Saturday, May 8, 2010

सत-चित-आनन्द

ओम राघव
ब्रह्माण्ड के मूल में
है विद्यमान एक शक्ति महत्वाशाली,
निरतशय ऐश्वर्याशाली
कहते परमेश्वर या परमात्मा
मायारूप मेघ बनकर
वही बरसता जगतरूपी नीर बनकर।
स्वयं वह न उसमें भीगता
विस्मृत स्वयं होकर विलग
जीव पूरी तरह से भीगता।
गुबार गर्द कोहरे से ढका
अपना असली चेहरा न दीखता
कैसा कैसा नहीं? परमात्मा
जानना न जरूरी साधक के लिए
मेरा है-उसका आस्तित्व रहेगा मेरे लिए सदा
हर क्षण दृढ़ आस्था के लिए सोचना
यही आवश्यक अपने लिए
चाहता सुख आनन्द हर जीव अपने लिए
वास्तविक इच्छा है सद-चित-आनन्द की।
शरीर संसार जड़ से पूर्ण हो सकता नहीं
जड़ सत्य व ज्ञान के वाहक नहीं
क्रिया और पदार्थ कार्य हैं प्रकृति के
निज स्वरूप में स्थित
असंशय हो शरीर और संसार से
कामना सदैव सुख की जीव की
सत-चित आनन्द की पूर्ण होगी तभी
संसार की कोई वस्तु नहीं अपनी
साथ-सदैव फिर कैसे रहेगी
अपने हैं परमेश्वर परमात्मा
दूरी फिर कहां कैसे रहेगी। (१५-०४-१०)

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