ओम राघव
अजर - अमर , परमात्मा - गुनातीत निर्गुण
शब्द - रूप प्रारूप निश्कल
अचिन्त्य ब्रह्म - अचिन्त्य -कार्य जगत भी !
एक बूँद आत्मा - सागर रुपी ब्रह्म की
अन्नंत सामर्थ्य निराकार परमात्मा की !
मूर्ती- देवालय - दीवार नहीं पर व्याप्त उनमे परमात्मा ,
संत मत - ज्ञान मत का सार ही गूढ़ उपासना
सामान्य - मस्तिष्क - गूढ़ता में खोता नहीं
जीव प्रकर्ति , ब्रहम भिन्न - सत्ताएं भाष्टि!
भिन्नता समझ देख - ध्यान ठहर पाता नहीं
बनता इष्ट - स्थूल रूप ही - उसके लिए ,
योग, उपवास - समाधि - कठोर यातनाये ---
शरीर को दें किस लिए ;
प्रेम ही है भक्ति - दिव्यता - साकार ब्रहम की
करो प्रेम सबसे - प्रतिदान में मिलेगा प्रेम ही
लोक - परलोक का आनंद सब कुछ ,
साकार ब्रहम से मिलेगा
जीवन में - पाया - सभी कुछ - हो समर्पित उसी को -
सामान्य -मन - मस्तिष्क न स्वीकार करता निराकार को
साकार ही है - सत्यम-शिवम्- सुन्दरम , उसके लिए
२१/२/१०
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