Saturday, April 10, 2010

व्यक्त-अव्यक्त

ओम राघव

अकर्त्ता जब कर्त्ता बने,
उसके अस्तित्व का प्रकटीकरण बनता
अकर्त्ता सुषुप्ति का ही पर्याय है
कर्त्ता बना-जग गया ब्रह्म का अभिप्राय है
जग जाती जगती उसके साथ ही
आभास तभी जीवन का होने लगे
अकर्त्ता बन मुर्दा हो गए हैं
फिर मर्दे का अस्तित्व कैसा?
व्यक्त-अव्यक्त का ही खेल है।
व्यक्त (प्रकृति) ठोस स्वतः गोचर,
हर वस्तु की समग्रता के साथ प्रगट
पर आधार उसका अव्यक्त ही है
संभव स्वरूप जितने अव्यक्त ही आधार उनका
कार्य में कारण उपस्थित
हर घटना के लइ आधारा होता
विशेष कार्य का होता आदिकारण विशिष्ठ
उससे ही उत्पन्न या दिखता रहा है
व्यक्त से जानना अव्यक्त को
ग्यान की प्रथम सीढ़ी रहा है

(१३-०३-१०)

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