-ओम राघव
रहें तन से मन से स्वस्थ्य
वही जीना सुंदर है
रहें रोगी तन से मन से
वह जीना ही असुंदर है
स्वस्थ रहें जब तक दुनिया में
जीने का वास्तविक अर्थ है
थकें हाथ-पैर उंगलियां शरीर की
औरों के सहारे का जीवन ही व्यर्थ है।
जिएं जितने वर्ष दुनिया में
उसका क्या मूल्य है
समाज हित किए कर्म जिसने
वही जीवन अमूल है
रोगी तन-मन कर्ज समाज का
बनी केवल भार इस भूमि का
विश्व में पल रहे अनेक जीव
जीना उसका भी यथा एक कृमि का
गर मौत आ गई शोक-मलाल कैसा?
न कभी जीव और न मन मरे
मरण केवल मानव शरीर का
छोड़ना जब कभी यह तन पड़े
मृत्यु है आनंददायक
डूब आकंठ जीव स्नान करे जिसमें
जीवन के श्रम की होती थकान दूर
नए वस्त्र जीव पहन नव-द्वार चल पड़े
स्वागत है आए मौत उसका,
चल पड़ मेहमान की तर्ज पर
आया जो रहता कुछ देर-दिन
चला जाता लौट निज द्वार जिस तरह।।
(11 सितंबर 2004)
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बहुत बढ़िया कविता है
ReplyDeleteअमित को भी पसंद आई
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना है लोग शिक्षा ले सकते हैं | बहुत सही कहा जीना क्या है !! लोग जीते हैं ५० साल या ६० साल या इससे फिर एक दिन मर जाते हैं दुनिया मैं किसी को पता नहीं चलता की इस नाम का एक व्यक्ति इतने साल इस दुनिया में रहा और रुखसत भी हो लिया ! वही कीडे मकोडों की जिंदगी!!
ReplyDeleteAapke dadaji ki ye kavita padhkar Harivansh rai bachhan ki kavita rone wala hi gata hai yaad aa gayee. In rachnaon ko kahan aapne chipa rakha tha. Chaliye der se hi sahi logon ke samne to aayee. Aapke dadaji ke saath hi aapko bhi dhanyawad.
ReplyDeleteराघव जी मेरे ब्लाग http://katha-kavita.blogspt.com/ पर टिपण्णी हेतु आभार लेकिन विनम्रता से अर्ज करना चाहूंगा कि वह पद मां सरस्वती की कृपा से मेरे द्वारा लिखा गया है मीरा बाई का नहीं है .हां लेकिन आपने इस पद को ऐसा समझा यह मेरी रचना का सौभाग्य है
ReplyDeleteश्याम सखा श्याम
मेरा एक और ब्लाग है http://gazalkbahaane.blogspot.com/