Friday, July 31, 2009

विचार-3

-ओम राघव
सब गुण से भरपूर धरा, गर कर देंगे देवाधि देव,
तब देव न मैं बनना चाहूं, आमरण की न रहे चाह देव।
मिलता मोक्ष धरा से ही, यह सत्य सनातन कहलाया,
ऋषियों ने यही तत्व खोजा, गाया भी और फिर पाया।
देख धरा की ऐसी गरिमा, स्वर्ग देव भी आएंगे,
मुक्ति का द्वार धरा खोले, यह तथ्य समझना चाहेंगे।
आनन्द स्वर्ग का भोग चुके, थे चकित भोग विलासों से,
पाप प्लावन धरती धरती-दरिया से, ये सुखी स्वर्ग की सांसो से।
अब समझेंगे स्वर्गिक आनन्द भी, सोने की बेड़ी होता है,
बेड़ी लोहे की हो, सोने की हो, बेड़ी तो बेड़ी होती है।।
दोहा
आकर कितने चले गए, अमीर दानी रंक,
दृश्यमान रहना नहीं, सभी काल के संग।

(24 फरवरी 2001)

पद्म पुराण में मिलते हैं मानव के किसी अन्य ग्रह से आने के संकेत

-सुधीर राघव
धरती पर मानव जीवन क्या किसी अन्य ग्रह से आया। इसके कुछ -हलके संकेत पुराणों में मिलते हैं। इस लिहाज से पद्म पुराण में सृष्टि के निर्माण की कथा भीष्म और पुलस्त्य के संवाद के हवाले से मिलती है। ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण कैसे किया इसे लेकर काफी रोचक विवरण है। यह विवरण आप पढ़ सकते हैं-
http://sudhirraghav.blogspot.com/

जीवन ध्येय

-ओम राघव
करो कुछ ऐसा काज कि दुनिया जाने.
ऐसे छोड़ो निशान, जिसे दुनिया माने।
होकर पैदा जाने कितने ऐसे चले गए.
न पाया कोई जान, लोक उस चले गए।
ग्रह-पिंड ब्रह्माण्ड जीवों से भरा पड़ा है,
यह पृथ्वी-आकाश सारा अटा पड़ा है।
और अधिक विस्तार न पाए पार दृष्टि का
संचार व्यवस्था का जोर, जानने इस सृष्टि का।
विग्यान-ग्यान से अनेक ग्रहों का ग्यान हुआ,
नवग्रहों से अधिक ग्रह हैं, यह भान हुआ।
और भी जानेगा विग्यान, पर सृष्टि को जान न पाया,
आवश्यक है यह अगर काम हित मानव आए।
विश्व समाज हेतु लौकिक ग्यान-विग्यान चाहिए,
सबको सुविधा मिले अधिकतम वह ग्यान चाहिए।
पर यह अर्जित ग्यान, मानवता को लील रहा है,
होते लाखों बलिदान आयुध से सब लील रहा है।
होता है, आभास मानव पर हित नहीं सोच रहा है,
नितनव कर आविष्कार, सृष्टि को नोच रहा है।
करे न सब हितकाम, नहीं वैसा विग्यान चाहिए,
मानव-हित हो लक्ष्य, बने वरदान वह विग्यान चाहिए।
तन-मन-धन लगा की हैं विग्यान ने खोजें,
वे धन्यवाद के पात्र, उन्हें हम कैसे भूलें?
ऐसी दे समाज को दृष्टि, युगों तक काम आ सके,
हो ऐसा आदर्श, करे सदा अनुकरण जमाना,
मर्यादा-मान सद्चरित्रता का बने खजाना,
आप्त पूर्वज की संतान, धरोहर में मिली अनूठी धाती,
कर जिनके कार्य-आचरण याद, फूलती अपनी छाती।
राम-कृष्ण नानक कबीर, याद सदैव किए जाते हैं,
बुद्ध ईशा दयानन्द ऐसी धाति बन जाते हैं।
उनके जीवन के आदर्श युगों तक याद बन गए,
संस्कृति में रच-पच, आदर्श ख्याल बन गए।
अनेक सपूत ऐसे, जिन निज जीवन से राह दिखाई.
बने प्रेरणा स्रोत, सार्थक जीवन की याद दिलाई।
सत्य-अहिंसा शुभ कर्म, दूर पाखंड भगाने वाले,
दिए दिव्य आदर्श जन-मानस को लुभाने वाले।
केवल करने से याद, काम नहीं अपने आए,
धरे उन्हें आचरण में तभी उचित फल दिखलाए।
स्वस्थ आचरण की ख्याति स्वतः ही चल पड़ती है,
शुभकर्म और अच्छी बातें, नहीं कभी छिपकर चलती हैं।
किया न सद्पयोग, व्यर्थ मानव का जीना,
मानव से तो अधिक वृक्ष पशु देते चिन्हा।
ऐसे नहीं छोड़ते याद, जिसे करे नित याद जमाना,
क्या अंतर फिर रहा, पशु वृक्ष पत्थर का होना।
दोहा
कर कुछ ऐसा जगत में, करे जमाना याद,
नित जिसकी चर्चा रहे, तेरे जाने के बाद।।
(23 मार्च 2001)

