Sunday, May 2, 2010

जगत व्यवहार

ओम राघव
ज्ञान की होती सत्य रूपी वासना
इसलिए -जगत परिद्रश्य कि होती बाधित-मिथ्या वासना ।
कर्म का परिपाक करने काल को कल्पित किया ।
कुचेष्टाएं - पूर्व - काल की -बना संस्कार प्रभाव डालतीं ।
इसलिए मलिनता दोष बुद्धि में आ गया ।
शेष कर्तव्य - संकल्प से। बन जाती स्वत: काम वासना ।
दोष - चिंतन से हो विमुखता।
वैरागय से वह दूर होती मिटती जगत की हर वासना।
अपने अंत:करण की करनी सतत् परीक्षा और न सोच,
बचना करें अन्य की परीक्षा।
सिद्धि बस करनी आत्म-विज्ञान रुप की
भोग - रुपी अंकुर उत्पन्न् करता प्रारव्ध रुप बीज हो।
मन और वासना शांत हो-
प्रारव्ध-रुपी बीज नष्ट अवश्य हो सकें।
प्रतीती जगत की हो रही -
प्रारव्ध-रुपी दोष के कारण
जगत-व्यवहार-स्वत: चलता-स्वभाव-सिद्धि अनुसंधान से
बन जाता-वैरागय का कारन -
विषयों में दोष-दर्शन जब हो।
परम आत्मा धारण करता जगता को।
उसके ध्यान में चिंत की तत्र्परताकहलाती भक्ति है।
अनन्य- शरणागति से ही सुलभ-ज्ञान है ।
वांछनीय-जगत व्यवहार जल से ऊपर-
कमल की तरह खिल-
करनीय जगत व्यवहार हैं।
17-2-2010

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