ओजस्वी वक्ता की भिन्नता
मधुर वाणई संवाद परिवार से दूर वाले से रिस्ता बनाता
कठोर वाणी तोड़ देती अपने स्वजनों से भी नाता
कटुवाणी कारण बनी विभिषिका ऐतिहासिक युद्ध का
विनास का कारण परिवार नष्ट हुए कारण क्रोध था
क्रोध के आवेश युद्ध का कारण बनी शक्ति वाणी की
शब्द शत्रु या मित्र बनाते सामर्थ्य अनन्त शुभाशुभ वाणी की
भूख-प्यास नींद जाये चिन्ता का संदेश सुनकर
जनसमूह को उत्तेजित जगाता शब्द एक जुट बनाकर
-प्रभावोत्पादक चेतना तत्व जुड़े शब्द के साथ।
ब्रह्माण को प्रभावित करे है वाणी शक्ति विशाल।
(31-03-10)

Monday, April 19, 2010

जिज्ञासा

ओम राघव

छटपटाता किस उपलब्धि के लिए जीवन
न शेष कुछ पाना रहे-पूर्ण शांति संतोष जीवन
असंयुक्त मन जब जगत के जंजाल से निश्चल
शांत रहने लगे
दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मर्माहित होने लगे
जिज्ञासा उत्पन्न होती पहुंच अपने चरम पर
लिखना-कहना-बोलना उसका बन जाता दर्शन
अन्य प्राणियों से भिन्न उसका फिर सारा आचरण
अनेक संतों से प्रपादित धारणा बनी वेदान्त दर्शन
आत्मा और ब्रह्म को पर्यावाची कहा-
निचोड़ चरम उस जिज्ञासा का रहा
जिज्ञासा विचार से दर्शन षड्यंत्र में बंट गया
मनीषी-संतों की जिज्ञासा का चरम ही कारण रहा
सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक वेदान्त-मीमांसा कहा-
सत्चित आनंद का स्वरूप है आत्मा
न सद्चित आनन्द का स्वरूप है आत्मा
न सद चित और आनन्द स्वरूप परमात्मा
ब्रह्म है निर्गुण और निधर्म-फिर भी पर्यायवाची
औपचारिक मात्र है-ज्ञान स्वरूप आत्मा-आश्रम न ज्ञान का
जिज्ञासा-चिन्तन-पराकाष्ठा से निचोड़ निकला
उपनिषद उद्घोष करते,
नहीं मानते कि हम ईश्वर को पूर्णतया जानते
ब्रह्म का जानना और न जानना
ऐसा ही है कुछ-कुछ जाना सा कुछ-कुछ अनजाना सा
ब्रह्म ऐसा है-ऐसा नहीं सदैव ऐसा रहेगा
यही बनेगा उसका जानना
बस जानते हैं कुछ
उसे शांत जिज्ञासा हुई
जानते ही स्वयं को उसको भी जान लेते
यही सारी जिज्ञासा का अंत है।

(29-06-10)

Friday, April 16, 2010

भोग

ओम राघव

संस्कार ताप परिणाम दुख से लिप्त हैं भोग सारे
तामस राजस सात्विक गुणों से युक्त सारे
सभी की वृत्तियों में विरोध विवेकी पुरुष
के लिए बनते दुखरूप सारे
जन्म रोग जरा मृत्यु का न रहे कोई विचार
अभाव अहंकरा का आसक्ति का
घर धन पुत्री स्त्री चेतन व जड़ माया
की न रहे तनिक भी ममता
राग द्वेष से दूर आहार सात्विक और हल्का
संयमित जीवन बुद्धि विशुद्ध से युक्त मन
भोग सारे दीखते सुख रूप
पर सदा दुख के ही हेतु बने।
अंधेरे मार्ग का निष्काम सेवा दीपक बने।