Thursday, July 30, 2009

समुद्र मंथन के दौरान ही मिला ग्रहण गणना का ज्ञान

-सुधीर राघव
स्कंद पुराण की समुद्र मंथन की कथा से यह संकेत मिलते हैं कि सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के आकलन का ज्ञान हमारे पास तब तक उतना सटीक नहीं था। मदरांचल की क्रेश लैंडिग भी सूर्य ग्रहण के दिन हुई होगी। यह ग्रहण क्यों पड़ा यह सूर्य, चंद्र और राहु के बीच विवाद का कारण बना। इस तरह इस विवाद का अंत विष्णु ने किया और उन्होंने जो गणना निकाली, वह हमे सूर्य और चंद्र ग्रहण के आकलन का वह ज्ञान देती है जो आज भी सटीक बैठता है। इस संबंध में विस्तार से इस ब्लॉग पर पढ़ें-
http://sudhirraghav।blogspot.com/

प्रातःकाल

-ओम राघव
हर जीव से पहले जगी, गीत गाती एक चिड़िया
जागे जगत, जागे प्रकृति, ऐसा मधुर संगीत गाती।
समय से जागें सभी, ग्यान देती,
कैसे समय का ध्यान रखती, पूर्व ऊषा के आगमन से,
मानो हर दिशा को संदेश देती, गर चाल समय संग न चल सके तो
रोना पड़ेगा ता जिंदगी, यह भान देती।
रश्मि का सूर्य से आना,
स्वर्णिम संसार करते, नाम रूप का वरदान देती,
लापता था निविड़ अंधकार में, अब भासता सब कुछ, आह्वान देती।
कुछ अनोखा आज करके बन सके जो लीक ऐसी
पुट नैतिकता का मिला हो, कर्म करना लक्ष्य तेरा
जीव वनस्पति सब को प्राण दान देता सूर्य।
कर्त्तव्य की ओर जगती मुड़े
परिवार, समाज, देश-विश्व का, जिससे भला हो।
कलरव मधुर पक्षियों का, क्या नहीं संदेश देता।
सीख मानव से नहीं लेना चाहते,
पक्षी-प्रकृति से वह ग्यान ले लो
अपने श्रम से जो नहीं मिल सका-
घूमना प्रातः प्रकृति का आनन्द लेना।
समीर विविध का पुलकाय मान करना,
जान वे कैसे सकेंगे, जो करवट बदल सोते रहे,
प्राण वायु का आनन्द, वे कैसे जान पायें भला
तान चादरा जो सोते रहे।
अच्छी सीख जो मान ले, मसझकर उस पर चले
बने सार्थक जन्म-गर स्वयं को सुधारने की ठान ले।
विकार सारे दूर हों, विश्व का कल्याण हो,
स्वयं का ग्यान हो, हर दिन संदेश देता।
प्रातःकाल है।
शान्त रहना, हर वस्तु का नाम-रूप देना,
वनस्पति-जीव को जीवन-दान देना,
बुद्धि, उसकी रंग, फूल-पत्ती, जो जिसके लायक बना।
सुन्दर उदाहरण इससे अधिक, सामाजिकता का कहीं मिल सके
कल्पना से भी परे, सीख कितनी दे रहा
हर रोज वह कह रहा- सीख लो
ऑंख-कान खोलकर, करो आचरण जैसा मैं कर रहा-
नाम प्रातःकाल मेरा, हंसते रहो, मुस्कुराते रहो
प्रातःकाल आता-यह भी सिखाने, हम सीखते कितना?
हम कहीं से किसी से नहीं चाहते कुछ सीखना,
प्रकृति, पशु, चींटी, सिखाते, आहार-विहार,
परिश्रम-कब कैसे करें
प्रमाण उस ब्रह्म का आस्तित्व का।
हमारा अहम आ जाता बीच में,
नहीं हम चाहते फिर सीखना उनसे
सोचते मानव ही है, उत्कृष्ठ नमूना ब्रह्म का
जो नहीं सीखता, बल्कि पालता है,
दम्भ अपने अल्पग्यान का।
(3 नवंबर2002)

Wednesday, July 29, 2009

दूसरे ग्रह से आए यान की क्रैश लैंडिंग की पहली कथा

समुद्र मंथन महज एक पौराणिक कथा नहीं है। समुद्र मंथन की कथा असल में अंतरक्षीय घटनाओं पर विमर्श की पहली दस्तावेजी घटना है। इसका वर्णन कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण जरूर है। यह कथा स्कंद पुराण के माहेश्वर खंड में मिलती है। इसे पढ़ने पर जो संकेत मिलते हैं, उससे लगता है की किसी अन्य ग्रह से इंद्र आदि देवताओं के लिए रसद लेकर आया अंतरिक्षयान (मन्दराचल) पृथ्वी के वायुमंडल में खराब हो जाने के बाद अपने तय स्थान क्षीर सागर में नहीं उतर सका। इस यान का समुद्र में लाकर ही खोला जा सकता था। इसलिए is मिशन को नाम दिया गया समुद्र मंथन। उस समय दैत्य राज बलि ने इंद्र को पराजित कर समस्त संसाधनों पर कब्जा कर रखा था, ऐसे में बिना उनकी मदद से इस यान को वापस समुद्र में लाना संभव नहीं था। राक्षसों को मनाने के लिए इस मिशन के मूल तथ्यों को गुप्त रखा गया।इस संबंध में विस्तार और वैग्यानिक नजरिए से स्कंद पुराण की कथा नए संदर्भ में इस ब्लॉग पर उपलब्ध है
-http://sudhirraghav.blogspot.com/

