Thursday, July 16, 2009

विस्मृति

-ओम राघव
जब से बिछुड़े भोगे हैं लाखों जन्म
कितने नाटक हम कर चुके हैं
पुत्र पौत्र बाप कितने रिश्ते अनाम
कब तक जिए क्या-क्या रूप धर
पाप-पुण्य के घट भर चुक हैं
शरीर कैसा कर्म कैसे
जीना कब तक रहा
विस्मृति की गोद में सब सो गया
त्रिगुण के मेल से आनंद या कष्ट भोगा
विगत पाये जीवनों में
मानों सभी कुछ खो गया
गर वो सब याद रहता
कैसा यह वर्तमान लगता
जीने का उपचार मिलता
साथियों को याद आती
वर्तमान को भुलाती
फिर क्या जीवन इतना सहज होता?
यौनिया बताते हैं लाख चौरासी
जीव जिनमें घूमता है
समुद्री लहर के माफिक
कई जन्म पापड़ बेलता है
मानव बना जो जीव
वही केवल सोचता है
कर्म बुद्धि ग्यान की मानव यौनि
शेष सब तो भोग यौनिया
दुख दर्द एवं भ्रांति की ही सारी यौनिया
गर विस्मृति साथ होती
मनुज कर पिछली याद रोता
न पाता चैन दिन में
न आराम से रात सोता
ग्यान तक चक्र गर चल गया
भेद सारा खुल सकेगा
हर जन्म आगे बढ़ने का है रास्ता
युगों पहले छोड़ कर जो भूल की है
हर जन्म की कोशिश मंजिल पर ले जा सकेगी
शरीर तीनों इंद्रिया मन बुद्धि
जब आत्मा में जा टिकेगी
प्रयत्न नहीं अब तक किया
वह निश्चय ही करना पड़ेगा
बिछुड़े हुए हैं, जहां से
वहां पर ही जाना पड़ेगा
कभी जो जहां से चला है
लौट कर वहीं आना पड़ेगा
अब तक शांति की खोज जो हुई है
आए हो जिस मुकाम से
वहीं जाना पड़ेगा
(१५ अगस्त २००३)

2 comments:

  1. Achcha laga aapke blog par aakar.Sari hi rachnayen achchi hain.Shubkamnayen.

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  2. bhut achhi rachna hai .pote ne dadaji ki prtibha ko samman dekar ham tk phuchaya .khoob ashish.shubhkamnaye

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