गृहणकर्त्ता सत्य का ही सत्य वादी बने
जिसका पतन कभी होता नहीं
जानक्र सत्य नर नारायण बने
सोचा और जो कुछ किया सारा मन में अवस्थित
संस्कार ही करते कार्य निरंतर साथ सूक्ष्म शरीर के
स्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी।
सूक्ष्मभाव से आते स्थूल भाव में
दुहराना फिर उसी का स्मृति तरंगाकार होती पुनः
शृंखला एक चक्र की भांति
अभिव्यक्ति सूक्ष्मभाव की स्थूल के द्वारा
भोग सारे भोगने पड़ते ही उस चक्र में
नष्ट पदार्थ होता नहीं रूपान्तर होता था
देता दिकाई नूतन कुछ भी नहीं
भोग सारे का प्रयोजन
बनेगा चक्र शृंखला तरंगाकार हो
चल पड़ेगी भोगने दूसरी ओर मंजिल।।
(27-03-10

Thursday, April 15, 2010

महानता

ओम राघव

शरीर की न केवल महानता
कर्म के साथ ही जुड़ी है महानता
संत के ज्ञान की बनता कसोटी कर्म ही
प्रचार सच्चाई का सद्कर्म से होता
कथनी के साथ ज्ञान अगर जुड़ता नहीं
और ज्ञान के साथ कर्म भी जुड़ता नहीं
महानता लोक या परलोक में मिलती नहीं
समाज में रह स्वकर्म का पालन परहित में हो
जीवन की यात्रा करता सफल
जीव है सजीव तत्व परमात्मा की सृष्टि का
रचियिता नहीं सृष्टि का रचना में सहायक बनना
मानकर पूर्ण मन में न आ पायेगी सीखने की भावना
दलदल बन रहा संसार माया डुलाती पल-पल जिसे
सुख आत्मा की जागृत हो चेतना
साधना का लक्ष्य केवल चिन्तन और कर्त्तव्य से
प्रयोजन अभीष्ठ सिद्ध हो सके
अभीष्ठ सामर्थ्य साधन तो चाहिए
पूजा उपासना स्वध्याय मनन कालान्तर में
वट-वृक्ष बने छायादार शीतल छांव दे
वर्षों के श्रम से थके जीव को
ब्रह्म लोक या मोक्ष स्थान विशेष नहीं
परिष्कृत बने आस्थाएं, पशु प्रवृत्ति से
देव सम वृत्ति बने, स्वर्गवस्था वही
देव प्रवृत्ति ढालती मोक्ष में या नक्षत्र विलग से
नहीं लोक और परलोक में स्थित परिचायक वही महानता का।।
(२३-०३-१०)

Monday, April 12, 2010

जीवन

ओम राघव
पेट और प्रजनन तक सीमित जीवन
खीझ और कष्ट भरा भार ढोता जीवन
रोते जन्म लेता, रुलाते विदा होता जीवन

हाड़-मास, मल-मूत्र से भरी काया
अति कुरूप-कर्कशा और निष्ठुर भौतिकी
घिनौना-खिलौना मात्र मानव शरीर
यह दिखती सच्चाई, शरीर और जीवन की
समुद्ररूपी जीवन की गहराई में
उतरने वाले जीव के लिए पर नहीं ऐसा

पड़ी होती बहुमूल्य रत्न-राशि
समुद्र तल की गहराई में ही,
झाग-फैन, सीप-शंख और कूड़ा करकट
से ही ऊपरी सतह भरी होती
गहराई में जाने पर ही उपलब्ध ढेर रत्न-राशि होती
विकसित अग्नि-परीक्षा से सुपात्रता होती,
बनता तभी अमूल्य धरोहर-जीवन समाज के लिए

शरीर और मन का संयुक्त श्रम
कर्म को उत्पन्न करता, हर कड़ी का
समाधान विचार और क्रिया से मिलता
चैन और संतोष कर्म की गहनता से मिले
आस्थाएं सब जुड़ी होतीं साथ अंतरआत्मा के

फूट पड़ता प्रेरणा स्रोत जहां से,
असुन्दर-कर्कश दिखता जीवन
बदल जाता सुन्दरता-सुघड़ता में सदा के लिए
स्वयं और समाज दोनों के लिए।