Tuesday, July 28, 2009

पथिक की खोज

-ओम राघव
विगत जन्मों के संस्कारों का भंडार पड़ा है,
सूक्ष्म शरीर के साथ, युगों से अटा पड़ा है।
संचित कर्मों का भंडार, न ठीक रास्ते चलने देता,
न एकाग्र चित्त ठीक रास्ता बनने देता।
मंजिल को जाने जीव जरूरी यह होता है,
जाना है जिसने मंजिल को, वह हाथ जरूरी होता है।
ग्यानी गुरु दुर्लभ, पथ भटकन का होता है
मार्ग-दर्शक मिलने से, मंजिल भटकन न होता है
कहते राह कठिन गुरु का सहारा न रहा
स्वयं पाना नाह कठिन पता न किनारा कहां रहा।
प्रकाशक तिमिर रास्ते का कभी स्वयं मिल जाता है,
विकसित सुपात्रता होने से कष्ट नहीं रह जाता है।
साथी बच्चे मन-माया के चलते कदमों को रोकते हैं,
कड़वे-मधुर फल जीवन में चलने से बरबस रोकते हैं।
मन-माया का चक्रव्यूह जीव उन्हीं से है ठग जाता,
पग-पग पर जाल बुना हुआ, पथिक अकेला हैं फंस जाता।
कहते हैं स्वयं की कोशिश भी मंजिल को पा सकती है
मंजिल को दूर समझते हो, वह स्वयं पास आ सकती है।
आप पुरुषों ने बतलाया मंजिल कभी दूर नहीं है।
अन्तरतम में खोजोगे, वह अंतर में है दूर नहीं है
स्वयं या सद् गुरु का हाथ सत्य मार्ग मिल जाता है,
तिमिर दूर हो जीवन का, लक्ष्य तभी दिखने लगता है।
लगता है तब पता-जन्म मृत्यु दो वस्तु नहीं है,
पहलू दो एक वस्तु के, पर आपस में भिन्न नहीं हैं।
आत्मा को नहीं कहीं आना या जाना होता है-
जो पैदा होती नहीं उसे कैसे मरना होता है।
आए विराट पुरुष की समझ, ग्यान फिर हो जाता है,
न ऊंचा-नीचा न कोय, बड़ा-छोटा फिर कुछ नहीं होता।
कितन मंडल सौर, न गिनती हो सकती है,
सूर्य चंद्र ग्रह आदि, न दृष्टि पा सकती है।
ग्यानी, विग्यानी लगाकर अपना ग्यान चले गए,
न पाया उसका पार, कह नेति-नेति उस पार चले गए।
हो गया अनन्त प्रभु की, पाना पार आसान नहीं है,
माया का हो ग्यान, वस्तविक ग्यान नहीं है।
परम् प्रभु ही तत्व एक, ब्रह्माण्ड में छाया भर है,
न उससे कुछ भिन्न, नाम रूप माया भर है।
तत्व एक ही जाना-माना, सत्य-सनातन कहलाता है,
समझते ही यह तत्व, न ग्यान पुरातन रह पाता है।
(25 मार्च 2001)

Monday, July 27, 2009

विरह गीत

-ओम राघव
हम रोते रह गए महफिल में, तुम गाते-गाते चले गए,
फिर याद न तुमने हमें किया, बस हमें रुलाते चले गए।
दिन-महीने फिर सालें बीतीं, याद तुम्हारी खो न सके,
चुपके-चुपके आहें भर कर, खुल कर भई हम रो न सके।
काश, ये दिल की गहराई, ये दिल भी तुम्हारा जान सके,
संतोष करेंगे यह सुनकर, ना काबिल समझकर चले गए।
हम रोते रह गए...
दिन भी देखे रातें देखीं, जाड़ा और बरसात यहां,
गरमी की ऊष्मा भी देखी, पर मन को संतोष कहां।
गर आज अचानक आ जाओ, वर्षों का सिंचित प्यार यहां
सभी लुटा देंगे तुम पर, गर दे एक नजारा चले गए।
हम रोते रह गए...
( 24 मई 1965 को लिखा गया यह गीत भाग्यविधान उपन्यास से है, जो 1966 में प्रकाशित हुआ)

मिलें दादा जी से


दादा जी ओमपाल सिंह राघव का जन्म ३ नबंवर १९३९ को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के गांव मीरपुर-जरारा में हुआ। लेखन की रुचि उन्हें अपने पिताजी से मिली। जमींदार परिवार था मगर पढ़ने-लिखने का शोक पुस्तैनी समझो। इसी शोक के चलते दादा जी ने तीन उपन्यास लिखे। ये रहे-भाग्यविधान, कांच की चूडियां, मेरी लाज। रेलवे में नौकरी के बाद १९९८ में रिटायर हुए। अब हरियाणा के भिवानी के न्यू उत्तम नगर में रहते हैं। रिटायरमेंट के बाद लेखन कार्य फिर शुरू किया, दूसरे दौर का यह कार्य अध्यात्म का पुट लिए हुए है। इस उम्र में भी गांव जाकर खेती-बाड़ी का हिसाब किताब करके आते हैं। लोग बुजुर्गों का सहारा बनते हैं, मगर उनकी कर्मठता के चलते उनके भाइयों और पिता जी व चाचा जी को भी खूब राहत है। नहीं तो यह सब संभालने के लिए उन्हें भागदौड़ करनी पड़े। गत जनवरी में उन्हें एक ब्रेन अटैक हुआ था, एक बार तो लगा कि यादाश्त चली गई है। पीजीआई में इलाज चला। जीवन में नशा न करने और शाकाहारी भोजन की आदत वरदान साबित हुई, उन्होंने इस उम्र में बड़ी तेजी से रिकवरी की। एक माह में ही स्वस्थ्य हो गए। अब भी अकेले सफर कर लेते हैं।
-अद्वैत राघव

