ओम राघव
कभी कहकर , कभी देकर दुख , कल्पते हम सर्वदा ,
दैहिक, दैविक और भौतिक, ताप देते हैं सदा।
है कहीं दुख और सुख , ज्ञान में आए नही,
तव देव वह मानव, दुखों को ध्यान में लाए नही।
ना दुख कहीं ना सुख कहीं, हो तटस्थ होकर सोचना,
असर किंचित ना पड़े , चाहे वाणी विरस अशोभना।
परीक्षा मानव - मन की , दिन रात होती है सदा,
नही होना उनसे दुखी, मानस निखरे सर्वथा
दुख आया ध्यांन में, मानव शक्ति नष्ट हो सर्वथा,
शक्ति ही जब नष्ट करली, सोचते फिर भाग्य में ये ही बदा।
सुख- दुख का दाता न कोई, सहने की आदत आ गयी ,
स्वकर्म के सब फल मिलें, समझो की मंज़िल आ गयी।
आत्मसंतोष हो जहाँ, वहां कष्ट आता ही नही,
सोचने का फेर केवल, फिर अन्यथा होता नही।
हो चित में परोपकार- त्याग, जितना सुख मिलेगा,
सुखदाता शुभकर्म हो, तब दुख भला कैसे मिलेगा।
ईर्ष्या ही दुख की जननी है, जो दुख पाने का कारण है,
पर- प्रगति से प्रसन्न रहे, दुख का सही निवारण है।
विपरीत सोच बदलने से, कल्याण अवश्य हो जाता है,
परिश्रम हो- पर हित हो, परिणाम भला हो जाता है।
परिणाम गलत तो परिदृश्य भी गलत ही दिखता है
चिंतन में मिले स्वदोष पर विलोम सा लगता है।
गर भाव मन के ठीक रहे , कर्म स्वत् ठीक हो जावेंगे,
अनुकरणीय, आदर्श कर्म, पीढ़ी की लीक बन जावेंगे।
ठीक लीक पर पेर रखें, परिवार- समाज सुधर जाएँ,
राज्य , समाज स्वत् ठीक चलें, मंत्र मुखर हो जाएँ।
सुधरे दूसरा इस चक्कर में , नही सुधरना चाहते है,
समाज सुधार की आशा केसे? हर जगह बहाना चाहते है।
नत्थू ऐसा-फत्तू ऐसा, नाम अरे बदनाम किया?
जिनने समाज को भ्रष्ट किया, उसने ऐसा काम किया।
आदर्श यहां अनेक हैं, गर इच्छा सुधार की रखते है,
भारत भूमि , विश्वासी भी, ज्ञान की थाती रखते है।
निक्रिष्ठ सोच व करम बदलने है, पर कार्य कठिन सा लगता है,
हम दृढ़निश्चयी बन जाएँ, फिर नही कठिन कुछ रहता है।
जीवन के कई जन्मों की, परिणाम की जाली लगी हुई,
सहज उतर नही पति है, जन्मो की कालिख लगी हुई।
सुख संस्कृति का धरा जननी , महासागर स्वय समेटे है,
महमानव जिनसे आदर्श मिले, वे इसी धरा के बेटे है।
आज पुरषों के आदर्शकरम , गर जीवन मे धारें हम ,
यह धरा स्वर्ग ही बन जावे, काम, क्रोध, दंभ को मारे हम।।
15-03-2002
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पुरा का पुरा ज्ञान का भण्डार है ......दादा जी का ब्लोग अतिसुन्दर रचना
ReplyDeleteअनुकरणीय अतिकल्याणकारी चिंतन प्रस्तुत करने हेतु बहुत बहुत आभार.....
ReplyDeleteशब्द टंकण में कुछेक त्रुटियां रह गयी हैं,कृपया सुधार लें तो सोने पर सुहागा वाली बात हो जायेगी.
हो सके तो कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें...यह बड़ा ही असुविधाजनक है..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आभार रंजना जी सही कह रही हैं चोम्मेन्ट देने मे असुविधा होती है
ReplyDeleteSukh dukh jeevan ka hissa hain.
ReplyDeleteThink Scientific Act Scientific
रंजना जी और कपिला जी जैसे ही आप से पता चला वर्ल्ड वैरीफिकेशन हटा दिया। आशा है कि ऐसे बहुमूल्य सुझाव देकर मेरे जैसे नए ब्लॉगर का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
ReplyDeleteसुन्दर कविता और सरल शब्दों में जटिल रचना...
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