ओम राघव
जिज्ञासा मानव की रही सदा, सब कुछ जान ले,
दृष्टि से ओझल, उस असीम विस्तार को मान ले।
बहुत कुछ का मिला पता , पर असीम के भी पार क्या?
खोज से सुविधा मिली, पर असुविधा बन दूसरे की
जान ले सब कुछ उसका नाम तो ज्ञान ही,
नाम न आकार, स्थान विशेष पर रहता नहीं
पर सब कुछ जान लेना , क्या है इतना सहज ,
प्रश्न पर प्रश्न उठता , उपजता ज्ञान में है महज
विचार, कर्म देंगे अद्भुत ऊर्जा संवेदना?
न नाम न आकार स्थान- ज्ञात यह नहीं मानता,
उससे भी आगे और क्या? क्यों नहीं जानता।
पर भक्त की कल्पना ने नाम - आकार सब गढ़ लिए,
उसको लगा कल्पना ने संदेह सारे शांत कर दिए
संवेदना , अद्भुत ऊर्जा अनुभव में आने लगी,
इन्द्रियां शिथिल, शांत मन, दृष्टि दूर तक जाने लगी
विचार कहाँ से उपजता, कौन है जो बोलता,
वेदना आती कहाँ से, स्वयं को न तोलता
असीम विस्तार उसका, अज्ञान ढकता ज्ञान से,
अगोचर, असीम भला जान पायें कैसे उसे?
जिज्ञासा जानने की बलबती होती गयी,
उत्सुक जानने को सब कुछ , ज्ञान की महिमा यही
न जानना चाहे सब कुछ अज्ञानी बन केवल समर्पण,
सब कुछ जान सकता ही नहीं, बेकार जानना सब कुछ
उत्सुकता से केवल क्या जान पाया- सब कुछ क्या कहाँ?
पर अंत में देखा यही सब कुछ अधूरा ही रहा
समर्पण - गुलाम की सुन्दरता पर मुग्ध केवल ,
नहीं प्रयत्न उत्सुकता की कहाँ से कैसे और केवल
रंग रूप , उसका पाया जानने की जरूरत फिर कहाँ?
ज्ञान के प्रयत्न में परिश्रम का फिर अधिक मोल क्या?
समर्पण मात्र में शांत जिज्ञासा हुई,
बस महत्वपूर्ण, एश्वर्याशाली शक्ति वही
ब्रह्म कहलाती, ईश्वर खुदा, जो भी नाम दो
गोचर-अगोचर वही सब सामर्थ्यवान वो।
मन का सहारा इन्द्रियों के पार वह जा सके,
शक्ति इंद्रियों की सीमित, असीम कैसे पा सके?
खोज में. या समर्पण करे? चुनाव मानव करे
मन ही पहुंचा सके-कौन मैं? आया कहां से?
आत्मा का भान, मन ही करेगा।
साक्षात मोक्ष की चाह संभव करेगा।।
-२७-११-०९
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