Sunday, July 26, 2009

पोते का फोन

-ओम राघव
सुन पोते का फोन, मन दादी का भर गया
घर के सारे लोगों में अनन्द कर गया।
वाणी तोतली दादी में नवप्राण भर गई
माहोल सारे घर का शीतल यान कर गई।
याद पोते की दादी को खूब सताती है,
जब आता नहीं फोन, तब उसे रुलाती है।
मां-बेटे करना फोन, दादी रोज बताती है
गर सुन ना पाये फोन, दादी की फटती छाती है।
रहता पोता दूर, वह पास न आता है,
कहता-लो मैं आ गया, फोन से उसे बताता है।
दादी का पूछे हाल, अपना हाल बताता है
छोटी अपनी बहना का भी राग सुनाता है।
दादी तरस रही है, पोता जल्दी आएगा
सुन्दर चांद सा मुखड़ा आकर उसे दिखाएगा।
रूठेंगा, झगड़ेगा, मां को गलत बताएगा
सौ-सौ हैं पापा की गलती, उसे सुनाएगा।
दादी डॉंटेंगी उनको, पोते को लाड़ लाड़ाएंगी,
दादी की ये प्रीत लाल को खुश कर जाएगी।
(17 सितंबर 2004)

Saturday, July 25, 2009

सद्कर्म

-ओम राघव
क्या स्मृति बिगत की कुछ रहती नहीं
फिर कल्पना से मान लें
मिला है शरीर बुद्धि मन स्थान और आत्मा को जान लें-
प्रारब्ध नियति पूर्वकर्म कुछ भी कहो
बिना सोचे क्या जिन्दगी नहीं उम्र भर चलती रही?
और पुण्य व पाप के घट भरती रही -
कब क्यों इच्छित अनिच्छित भोग-भोगे?
दिल-दिमागी चित्र खींचा एक ने
समझने में बड़ा प्यारा लगा
पर व्यवहार में कुछ और देखा
पर दूसरा इन्सान जिसका चरित्र और व्यवहार
आदर्श अनुकरणीय देखा
क्या सोचना?
यह होगा न वह होगा
न सोचा कभी- होता रहा वैसे अधिक
कर्म तो होते रहेंगे दृष्टिकोण अपना या गैर का
गेऱना समझना फेर किसका
समझना क्या आसान?
दोष कहां-फिर और किसका?
अतःएव-
विगत में क्या किया?
मात्र सदकर्म करने में ही ध्यान हो
परिणाम-इदम शरीर स्थान मन बुद्धि कर्म सुख
जो पाया वर्तमान में
वर्तमान आधारशिला भविष्य की
सदकर्म से सदमार्ग
शांतिमिले जीव का निश्चय ही कल्याण हो।
सदकर्म की हो सोच और कर्म कर।
(13 सितंबर 2004)

Friday, July 24, 2009

मृत्यु है आनंददायक

-ओम राघव
रहें तन से मन से स्वस्थ्य
वही जीना सुंदर है
रहें रोगी तन से मन से
वह जीना ही असुंदर है
स्वस्थ रहें जब तक दुनिया में
जीने का वास्तविक अर्थ है
थकें हाथ-पैर उंगलियां शरीर की
औरों के सहारे का जीवन ही व्यर्थ है।
जिएं जितने वर्ष दुनिया में
उसका क्या मूल्य है
समाज हित किए कर्म जिसने
वही जीवन अमूल है
रोगी तन-मन कर्ज समाज का
बनी केवल भार इस भूमि का
विश्व में पल रहे अनेक जीव
जीना उसका भी यथा एक कृमि का
गर मौत आ गई शोक-मलाल कैसा?
न कभी जीव और न मन मरे
मरण केवल मानव शरीर का
छोड़ना जब कभी यह तन पड़े
मृत्यु है आनंददायक
डूब आकंठ जीव स्नान करे जिसमें
जीवन के श्रम की होती थकान दूर
नए वस्त्र जीव पहन नव-द्वार चल पड़े
स्वागत है आए मौत उसका,
चल पड़ मेहमान की तर्ज पर
आया जो रहता कुछ देर-दिन
चला जाता लौट निज द्वार जिस तरह।।
(11 सितंबर 2004)

मौन या संवाद से

-ओम राघव
कैसे-किसको पुकारें?
कब-कहां संसार में रह कर
और कैसे संवारें?
मौन से या संवाद से
व्यवधान लगते संवाद से प्रसूत तर्क
मन-इंद्रियों की शक्ति अपनी-मौन ज्यादा
संवाद से संतुष्ट, कुछ असंतुष्ट होते
कैसे हो सके संवाद?
सर्वमान्य फिर
बिना संवाद शून्य है समाज
है तथ्य यह भी नहीं क्या?
साथ मन के संवाद-बने मौन
इन्द्रिय गोचर नहीं, पर वह भी तो संवाद है
यह संसार कल्पित, संवाद से ही होता प्रकट
सुख-दुख-हर्ष-अमर्ष लेकर
मानो वास्तविक लगता और गहरा संसार फिर
आज है भविष्य में ऐसे ही रहेगा?
मन से मौन-संवाद आत्मा से हो
जीव लाखों वर्ष से कर रहा है खोज जिसकी
क्या संभव है सार्थक पुकार?
फिर सोच कैसी?
सोचना ही व्यर्थ जैसे
समझना अनिष्ट या कष्ट का कारक दूसरा (संवाद)
सुख-हर्ष अपना साख दे निज अहंकार को
है जो कल्पित निरा
निज सोच का भाव उसके अनुरूप ही संवाद है?
अंदर से मिले शक्ति मौन से
बाह्य विचारों की बने शून्यता
तब ही लक्ष्य होगा सामने
ये दृश्य संसार कुछ और ही दृश्यमान होगा
पुकार-सत्य का कहना कठिन, सुनना कठिन
न शरीर अपना, न मन अपना, बने सहज स्थिति
आनंदानभूति प्रकट सबकुछ स्वयं हो
आना सफल जीना सफल समाज का
और सफल अंतिम सफर
संवाद से संसार है-समाज है
पर आत्मा की तो मौन ही आवाज है
संवाद करना ही पड़ेगा-दीखते संसार में
मौन होना ही पड़ेगा, सत्य को अगर खोजना है
मौन ही है अंतिम पड़ाव जीव का।
(९ नवंबर २००४)

