ओम राघव
बहता जहाँ दिव्य झरना
ऊँचे पर्वत की श्रेणी पर
हर तृषित जीव वहाँ चाहता जाना
कर सके मन आँख शीतल डुबकी लगा
ताकि हो सके आंनद मय जीव
चलने की नही जब तक तीव्र इच्छा
अधिकांशत मुश्किल होता है चलना ही
सीढ़ी प्रथम चढ़े स्वयं नर
यह संस्कार बस ही होता
है कठिन मंज़िल दुरूह , फूलती साँस
चला ना जाए अनवरत निरंतर चलता
ध्यान , खेल कभी समझ ना आता
मन चन्चल कपि समान
दूर तक दौड़ा जाए उछल कूद कर पर
अटल अचल ही मन जीव का साथ निभाए
उसकी कृपा से बने ध्यान
एकाग्रता मन की हो जाए
छोर सीढ़ी का मिले पगडंडी
मिले मंज़िलें दिव्य झरने की
हो जाए आसान पहुँच प्राणी की
अनवरत चल कर ही सुन पड़े अनहद नाद उसीका
आनन्द मय दिव्य झरना
बहा जा रहा युगों -युगों से
पुकार रहा हर मानव को
चलना ही नही चाहता
देख भयनक राह मुड़-मुड़ आवे जीव
खा रास्ते की ठोकर
हाथी चीते रीछ भयानक
मिले राह में
अंजानी होती राह या फिर भूली जो लगाती
हज़ारों टक्कर
मन कचे के साथ ना बन पाएगी बात
मार्ग कठिन मंज़िल फिर कैसे आएगी
बिगड़े मन सभी रास्ते और ठिकाने
उल्टे सीधे करता यत्न और इच्छाएँ पाले
ये ठीक रास्ते ना दे जाने
जो मार्ग पकड़ा सही नही छोड़ा जाता है
पुनः वहीं चंचल मन को जोड़ा जाता है
मिले देखते धार दिव्य झरने की
मन डूबे उतरावे निरत सुरत में
धन्य ही हो जावे फिर जीव
हो जाता मार्ग मंगलमयी
थकान ख़त्म युगों युगों की .
दोहा
आनंद ही आनंद है एक बार मिल जाए।
कृत्रिम दुनिया के आनंद है यहां ठिकाना नाय।।
१३-०५-२००१
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