Wednesday, November 4, 2009

संदेश

मुंडेर पैर बेठा कागा,
संदेश देता था कभी, उनके आगमन का ।
अब न संदेश आता,
काग के द्वारा न डाक के द्वारा,
बस गए दूर, या बीत-रागी हो गए ।
छोड़ दिया वह देश, संदेश आता था जहाँ से ,
दिन, ऋतुएँ और बर्ष कितने ही बीत गए ।
पर नही संदेश आया ।
अब न साहश, गिन सकें दिन, महीने साल युग,
लगता अब कितने युग बीत गए ।
मोह जो लीलता था, सांसारिक बना कर,
भला हो उनका, समझ ने समझा दिया ।
दूर कर मोह को, विरह ने वास्तविक बना दिया,
हर पल भला होने को तत्पर है ।
पर हमने ही हर पल को मलिन बना दिया ,
बने सकारात्मक सोच बनाती समझ,
जिसे जमाना बुरा समझता, भला उसमे खोज लेती ।
दृष्टिकोण ही बन जाता करना, देखना सबका भला,
भड़कीले शब्द चटक नारे , राजनीती को दौर की तरह ,
न आ आएं मन में कभी उनके लिए ।
संदेश देना था , उन्होंने दे दिया था , तभी अपने अस्तित्व से,
आज भी दे रहा संदेश न आना संदेश उनका ।
लाइन और प्रष्ट हो बेकार, अपने आचरण आदर्श से ,
संदेश बड़ा पहले ही मिल गया है ।
ओम राघव
२३-०८-09

3 comments: