Wednesday, August 12, 2009

चलते फिरते लोग

-ओम राघव
चलते-फिरते, हाड़-मास के बने मगर कार्टून
बने गुलाब, मधुर रक्ताभ कोई, रीत गए
कितने वंश पीढ़ी दर पीढ़ी न देखा अवसान दिन का
रात्रि का बीत गया कब पहर, ऐसा श्रम किया।
अग्यानता या विवशता
न होता गर इनका श्रम,
विकसित होना तो दूर
कठिन होता विकासशील रहना भी
संतोष भाग्य को निर्णायक मान न दिया किसी को दोष
भले ही हो गया शीलहरण
भोले पक्षियों को बहलाना फुसलाना आसान है
दिखाते उन्हें रहे दिवा स्वप्न
बढ़ाते सामाजिक राजनीतिक प्रभुत्व अपना
फूट वैमनस्यता का बीज बो
धर्म की बातें न सिखा-सिखाते अधर्म ही
कहते धर्म वह -जो वे सिखा रहे सरताज बनकर
विग्रह से तो टूटेगी प्यार की रस्सी ही,
न्योता देगी जो अवांछित क्रांति को
जगती सारी बच सके भारी विनाश से.
संभलो-संभलो कर्णधार देश के
प्राथमिकता हो-मानसिक, शारीरिक आर्थिक
व्याधियों से मुक्त हो समाज
अवश्य ही ऐसी योजना हो।
(5 दिसंबर 2005)

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