Wednesday, July 15, 2009

संवेदना जंगल की

-ओम राघव
मेर आस्तित्व को निगलती

दिल की गहराई में पैठ

दर्द की आग

कब कहां कैसे?

उजड़ा यौवन मेरा

टीस उठती-

निरन्तर प्राप्त वृद्धि-समृद्धि को जिसकी कामना

उजाड़ कर अस्तित्व मेरा

बनकर सदी का एडवान्स्ड मानव

पूर्णविराम पायेगी क्या कभी

इसकी कामना?

आचरण का शुभ-चिंतन कहां

जब आचरण हीन मानव हो रहा

प्रश्न-चिन्ह रहेगा क्या अस्तित्व मेरा

शेष चेहर?

हुआ अस्तित्व हीन मैं

अस्तित्ववान क्या मानव रहेगा

क्या प्रश्न यह उठता नहीं है

होगा वातावरण प्रदूषित-

मानवता काल-कलवित

इन्द्रिया-रोम मेरे

है नीम पीपल ताड़ केला

कीकर खजूर ढाक बेला

कतारें-सेब अखरोट बदाम अनार वाली

अनेक जिन्सें बेल डालें अंगूर वाली

घास वनस्पति लाल पत्थर

अमोल लकड़ी संगमरमर

लोंग इलायची मिर्च काली

तेज पत्ता बेल पत्ती चायवाली

अबरक कोयला और लोहा

हीरा पत्थर मैगनीज सोना

मिट्टी-पत्थर से बनी अट्टालिकाएं

किले मंदिर मसजिद भव्य बनें सारी दिशाएं

करते सामान्य पर्यावरण जन्तु ऐसे

कीड़े-मकौड़े शेर हाथी जीव जैसे

रीछ मृग खरगोस चीते

व्याल अजगर सब जीव जीते

कलरव सुघड़ पशु पक्षियों का

करता दिन-रात मंगल

मानव काटता दिल मेरा

काटकर पहाड़ और जंगल

चाहता हूं स्थायित्व मानव का

उसे न कभी दुख की आग निगले

स्वयं से नहीं सीख सकता

मुझसे ही कुछ सीख ले ले।

मानव ने जीव मारे जन्तु मारे

वृक्ष काटे दॉंत काटे

सींग- हाड़ खाल बेच और बांटे

बेचकर व्यापारियों को

धन कमाया

पर न छोड़े - फर न छोड़े

बाजार पूरे भर दिए

दुस्साहस यही मानव का रहा

कर अस्तित्वहीन मुझको

पर स्वयं को भी मानव

कंगाल क्या नहीं कर रहा?

(३ जुलाई २००३)

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