Wednesday, July 22, 2009

अभिन्नता

-ओम राघव
अभिन्न से भिन्न होते ही
समय ने करवट बदली
बदला काल, शीतल लालिमा
चकाचौंध बन पूर्व दिशा बदले यथा
भाष्कर की लालिमा क्षितिज को छोड़कर जाने लगी
मिलन से पूर्व की प्रार्थना
प्रार्थना का सफर
सहचर्य में नहीं पड़ा खलल
मांगा न कुछ- हो प्रसूत अविश्वास जिससे
न लेना भला और न देना भला
मन का देवता, न कुछ चाहिए
जहां सब कुछ सामान्य है
विश्वास खोकर अविश्वास मिलता
शांति की भेंट कोलाहल पर चढ़ गई
सुनामी लहर जैसी आगे बढ़ गई
तीव्र वेग-रोक पाये कौन उसको
अविश्वास का प्रतिकार
प्रारब्ध प्रसूत संस्कार
क्षमता घटना बदले अघटना में
गीता के ब्रह्म वाक्य सा
न करेगा-युद्ध अर्जुन-कौरव सेना बच सकेगी
शरीर नश्वर नष्ट होंगे
संस्कार वस , स्वभाव बरबस लगा दे कार्य पर
जिसक न तू करना चाहता
अभिन्नता का ग्यान हो
फिर भिन्नता कैसी?
जन्म कैसा? मृत्यु कैसी?
क्लेश कैसा?
जब नहीं भिन्नता
ईर्ष्या अहंकार क्रोध कैसा?
और किस पर?
दीखता भिन्न वह स्वयं है।
अभिन्नता ही ग्यान, आनंद, मोक्ष है
समझभर की देर
नसमझभर का ही फेर है।।
(7 जनवरी 2004)

कौन प्रथम

-ओम राघव
भाष्कर होगा उदय-अभी देर है
निकल पड़े घर से- चरवाहा मजदूर किसान
चाह पाले खेत करने काम करने
मिले जो भी काम-
घर पुताई या रंगाई, फसल की हो कटाई
कारखाने की सफाई
जो भी काम हो करेगा, दिन के अवसान तक
खेत जोते फसल बोई, कभी अधिक वर्षा
खरपतवार सूखा कभी टिड्डीदल ही खा गया
जमींदार बना पर मजदूर हो गया
न खाने का पूरा पड़ा, लगान देना रह गया
घर से निकला सदा, सूरज से बहुत पहले
नवजात शिशु अनजान-बाप के अस्तित्व से
जंगल की हो कटाई या कारखाने की सफाई
मालिक की रहे सलामत मुटाई
स्वयं लक्कड़ काट काठ बन गया
नहीं बनना चाहता अधिक धरती का बोझ
काम ही नियती बना उसकी
जीवन यापन की भरपाई हो सके
कार्य विनिमय से बस इतना चाहता
बच्चे पल सकें पढ़ सकें
उनके ब्याह चिंता से हो सके मुक्त
इसी को मान लेता परम मुक्ति
जीवन के पार मुक्ति का
उससे कोई सरोकार नहीं
अवसर ही नहीं उससे अधिक सोचने का
उसके निकलने के बाद
निकलता है दिन
कौन निकलता है प्रथम
पता अब चल गया है?
(5 नवंबर 2003)

Tuesday, July 21, 2009

अराधना

-ओम राघव
छोड़ मोह-माया को जल्दी, लगजा प्रभु की याद में
रह जाए केवल पक्षतावा, इस जीवन के बाद में
नश्वर ये संसार, छोड़ कर जाना ही होगा
है कई जन्मों का भार, जिसे उठाना ही होगा
हीरे से अधिक कीमती, सांसें खो डालीं
साधन बना शरीर, शीघ्र ही हो जावे खाली
बचपन युवा बुढ़ापा, ऐसे ही खो डाला
दिन खेल-कूद आराम, रात गफलत में सो जाना
बचपन और जवानी खोई, कीमती सांसें भी खोईं
बने उम्र भर कितने रिश्ते, पर रहा नहीं कोई
साधन मिला शरीर, सार्थक है इसको करना
प्रभु की रहे निरंतर याद, रहे फिर कोई डर ना
जीवन यह संसार, स्वप्नवत इसे समझना
है जबतक अग्यान, तभी तक नाटक करना
क्षण-क्षण प्रभु की याद, मंजिल को लाएगी
काम-क्रोध मद-लोभ की भट्टी, नहीं जलाएगी
किसी शब्द से और मंत्र से, प्रभु की याद करो
मंजिल तक पहुंचाएगा, न संशयवाद करो
श्रवण-कीर्तन वंदन, प्रभु का सिमरन करना है
छोड़ सहारा जग का, आत्म समर्पण करना है
आ जाए जब ग्यान, फिर पर्दा नहीं रहे
होवे नाटक का अंत, पात्र का धंधा नहीं रहे
खुले न अंतरचक्षु, तभी तक माया की सूरत
होवे आत्मा का भान, न मन की रहे जरूरत
मन का सारा खेल, निरंतर तरसाता है
बिन प्रभु की याद, जीव का मन घबराता है
( 3 नवंबर 2003)

