Tuesday, September 22, 2009

सुपात्रता

ओम राघव
अधर्म रत मन करता आमन्त्रण विपदा का
नहीं हो सकता उपचार किसी औषधि से मनका.
शरीर नहीं मन नियंत्रण हो सके जिसका।
संचित सम्पदा से होते हैं प्राप्त अनायस अवसर भी
कुमार्ग से संचित संस्कार ही जीव को रोकते।
जिसे कहते शुभ या मूल्यवान पड़ा, होता सुषुप्तावस्था में,
रतन, मोती, सोना, चांदी खनिज आदि बिखऱे पड़े न दीखते,
होते नजरों से दूर पड़े रहते दीन बुरे हाल में
गहराई में जाने पर ही होते हैं सुलभ
प्राप्ति पर ही दिखाई देने लगती है उनकी सार्थकता
उनकी शुभता और मूल्य भी
आंतरिक प्रकृति भी पड़ सुषुप्ति अवस्था में
जाग्रत हो सके सुलभ है ग्यान विग्यान लोक परलोक भी
संचित सम्पदा भी ले चलती जीव को
जहां उसका जाना अभीष्ठ है,
प्रथम चरण मूर्छा से जागना विकसित हो सुपात्रता
तब सभी कुछ सहज है,
चेतना की उच्चस्तरीय संवेदना ही कहलाती ब्रह्म है
पात्रता के अनुरूप ही सुलभ होते परिणाम है
लक्ष्य बड़ा चाहिए पात्रता की बड़ी उत्कृष्टता
गुरु की आत्मा परमात्मा की प्राप्ति
सुपात्रता के चलते अवश्य होती सुलभ है
विकसित सुपात्रता से भी सभी कुछ सहज है
उत्तरदायित्व किसी अन्य का नहीं
स्वयं ही विकसित करनी है सुपात्रता
स्वतः ही देख लोगे क्या क्यों आना जीव का
आभास होने लगेगी अपनी अमरता।
(०६-०९-०९)

2 comments:

  1. aapki kawitao ka bhaaw mere antas me uatar jata hai jaha bahut kuchh khubsoorat hai bilkul prakriti ki tarah.........badhaayi

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  2. जीवनोपयोगी कल्याणकारी चिंतन.......

    प्रस्तुति हेतु आभार..

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