Saturday, February 13, 2010

व्यवधान

ओम राघव
व्यक्ति विशेष की परख करते हम
अपने आदर्शों के अनुरूप
दूसरे द्वारा माने जाने वाले देवता को
देखते परखते या माप करते
अपनी धारणा से तय देवता से
दूसरे के माने जाने वाले आदर्श से
करते परख अपने द्वारा धारण आदर्श से
बनता जो अनबन का व्यवधान आपसी सामन्जस्य का
प्रवृति और निवृत्ति कर्म का मूल और
धर्म का प्रारम्भ मानते हैं
शुद्ध अजर अपरिणामी परमात्मा कहां कैसे?
पर भेद हमने गढ़ लिया है।
मात्र अपना ही दृष्टिकोण थोप कर
शरीर यह कन्या समान हमको मिला
पालन-पोषण करना जिसका बखूबी
पर नहीं कभी अपना मानना
निश्चिंत अगर होना चाहते
शरण भगवान की उसको सोंपना
ध्यान विदाई का रहे सदा शरीर अपना नहीं
व्यवधान फिर कैसे रहेगा?
(०३-०२-१०१०)

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