अपने अपने ढंग से विद्वान् कहते -
" एक सद विप्र बहुदा बदंति "
एक सत्य , शेष सब है भ्रान्ति
स्वयं को न जान सके और क्या जाने भला?
में कौन- आया कहाँ से - भ्रान्ति या भ्रान्ति से निर्मित
इन्द्रियों से दीखता भ्रान्ति जब !
भ्रान्ति-आगे पीछे , ऊपर नीचे - में भी भ्रान्ति
के कारण ही भाष्ता ? असत्य - भ्रम केवल
बाद और प्रतिवाद करता - जो भी मिलता
उत्पनं - संवाद होता- भ्रान्ति क्या वह भी नहीं
" वादे - वादे जायते तत्व बोध "
सब कुछ भ्रान्ति है फिर इसका - उसका
मेरा - अस्तित्व कैसा ? भ्रान्ति तो असत्य है
अभिमान- यथा- कथित अभिजात्य वर्ग का -
पैर केवल वह उनमे नहीं मुझ में और तुझमें
भी भर गया है
स्वयं की पहिचान भूल- स्वयं भ्रान्ति बन गया में
प्रत्येक जन को - संबोधन प्रेम से वाणी द्वारा
भी भूल बैठा भ्रान्ति को सत्य मान
न छोटा - न बड़ा कोई - आभाव से सर्वमान्य
कैसे बने - भावना हो गयी प्रदूषित
सामाजिक सोहार्द - लोक व्यव्हार से बनेगा
भाद्र्भावना से मुक्त व्यवहार - हो धर्म का
पर्याय बनता
आभाव में सत्य दूर होता गया- सबसे अधिक
समीप गर कुछ था - या है वहन सत्य कैसे भाष्ता
सब का- सब के लिए बहन होने लगे-
सत्य की और कदम चलने लगे समझो -
निजत्व नहीं मोलिकता नहीं तत्व ही जब एक है
भिन्नता से उपजता दोष - अभिनता ही सत्य है
दीख पड़ती अद्भुत प्रतिभा- सर्वमान्य , पावन- प्रतिक
उच्चता - दीख पड़ती सत्य -
की और - अभाष - उसी से सत्यम शिवम् सुन्दरम का
ओम राघव
०९-१२-2009
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