Monday, July 20, 2009

सिरमौर

-ओम राघव
अंतर भरा अभद्र हृदयहीनता से
आदर्श फिर कैसा? नाता धर्म-भीरुता से
करे उग्र बन विस्फोट बम का
या फिर करे संहार जग का
उसे अपना भद्रतायुक्त चेहरा दीखता
बसुधा है सारी कुटुम्ब आदर्श कैसे सीखत?
उसके लिए आदर्श, नैतिकता, किताबी लेख है
आधुनिकता में जो कंटीली मेख है
होता रहे मानव अहित, भला कौन उसे टोकदे,
ताव किसमें है, जो उसका विजय रथ रोकदे,
कुत्सित मन न दे ठहरने भद्रता को
करे न माने, उस पुरानी मान्यता को
छोड़े पहली मान्यताएं तो प्रगतिशील है
तभी बने आधुनिक डाले न उनमें ढील है
परिणाम है उग्रता, बलात्कार भ्रष्टता,
संहार लाखों का भी है फिर शिष्टता
सर्वनाश कर विश्व अपराजेय बनकर
बना धवल-शील कुछ को विजयी पदक देकर
किए निर्माण दिव्य भवन-धन मन से सजाकर
बढ़ा अहंकार, श्रम-धन-बल मिलाकर
स्वतंत्रता के नीड़ में सांस था जिसने लिया
डाल कर बम मेघसम, जोश ठंडा कर दिया
कथित अशांति दूर कर, दूत शांति के बने
देखो, प्रतिफल में जयजयकार हैं सब कर रहे
सप्ताह के तूफान ने परमार्थ सारा कर दिया
अशांति के बबूलों को मानों शांत कर दिया
शंभु पराधीन कर, हुआ नहीं कृतार्थ क्या?
बड़ा प्रतिकार इससे- दान और पुण्य क्य?
मरहम लगे पीड़ितों को दूर हो अभद्रता
मांगे सबसे उदार मन, निःसंकोच सहायता
न आएगी याद बनेंगी अब भव्य कोठियां
बच्चे भाई पति खोये याद केवल रोटियां
बेरोजगारी दूर होगी इससे बड़ा उपचार क्या
काम अब उनको मिलेगा, जिनको न कोई काम था
वह विजयी भी होगा न क्या शांत एक दिन?
करेंगे याद उसकी रचा था उसने इतिहास एक दिन
समाधी पर चढ़ेंगे श्रद्धासुमन, लगें प्रतिवर्ष मेले
कभी कांपता था विश्व सारा जिसका नाम ले ले
कुत्सित हृदय सोचता सब ठीक ही होता रहेगा
बाद जाने के उसे फिर क्या कोई देख लेगा
आत्मा है अमर हर जीव में विराजती
वह क्या समझा सकेगी-बुद्धि न समझना चाहती
दूसरी व्यक्तित्व देखा, शुभ कर्म लीक पर चला
चाहे अपार कष्ट, सारी जिन्दगी सहता रहा।
मिली सत्ता सम्पदा को दूर ही करता रहा,
आदर्श की वेदी पर चढ़ त्याग सब करता रहा
परिवार पत्नी, पुत्र छोड़े व्यवहार मर्यादित किया
लांक्षन लगे तटस्थ रह निज लीक को सार्थक किया
शान्ति भद्रता व्यवहार में आदर्श अवश्य बन गया
मर्यादा में बंधा, सर्वमान्य वह उत्तम पुरुष बन गया।
(3 नवंबर 2003)

Sunday, July 19, 2009

प्रसन्नता

-ओम राघव

प्रश्न
प्रसन्न कैसे रहें जग में
हर कोई यह चाहता
प्रसन्न रहने का सूत्र
खोज से भी नहीं मिलता
निर्देशित मार्ग होता सीधा
पर वह कभी सीधा न लगता
डिगा है विश्वास, तो श्रद्धा बनेगी कैसे?

उत्तर
लाभ सुख-शांति का है, जिनसे मिलता
अमर फल-प्रसन्नता प्राप्त जिससे
दिखता वह आकाशी फूल है
प्रसन्न हों दूसरे की प्रसन्नता में
बने वह प्रसन्नता का सदमूल है

धकेलते कर्त्तव्य पीछे अधिकार बस चाहते
करे कर्म दूसरा, मिले फल हम चाहते
सोच-निष्कर्मता से, लाभ ही हमको मिलेगा,
सदा के वास्ते ही, अधिकार फल हम को मिलेगा

सदा मिले सुख-लाभ, सोचना ही भूल है,
कर्मनिष्ठ होना कारण प्रसन्नता का मूल है
अब सुख-लाभ क्या? यह अंतर की ही सोच है
सकारात्मक सोच हो, न दुख और सुख शेष है

स्वप्निल संसार में, रहेंगे जब तक,
कलेश तीन हमको सताएंगे,
रस्सी को समझे सर्प, भय का बनेगा भूत
सभी मिलकर हमको डराएंगे

पर्दा सत्य से हटेगा नहीं जब तक
स्वप्निल संसार से ऐसे ही ठगे जाएंगे
सब कुछ धन सम्पन्ति से है मिलता
पर शांति-सुख सम्पदा नहीं मिल पायेगी,

खोजने पर पाओगे-प्रसन्नता के स्वयं स्रोत हो
वह अंतर की बुद्धि-मन, आत्मा दे पायेगी।

(29 सितंबर 2003)

