ओम राघव
शरीर की न केवल महानता
कर्म के साथ ही जुड़ी है महानता
संत के ज्ञान की बनता कसोटी कर्म ही
प्रचार सच्चाई का सद्कर्म से होता
कथनी के साथ ज्ञान अगर जुड़ता नहीं
और ज्ञान के साथ कर्म भी जुड़ता नहीं
महानता लोक या परलोक में मिलती नहीं
समाज में रह स्वकर्म का पालन परहित में हो
जीवन की यात्रा करता सफल
जीव है सजीव तत्व परमात्मा की सृष्टि का
रचियिता नहीं सृष्टि का रचना में सहायक बनना
मानकर पूर्ण मन में न आ पायेगी सीखने की भावना
दलदल बन रहा संसार माया डुलाती पल-पल जिसे
सुख आत्मा की जागृत हो चेतना
साधना का लक्ष्य केवल चिन्तन और कर्त्तव्य से
प्रयोजन अभीष्ठ सिद्ध हो सके
अभीष्ठ सामर्थ्य साधन तो चाहिए
पूजा उपासना स्वध्याय मनन कालान्तर में
वट-वृक्ष बने छायादार शीतल छांव दे
वर्षों के श्रम से थके जीव को
ब्रह्म लोक या मोक्ष स्थान विशेष नहीं
परिष्कृत बने आस्थाएं, पशु प्रवृत्ति से
देव सम वृत्ति बने, स्वर्गवस्था वही
देव प्रवृत्ति ढालती मोक्ष में या नक्षत्र विलग से
नहीं लोक और परलोक में स्थित परिचायक वही महानता का।।
(२३-०३-१०)
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