-ओम राघव
अभिन्न से भिन्न होते ही
समय ने करवट बदली
बदला काल, शीतल लालिमा
चकाचौंध बन पूर्व दिशा बदले यथा
भाष्कर की लालिमा क्षितिज को छोड़कर जाने लगी
मिलन से पूर्व की प्रार्थना
प्रार्थना का सफर
सहचर्य में नहीं पड़ा खलल
मांगा न कुछ- हो प्रसूत अविश्वास जिससे
न लेना भला और न देना भला
मन का देवता, न कुछ चाहिए
जहां सब कुछ सामान्य है
विश्वास खोकर अविश्वास मिलता
शांति की भेंट कोलाहल पर चढ़ गई
सुनामी लहर जैसी आगे बढ़ गई
तीव्र वेग-रोक पाये कौन उसको
अविश्वास का प्रतिकार
प्रारब्ध प्रसूत संस्कार
क्षमता घटना बदले अघटना में
गीता के ब्रह्म वाक्य सा
न करेगा-युद्ध अर्जुन-कौरव सेना बच सकेगी
शरीर नश्वर नष्ट होंगे
संस्कार वस , स्वभाव बरबस लगा दे कार्य पर
जिसक न तू करना चाहता
अभिन्नता का ग्यान हो
फिर भिन्नता कैसी?
जन्म कैसा? मृत्यु कैसी?
क्लेश कैसा?
जब नहीं भिन्नता
ईर्ष्या अहंकार क्रोध कैसा?
और किस पर?
दीखता भिन्न वह स्वयं है।
अभिन्नता ही ग्यान, आनंद, मोक्ष है
समझभर की देर
नसमझभर का ही फेर है।।
(7 जनवरी 2004)
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ek bahut achcha prayaas haen yae aap sae baat jitni tareef ki jaaye kam haen is blog ki charcha karugi kuch din baad apnae blog par
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन लिखा आपने आभार्
ReplyDeleteवाह अद्वितीय सुन्दर बहुत सुन्दर शब्दों का तारतम्य है !
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