Monday, August 10, 2009

कालखंड

-ओम राघव
हो सकता है, काल खंडित, क्या हम ऐसा मान लें,
बंटा क्षण-पल घट ध्वनि में ऐसा जान लें।
पहर दिन रात सप्ताह, पक्ष महीना मान लें,
वर्ष ऋतुएं जन्म बचपन युवा मृत्यु जान लें।
शताब्दी युग-कल्प वायु प्रकाश गति से जान लें,
काल को कर लें विखंडित, और खंडित मान लें।
ठहरा कहां द्रुतमान कब, यह नहीं हम आंक पाये,
कलयुग द्वापर आदि युग जिसे नहीं बांध पाये।
कालखंडित नहीं, समाजिक व्यवस्था चल सके,
समझकर की है व्यवस्था, मानव आवस्था पल सके।
मानव जीव की केवल, व्यवस्था यह नहीं है,
प्रकृति के हर अंग में, यह व्यवस्था पल रही है।
निश्चित गति में, पृथ्वी चांद सूरज चक्कर लगाते हैं,
ब्रह्मांड के ग्रह अन्य भी स्वर में स्वर मिलाते हैं।
प्रतिपल जीव की धड़कन यही संदेश देती है,
न लांघो सीमा समय की, यह संदेश देती है।
विभिन्न व्यवसाय, कल कारखाने, समाजिक व्यवस्था के इदारे,
समय-सीमा में चलें मानव जीवन के सहारे।
निर्माण प्रगति में हो सहायक, अधिकांशतः होता नहीं,
बहुधा काल का प्रयोग सद्पयोगमय होता नहीं।
शुभ अशुभ कहते कभी, काल है मंडित नहीं,
प्रकृत गति अपने बांटने से ही काल है बंटता नहीं।
बांटने से काल व्यवस्था दिख सकती है,
काल नहीं है खंडित, वह आदि शक्ति है।
काल एक विचार शक्ति, सृजन पालन करता है,
एक महायुग में रह कर सृष्टि विसर्जन करता है।
होने से प्रेरणा काल की, सृष्टि कर्म चल पड़ता है,
जीवजंतु ग्रह आदि का, उद्भव कर्म बन पड़ता है।
जीव प्रकृति ग्रह आदि काल को माप रहे हैं,
सूर्य चंद्र मंडल सौर, उसीको जाप रहे हैं।
है जब तक अग्यान, रहे काल माया का चक्कर,
हो जाए जब ग्यान, तभी हो सत्य का दर्शन।
रहे वेद ग्रंथि में जीव, अग्यानी भ्रमित होता,
प्रतिभासित ये कालखंड, युगों-युगों तक भासित रहता।
खुलें अंतक्षचु पड़े न दीख काल माया की सूरत,
समझ पड़े जैसे ही ग्यान, खंडकाल की न पड़े जरूरत।
बाद प्रतिबिम्ब सत्य देखता कालखंड नहीं है,
दीखे साश्वत स्वयं व्याप्त और अखंड वही है।
न आना जाना कहीं, न दिन और रात कहीं है,
सत्य युगों से बोला था, जो ब्रह्मानंद वही है।
दोहा
आ जाए जब ग्यान, कुछ भी रहे न भिन्न,
अन्तर चक्षु जब खुल गए, सबकुछ लगे अभिन्न।
(29-03-2001)

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