Friday, July 17, 2009

द्वैत या अद्वैत

-ओम राघव
अद्वैतवाद
न था पहले कभी और न पीछे रहता है
दृष्य प्रकृति पदार्थ स्वप्नवत मिथ्या होता है
भ्रम वर्तमान सत्ता है मिथ्या केवल भासती
जीव सत्ता ब्रह्म है जन्म होकर दीखती
जीव संग्या जन्म से पर होती ब्रह्म है
जन्म मरण से परे सत्य ही ब्रह्म है
अदर्शन आत्मा पुनः अदृश्य हो जाएगी
जीव जन्म ले बार बार ब्रह्म में सो जाएगी
चिंतन में आती नहीं, इन्द्रिया-नीत आत्मा
करता रहा जीव ही अजन्मे ब्रह्म की उपासना
महाकाश घटाकाश जैसे कल्पित भेद हैं
आकाश है सर्वत्र व्यापक शेष कल्पित भेद है
कर्म धर्म का अभाव बन जाता परमार्थ है
हंसना-मरण जीवन मृत्यु इनका न कोई अर्थ है
चिन्गारी प्रगटे अग्नि से, अग्नि का ही अंश है
ब्रह्म से नहीं प्रथक जीव, वह ब्रह्म का ही अंश है
दुखी जीव देह के संयोग से, असंयोग जीव ब्रह्म है
काम-क्रोध, राग-शोक, देह-मन के धर्म हैं
प्रकृति-जगत है भ्रम सदा-वस्तविक सत्ता नहीं
संकल्पित है ब्रह्म से, क्षीण प्रलयावस्था कहीं
आत्मा ही सनातन कण-कण में ओतप्रोत है
अपार अप्रमेय, उसका प्रकाश ही स्रोत है
द्वैतवाद
ब्रह्म प्रकृति जीव सत्ता आदि से है मानते
बिना जिनके सृष्टि का आकार कैसे जानते
द्रव्य के प्रकार से एक जड़ दूसरा है अजड़
प्रकृति है सारी जड़, आत्म-ईश्वर अजड़
प्रकृति व जीव दोनों, ईश्वाराधीन हैं
पर हैं दोनों भिन्न सत्ता, होती न ब्रह्मलीन है
जीव अणु अधिसंख्य में होता प्रकट
ब्रह्म उपासना से मुक्त हो, होता है फिर अप्रकट
जीव रहे निम्न ही, जब तक न करे स्वः को प्रकट
ब्रह्म दोषों से रहित, जीव दोषों का भरा घट
मत-मतान्तर देख, प्रश्न बुद्धि से करता रहा है
पाया न हल आदिकाल से, वह उलझता ही रहा है
मन-वाणी से जो अगोचर, पाओ तुम कैसे उसे
है अखंड परम सत्ता, सत्य कहते हैं जिसे
विचार व कर्म अच्छे, गर परोपकार सीखले
सदा दूर हिन्सा से रहें, सबसे प्यार करना सीख ले
नैतिक जीवन मार्ग ही, सच्ची बने उपासना
निकट है परम धाम-मोक्ष, रहे न शेष कल्पना।
(२७ सितंबर २००३)

Thursday, July 16, 2009

विस्मृति

-ओम राघव
जब से बिछुड़े भोगे हैं लाखों जन्म
कितने नाटक हम कर चुके हैं
पुत्र पौत्र बाप कितने रिश्ते अनाम
कब तक जिए क्या-क्या रूप धर
पाप-पुण्य के घट भर चुक हैं
शरीर कैसा कर्म कैसे
जीना कब तक रहा
विस्मृति की गोद में सब सो गया
त्रिगुण के मेल से आनंद या कष्ट भोगा
विगत पाये जीवनों में
मानों सभी कुछ खो गया
गर वो सब याद रहता
कैसा यह वर्तमान लगता
जीने का उपचार मिलता
साथियों को याद आती
वर्तमान को भुलाती
फिर क्या जीवन इतना सहज होता?
यौनिया बताते हैं लाख चौरासी
जीव जिनमें घूमता है
समुद्री लहर के माफिक
कई जन्म पापड़ बेलता है
मानव बना जो जीव
वही केवल सोचता है
कर्म बुद्धि ग्यान की मानव यौनि
शेष सब तो भोग यौनिया
दुख दर्द एवं भ्रांति की ही सारी यौनिया
गर विस्मृति साथ होती
मनुज कर पिछली याद रोता
न पाता चैन दिन में
न आराम से रात सोता
ग्यान तक चक्र गर चल गया
भेद सारा खुल सकेगा
हर जन्म आगे बढ़ने का है रास्ता
युगों पहले छोड़ कर जो भूल की है
हर जन्म की कोशिश मंजिल पर ले जा सकेगी
शरीर तीनों इंद्रिया मन बुद्धि
जब आत्मा में जा टिकेगी
प्रयत्न नहीं अब तक किया
वह निश्चय ही करना पड़ेगा
बिछुड़े हुए हैं, जहां से
वहां पर ही जाना पड़ेगा
कभी जो जहां से चला है
लौट कर वहीं आना पड़ेगा
अब तक शांति की खोज जो हुई है
आए हो जिस मुकाम से
वहीं जाना पड़ेगा
(१५ अगस्त २००३)

