Wednesday, August 19, 2009

जीवन धुन्ध

-ओम राघव
याद करने पर भी, न वे क्षण लौटते न दिन
न वे बातें लौटतीं और न दादा-दादी नाना-नानी
न माता-पिता मौसी-बुआ का प्यार लौटता
लगता था सारा परिवार और रिश्ते बने हैं अपने लिए
याद आती टीस उठती कहां-कब कैसे गया चला
वह समय जो अब इतना दूर है
किशोर अवस्था खेलते-कूदते बीत गई
प्यार मिला, साथी मिले-जंगल पार्क में
उठते-बैठते
आई फिर स्वर्णिम युग सी लगती युवावस्था
लगता सदा रहेगा फैलता इसका प्रकाश
मिले विचार कहीं नींव पड़ी मित्रता की
कहीं पायी वैर-भाव ईर्ष्या की सामिग्री
अधिक कुत्सित और गर्हित विचारों की शृंखला
आदिम युग में भी न रही जैसी
सभ्यता विकास का ओढ़ रखा आवरण
विकास देखा पर मानवता देखी दूर जाती
पर समझा उसे स्वर्गिक प्रकाश रहेगा
स्थाई या फिर सामाजिक प्रवाह
नित नई सभ्यता की ओर उन्मुख
जब वह जीवन भी समझ न आया
एक अस्थाई पड़ाव
हुआ वह भी विदा
जैसे बचपन भागा छोड़कर
मात्र धुंधली सी यादें लगता
देखा था एक स्वप्न
यौवन की स्वर्ण अवस्था भी हो गई तिरोहित
देखकर कोई दिवास्वप्न जाग पड़ा जैसे गहरी नींद से
समय की गति चलती रही
जो चली है सृष्टि के पूर्व से ही
गति तेज हवा की गति से भी तेज
कैसे कटा?
मधुर स्वर्णिम लगा जीवन
बचपन युवावस्था और जरा
तीव्रतर रही जीवन की गति
आवृत्तियां मात्र मधुर व कड़वे फलों की
वायु की गति न गलती वैसी क्षणिक
जैसी लग रही समय की तेज गति
जो हृदय को इतना सालती
कोई निशां छोड़ आई है नहीं लगता
चीर डाले नहीं तो हृदय के तन्तुओं को
वाहन यान वायु बह रहे हैं आज भी
देती हैं तारोताजगी वैसी ही-जैसे
मां ने लिया हो प्रथम बारी गोद में
जीवन कितनी दर्दीला क्षणिक
पग-पग पर होता अहसास
गया चला कितनी दूर
वह स्थान वह प्यार संबंध मधुर
अब दिखे जो मात्र धुंध ही
हर खेल जीव का, एक लम्हा-एक बुलबुला
कैसा जीवन- कैसा मरण।
कब-किस युग से चल रहा यह चक्कर जीव का
मिले स्थाई मुकाम क्योंकि नहीं ये अंतिम
मुकाम सोचते जो अंतिम परिणाम इसे
भटकाव उनका दूर मंजिल ही रहेगी
और रहेगी परिणाम में केवल जीवन धुन्ध।।
(3 नवम्बर2005)

1 comment:

  1. bahut hi dil ke karib laga jo kabhi kabhi mai wyakt nahi kar pata hu..........atisundar rachana

    ReplyDelete