(०३-०३-१०)

Saturday, April 10, 2010

व्यक्त-अव्यक्त

ओम राघव

अकर्त्ता जब कर्त्ता बने,
उसके अस्तित्व का प्रकटीकरण बनता
अकर्त्ता सुषुप्ति का ही पर्याय है
कर्त्ता बना-जग गया ब्रह्म का अभिप्राय है
जग जाती जगती उसके साथ ही
आभास तभी जीवन का होने लगे
अकर्त्ता बन मुर्दा हो गए हैं
फिर मर्दे का अस्तित्व कैसा?
व्यक्त-अव्यक्त का ही खेल है।
व्यक्त (प्रकृति) ठोस स्वतः गोचर,
हर वस्तु की समग्रता के साथ प्रगट
पर आधार उसका अव्यक्त ही है
संभव स्वरूप जितने अव्यक्त ही आधार उनका
कार्य में कारण उपस्थित
हर घटना के लइ आधारा होता
विशेष कार्य का होता आदिकारण विशिष्ठ
उससे ही उत्पन्न या दिखता रहा है
व्यक्त से जानना अव्यक्त को
ग्यान की प्रथम सीढ़ी रहा है

(१३-०३-१०)

Thursday, March 4, 2010

सत्यम-शिवम्-सुन्दरम

ओम राघव
अजर - अमर , परमात्मा - गुनातीत निर्गुण
शब्द - रूप प्रारूप निश्कल
अचिन्त्य ब्रह्म - अचिन्त्य -कार्य जगत भी !
एक बूँद आत्मा - सागर रुपी ब्रह्म की
अन्नंत सामर्थ्य निराकार परमात्मा की !
मूर्ती- देवालय - दीवार नहीं पर व्याप्त उनमे परमात्मा ,
संत मत - ज्ञान मत का सार ही गूढ़ उपासना
सामान्य - मस्तिष्क - गूढ़ता में खोता नहीं
जीव प्रकर्ति , ब्रहम भिन्न - सत्ताएं भाष्टि!
भिन्नता समझ देख - ध्यान ठहर पाता नहीं
बनता इष्ट - स्थूल रूप ही - उसके लिए ,
योग, उपवास - समाधि - कठोर यातनाये ---
शरीर को दें किस लिए ;
प्रेम ही है भक्ति - दिव्यता - साकार ब्रहम की
करो प्रेम सबसे - प्रतिदान में मिलेगा प्रेम ही
लोक - परलोक का आनंद सब कुछ ,
साकार ब्रहम से मिलेगा
जीवन में - पाया - सभी कुछ - हो समर्पित उसी को -
सामान्य -मन - मस्तिष्क न स्वीकार करता निराकार को
साकार ही है - सत्यम-शिवम्- सुन्दरम , उसके लिए
२१/२/१०

Friday, February 19, 2010

२२ वीं सदी सपने के आइने में (वास्तव में देखा)

