-ओम राघव
लगती जिन्दगी इक पहेली सी,
पिछले अंक की कड़ी है, सफर जीव का
रहा शेष कल का, भुगतान अब कर रहा,
ले-दे रहा शेष था जो किसी का
खोज पर पता शायद लगे, सिलसिला क्या ये नहीं
चला ये चक्र क्यों और कैसे
समझना कहां इतना सरल,
प्रथम जन्म के कर्त्तव्य रह गए थे अशेष।
जिन्दगी का जोड़ हर मोड़ बनता नव जन्म पर,
चाल जिससे जिन्दगी की सतत चलती रहे
आधार किसी संकल्प का जीव
पूर्णमानव हो गया।
न मिलता सामाजिक परिवेश जीव का क्या पशुवत न होता,
सिखाया समाज ने पीना-खाना चलना फिरना
वाणी दी भाषा अथाह धरोहर दी विचारों की
नहीं संभव था बिना समाज सब
कितना ऋण समाज का।
विचार व्यक्ति की महत्त या समाज की
फिर भी चला समाज निर्माण
व्यक्ति एवं व्यक्तियों के समूह से
व्यक्ति की उपलब्धि प्रगति सभ्यता लायक
बना समाज के लिए
समाज से ही सीखकर
व्यक्ति के बिना समाज समाज बिना व्यक्ति
क्या नहीं अधूरा एक-दूसरे के पूरक
महत्त्वपूर्ण समाज व्यक्ति विशेष के संदर्भ में
सब कुछ पहले सीखा समाज से
वर्षों बाद व्यक्ति ने दिया नई खोज नव विचार
मात्र दो या चार पर बातें हजारों के लिए
वह ऋणि समाज का
समाज की अवहेलना सोचना केवल अपना भला
कर दूसरों की आलोचना हित साधक बन
भूल जाता समाज भी उसे
था अमुक अंग-संग उसका।
प्रगतिवान-चरित्रवान सुन्दर या असुन्दर
कैसा है समाज करता क्या निर्भर उन प्राणियों पर
रहते जो उस समाज में
सार्थकता व्यक्ति के अस्तित्व की
कर्म समाज वास्ते बन शुभ उसका चिन्तन
दे समान अवसर रोजी-रोटी मकान
शिक्षा क्षमता बढ़ाए जिससे
समान अवसर प्रतिभा चमके स्वयं ही,
योग्यता आधार बन निरंतर समाज का
उत्कर्ष ही
जिन्दगी बनेगी एक निधि आपसी सहयोग
कष्ट बिना हो आसान जीना सभी का
दूसरे के सुख-दुख में बांट सके हाथ
मिले परम सुख शांति मन से तन से।
नियंत्रण करना आ गया मन के विकारों पर
समझो जीना जिन्दगी का आ गया।
जीओ और जीने दो का सूत्र और सुयोग
अगर पा गए स्वर्ग बन जाएगी धरा धाम ही
उपजेगा-सुख ही सुख चारों ओर
दूर भाग जाएगी कलह-दरिद्रता।
(01-05-02)
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kya kahu shabd kam pad gaye ........atisundar
ReplyDeleteLajawaab likha hai.......atisundar
ReplyDeleteadvait tumhari is koshish ke liye tumhein dheron badhai...apne dadaji ko anmol tohfa diya hai tumne.
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