Thursday, November 5, 2009

भग्न - पोत का तख्ता

भग्न -पोत से जुड़ी नाव का तख्ता बन,
युगों से बहता रहा हूँ ।
स्मृति यदपि उसकी कुछ नही ,
नही कल्पना, बोध कुछ होने लगा है ।
या फिर -
अकिंचन, रस-रंग गंध बिन, ऐसा कुसुम,
फेले हुए असीम विस्तार बन का ।
न देखा किसी विश्व मोहिन की आँख ने ,
न बना श्रृंगार, देवालय, न किसी प्रेयसी का -
भेंट या उपहार का संदेश ।
दूर रूप, रस, गंध से, मन बेल पर फूली रही है,
अहम् भावः तिरोहित, ज्ञान-राग-सम हो गया ।
फल, बन कुसुम का अवश्य ही उत्तम मिला,
तटस्थ भावः बना मन का आनंद दाता ही बना है,
श्रम-कर्म की खोज मन सब कहीं खो गई है ।
अब तो शान्ति की दिखती झलक ,
आनंद दाई बन रही है ।
दूर कहीं शोर- प्रदूषण से,
मंजिल नई मिल गई है -
भग्न - पोत का तख्ता सहारा ही बन गया है ,
चलता रहा है, चलता रहेगा -
किनारा बन, मिल कर नया है ।
तैरकर असीम सागर में ,
थकान को नही मानता है ।
बहते-बहते युग बीत जाऐ पर नही वह मानता है,
बहता रहा - बहता रहेगा,
किनारा जब तक मिलेगा -
किनारा ही मिला, अन्तिम सहारा जो बनेगा ।
ऑम राघव
२४-१०-०९



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