ओम राघव
२०वीं सदी की अपनी कुटिया छोड़,
चला गया अपनी निकट की रिस्तेदारी में
फासला दो दहाई मील का
गांव का नक्शा पहले जैसा न था।
थोड़ी सी पहचान ही बची थी
जाना जिससे रिस्तेदार के आवास का पता
निकट से देखा, लोग अजनबी से दिख रहे
मैं भी बना था अजीब जिनके लिए
द्वार से पहले निकट के मामा जी दिखे
पहंचाना गले लग फूट-फूट कर रोने लगे
बोले-लाला, भाई भावज, घर वाले
सब मेरे दुश्मन हो गए, सभी ने नाता कब का तोड़ दिया
श्राद्ध-संस्कार तक न मेरा किया
मैं चौंका यह तो मामाजी की मृत रूह है
लिपट कर जार-जार रो रही थी
कठिनाई से छोड़ उनको बढ़ चला द्वार की ओर
मिल दिल को तसल्ली दे सकूं
बाहर ही गैस का चूल्हा जल रहा था, आगे आंगन में भी वही दृश्य था
और आगे तीसरा चूल्हा जल रहा था
सभी अपने-अपने परिवार के साथ बैठकर वार्तालाप कर रहे थे
दुनिया की खुशहाली अपनी बता खुश हो रहे थे
मुझे पहचानना तो दूर सभी घूरते थे
अनजान की स्पष्ट झलक थी सबके चेहरे पर
लगता था कोई भूत उनके घर पर आ गया है
पहन कर वस्त्र पुराने सौ साल के
चाय-पानी खाना तो दूर पहचान से कर रहे थे इनकार
नाम बुजुर्गों का लिया, जिन्हे मैं जानता था
ढेर स्नेह जीवन में मिला था
बोले-यह नाम हमारे पड़दादा जी का था
भाषा समझ से तुम्हारी परे
अवश्य ही कोई ठग या बहरूपिया हो
न आपको देखा और नाम भी न सुना
अब रुकना संभव न था
आगे चल गांव पर एक नजर डाल लूं
शायद कोई निशानी बची हो
जिनकी यादें अभी शेष हैं
बिजली-डिश टेलिफोन आदि के तार न थे
सड़कें लापता थीं
कंप्यूटर भी गायब हो चले थे
मात्र उनका जिक्र लोग कर रहे थे
अन्य देशों के समाचार नेता अभिनेताओं
से अलबत्ता बातें कर रहे थे
आधुनिक माने जाने वाले यंत्र के बिना
सब कुछ अजब-गजब था।।
साहस कर एक आदमी से बात की
बोला-हां इस नाम के आदमी इस गांव में थे
पर वह कबके परलोक सिधार गए
सुना था बड़े मिलनसार थे
रिस्तेदार तो रिस्तेदार होता ही है
अजनबी की भी दूध-घी से खातिरदारी करते थे
पर वह तो चौथी पीढ़ी के इनसान थे
तुम बात कब की कर रहे हो
आप उनके निकट की पीढ़ी के रिस्तेदार हो
इतने साल बाद अपनी ननिहार आये हो
आपकी खातिरदारी मैं करूंगा
और गांव को बदनामी से बचाऊंगा
ये तो इंटरनैट, रोबोट, सुपर कंप्यूटर के जमाने के युवा हैं
न जरूरत पुस्तकों की, न कभी हाथ से काम किया
जब स्वार्थ था कुछ पाने का
वह कब का खो गया है
भविष्य ही केवल बचा है
अपना-पराया न शेष है
यह २२वीं सदी है।
(०९-०२-१०)

Tuesday, February 16, 2010

श्रेष्ठ सत्ता

ओम राघव
श्रेष्ठ को समादर चाहिए
मन, वचन, कर्म की शुद्धि
उत्पन्न वासनाओं से मुक्त इंद्रिया बनें
अंतर्मन में बिठाने से पूर्व
श्रेष्ठ सत्ता को उपयुक्त स्वच्छता चाहिए
शांत शीतल सात्विकता का
बाहर भीतर चहुं ओर समावेश चाहिए
तब होगी प्रतिष्ठित और प्रकाशित आत्मा
हर साधन की बने सफलता,
मानसिक पवित्रता
सामन्य मनो भूमि के लिए
भ्रांतिया अवांछनीयताएं दूर हों
श्रेष्ट सत्ता की ओर उन्मुख हो सकें
विद्यमान है उसकी सत्ता
जब जड़ चेतन सभी में
सोच ऐसी भी फिर क्यों बने
उपस्थित नहीं देवालय गिरजाघर प्रतिमा में
सामान्य मन मस्तिष्क ध्यान न कर सकें
उपयुक्त स्वच्छता मन वचन क्रम से
श्रेष्ठ सत्ता को आसीन करने के लिए
बने श्रेष्ठतर मनोभूमि समर्थ फिर
स्थापित करने में श्रेष्ठतर सत्ता को
अपने अंतर में।।
(०५-०२-१०)