चिड़िया

-ओम राघव
कभी पास में, कभी दूर ही
अपना नीड़ बना लेती हो
थोड़ी सी भी आहट पाई
चिड़िया तुम झट उड़ लेती हो
प्यार से चुनकर दाना-तुनका
नहीं किसी से तुम लड़ती हो
विश्वास नहीं जग प्राणी का
उड़ होशियारी कर लेती हो
सुन लेती सब जग की बातें
नहीं किसी से कुछ कहती हो
श्रम को करना और खुश रहना
जुगाड़ जीविका कर लेती हो
सूखा वर्षा ओले मानव
शत्रु सारे बने हुए हैं
बचना उनसे कठिन तुम्हारा
जाल सभी ने बुने हुए हैं
प्रात उठ हिलमिल कर चलना
सीखे मानव सिखलाती है
बनकर साथी रहना कैसे?
सारे समाज को बतलाती है
प्रेम प्यार निष्काम भाव से
सब बच्चों को बहलाती है
चिड़िया पक्षी किसी तरह की
चालाकी न दिखलाती है
रोटी-चावल खाए जो प्रेम से डाले
बच्चों का खिलौना भी बन जाती
घर करे निर्माण, कर सामान इक्टठा
कहां-कहां से वह ले आती
खाना-पीना चलना-फिरना
बच्चों को सभी सिखा देती है
करना मेहनत प्रात से छिपते दिन तक
बच्चों को पाठ पढ़ा देती है
केवल अपना ही नहीं
बच्चों का पहले पेट भरेगी
लायक बच्चे नहीं हो जाते
तब तक उनके काम करेगी
सारी जिम्मेदारी मां की
चिड़िया पूरी कर जाती है
प्रकृति मानव के गुण सारे
बच्चों में अपने भर जाती है
अपने समाज की मानव समान
जिम्मेदारी पूरा करती
हटते पीछ कभी न देखा
दुख बच्चों के सारे सहती
अजब करिश्मा यह कुदरत का
घर जंगल सबकी रौनक बन जाती है
प्रकृति को कुछ समझे मानव
चिड़िया मानो बतलाती है।
चिड़िया रंग-बिरंगी कई ढंग की
नीली-पीली लाल-सुनहरी
नाम निराले, आवाज सुरीली
गौरेया तोता और टिटहरी
कौआ चातक सारस बत्तख
बटेर तीतर मोर व गलगल
जिनका है संगीत अनूठा
गाये मानव बिना शोर
केवल मन ही मन।।
(५ जुलाई २००३)

Wednesday, July 15, 2009

संवेदना जंगल की

-ओम राघव
मेर आस्तित्व को निगलती

दिल की गहराई में पैठ

दर्द की आग

कब कहां कैसे?

उजड़ा यौवन मेरा

टीस उठती-

निरन्तर प्राप्त वृद्धि-समृद्धि को जिसकी कामना

उजाड़ कर अस्तित्व मेरा

बनकर सदी का एडवान्स्ड मानव

पूर्णविराम पायेगी क्या कभी

इसकी कामना?

आचरण का शुभ-चिंतन कहां

जब आचरण हीन मानव हो रहा

प्रश्न-चिन्ह रहेगा क्या अस्तित्व मेरा

शेष चेहर?

हुआ अस्तित्व हीन मैं

अस्तित्ववान क्या मानव रहेगा

क्या प्रश्न यह उठता नहीं है

होगा वातावरण प्रदूषित-

मानवता काल-कलवित

इन्द्रिया-रोम मेरे

है नीम पीपल ताड़ केला

कीकर खजूर ढाक बेला

कतारें-सेब अखरोट बदाम अनार वाली

अनेक जिन्सें बेल डालें अंगूर वाली

घास वनस्पति लाल पत्थर

अमोल लकड़ी संगमरमर

लोंग इलायची मिर्च काली

तेज पत्ता बेल पत्ती चायवाली

अबरक कोयला और लोहा

हीरा पत्थर मैगनीज सोना

मिट्टी-पत्थर से बनी अट्टालिकाएं

किले मंदिर मसजिद भव्य बनें सारी दिशाएं

करते सामान्य पर्यावरण जन्तु ऐसे

कीड़े-मकौड़े शेर हाथी जीव जैसे

रीछ मृग खरगोस चीते

व्याल अजगर सब जीव जीते

कलरव सुघड़ पशु पक्षियों का

करता दिन-रात मंगल

मानव काटता दिल मेरा

काटकर पहाड़ और जंगल

चाहता हूं स्थायित्व मानव का

उसे न कभी दुख की आग निगले

स्वयं से नहीं सीख सकता

मुझसे ही कुछ सीख ले ले।

मानव ने जीव मारे जन्तु मारे

वृक्ष काटे दॉंत काटे

सींग- हाड़ खाल बेच और बांटे

बेचकर व्यापारियों को

धन कमाया

पर न छोड़े - फर न छोड़े

बाजार पूरे भर दिए

दुस्साहस यही मानव का रहा

कर अस्तित्वहीन मुझको

पर स्वयं को भी मानव

कंगाल क्या नहीं कर रहा?

(३ जुलाई २००३)

Tuesday, July 14, 2009

जड़ माया

-ओम राघव

कितन युग आए, बीत गए,

काल-देश में आकर माया ऐसी लिपट गई,

छूटा नहीं देश, ममता ऐसी लिपट गई।

युग-वर्ष सारे जीवन के रीत गए,

महल-हवेली-जमीं देख जायदाद को,

सोना-चांदी, रुपए-पैसे शान को।

इस जड़ माया ने सब जीत लिए,

बाबा-दादी माता-पिता-पुत्र परिवार से,

मोह न बिल्कुल छूटा पर सब छूट गए।

मालिक-परमेश्वर की भक्ति न हो सकी,

मोह-माया से सदा आत्मा ठगी।

रुकावट-मिलने में जड़ चेतन माया हो गए।

सद्पयोग भी न कभी माया का किया,

संतों की संगत नध्यान रब का किया।

केवल दिन-बरस नहीं कई युग ऐसे बीत गए।
(३ नवंबर २००२)