Monday, April 12, 2010

जीवन

ओम राघव
पेट और प्रजनन तक सीमित जीवन
खीझ और कष्ट भरा भार ढोता जीवन
रोते जन्म लेता, रुलाते विदा होता जीवन

हाड़-मास, मल-मूत्र से भरी काया
अति कुरूप-कर्कशा और निष्ठुर भौतिकी
घिनौना-खिलौना मात्र मानव शरीर
यह दिखती सच्चाई, शरीर और जीवन की
समुद्ररूपी जीवन की गहराई में
उतरने वाले जीव के लिए पर नहीं ऐसा

पड़ी होती बहुमूल्य रत्न-राशि
समुद्र तल की गहराई में ही,
झाग-फैन, सीप-शंख और कूड़ा करकट
से ही ऊपरी सतह भरी होती
गहराई में जाने पर ही उपलब्ध ढेर रत्न-राशि होती
विकसित अग्नि-परीक्षा से सुपात्रता होती,
बनता तभी अमूल्य धरोहर-जीवन समाज के लिए

शरीर और मन का संयुक्त श्रम
कर्म को उत्पन्न करता, हर कड़ी का
समाधान विचार और क्रिया से मिलता
चैन और संतोष कर्म की गहनता से मिले
आस्थाएं सब जुड़ी होतीं साथ अंतरआत्मा के

फूट पड़ता प्रेरणा स्रोत जहां से,
असुन्दर-कर्कश दिखता जीवन
बदल जाता सुन्दरता-सुघड़ता में सदा के लिए
स्वयं और समाज दोनों के लिए।

(०३-०३-१०)

1 comment:

  1. सात्विक चिंतन...सुन्दर प्रेरणाप्रद रचना...

    ReplyDelete