Saturday, February 13, 2010

व्यवधान

ओम राघव
व्यक्ति विशेष की परख करते हम
अपने आदर्शों के अनुरूप
दूसरे द्वारा माने जाने वाले देवता को
देखते परखते या माप करते
अपनी धारणा से तय देवता से
दूसरे के माने जाने वाले आदर्श से
करते परख अपने द्वारा धारण आदर्श से
बनता जो अनबन का व्यवधान आपसी सामन्जस्य का
प्रवृति और निवृत्ति कर्म का मूल और
धर्म का प्रारम्भ मानते हैं
शुद्ध अजर अपरिणामी परमात्मा कहां कैसे?
पर भेद हमने गढ़ लिया है।
मात्र अपना ही दृष्टिकोण थोप कर
शरीर यह कन्या समान हमको मिला
पालन-पोषण करना जिसका बखूबी
पर नहीं कभी अपना मानना
निश्चिंत अगर होना चाहते
शरण भगवान की उसको सोंपना
ध्यान विदाई का रहे सदा शरीर अपना नहीं
व्यवधान फिर कैसे रहेगा?
(०३-०२-१०१०)

सुधीर राघव: मान्यतावादी पैदा करते हैं विवाद#links

सुधीर राघव: मान्यतावादी पैदा करते हैं विवाद#links

Monday, January 25, 2010

सोच

ओम राघव
बुराई के स्रोत जीवन में,
काहिली और अंधविश्वास भी है
सक्रियता और बुद्धि बन सकते भलाई का आधार भी
नहीं बरती सावधानी-सम्पादन करने में छोटा कार्य भी
अपेक्षा नहीं करनी-होगा महान कार्य उनसे।

छोटा हो दायरा बुराई का- पर भला
उस कथित अच्छाई के दायरे से जो
अहितकर हो अधिसंख्य मानव जाति के।

साधरणतया हम मानते
लज्जित होते अपना पेशा बताते
खूनी चोर जासूस वैश्या
पर तथ्य इसके विपरीत है
रहते जिस माहौल में आनन्दरस उसी में मानते

हम दूर उस माहौल से सोचते
आती लज्जा उन्हें पेशा बताते ऐसा जानते
पर तथ्य क्या यह भी नहीं?

हजारों-लाखों का संहार करते सेनानायक
आयुधों की मार से
करोड़ों लोगों को गुमराह करते
अपने कर्ण-मधुर भाषणों से नेता जननायक बने

नहीं हमें विपरीत लगता
अधिक संहारक-अहितकर
सम्पूर्ण मानव जाति के लिए
खूनी चोर जासूस वैश्या के अशुभ कर्म से
वे कुछ का ही अहित करते
पर हमें बहुत अशुभ लज्जाजनक लगता।

कारण इनका क्षेत्र छोटा
उनकी परिधि विशाल
चक्कर जिसमें हम लगा रहे हैं।

२१-१२-०९

Saturday, January 23, 2010

साक्षात्कार

ओम राघव
चेतन सत्ता नियामकरूप से कार्य करती
जज्बात के मूल में मैल आक्षेप, आवरण
हैं दोष मन के व्यवधान बनते ब्रह्म के साक्षात्कार में
जन्म-जन्मांतरों में किए कर्म
शुभ या अशुभ- बनती मन की वासना
चित्त की चंचलता, आक्षेप मन का
आवरण संस्कार माया का बना
निष्काम भाव से सद्आचरण
साफ कर सके मन के मैल को
चित्त की चंचलता हरे, प्रभु का निरंतर संस्मरण
आदत जिसकी पड़ सके,
प्रभु के प्रति अनुराग ही, समीप ब्रह्म के ला सकेगा
श्रवण स्वाध्याय, पठन से
रूप गुण का ज्ञान अवश्य हो सकेगा
व्यवधान सारे दूर होंगे
आनन्द परमानंद मिलता पाकर परमात्मा को
अवस्थित सदा अंतर हृदय के साथ ही
स्वयं वह भी निरंतर याद करता
करना सक्षात्कार जिसका।।

३१-१२-०९

Friday, January 1, 2010

सभी पाठकों को

नव वर्ष की

हार्दिक शुभकामनायें

ओम राघव :----