-ओम राघव
कभी घऱ द्वार आंगन समाज
खेत जंगल श्मशान
लगते थे अपने सभी
थोड़े समय का साथ ही जिनका मिला
वे सब ही गुम हो गए।
लगता वैसा कुछ अस्तित्व में था नहीं
स्वप्न भर लगता अब तो
देखा पिछले किसी जन्म का
बड़ी पीड़ा लगी बरसों सालती रही मन को
छूटे या छोड़ना पड़ा, पर सिलसिला जीवन भर चलता रहा
स्थान दर स्थान रह-रह छोड़े
जीवन के हर मोड़ पर
विदाई का सिलसिला चलता रहा
स्थाई कोई मुकाम होता नहीं
जीवन का यही अनुभव रहा
पर मन चाहता स्थायी मुकाम
शान्ति जिससे मिल सके
स्वप्नावस्था को हम क्षणिक मानते हैं
जाग्रत अवस्था स्थायी करके जानते हैं
भेद जीवन मृत्यु का सा पर दोनों एक से हैं
मन के सारे खेल, स्थूल-सूक्ष्म शरीर को साथ ले खेलता है
जीव को लपेटता है
लगता बंध गया इनके मकड़जाल में
हर जन्म ले जीव खेल यही खेलता है
चाहता है पार जाना, पर प्रतीती को न मिथ्या मानता है
स्वप्न मिथ्या भ्रम मिथ्या, माया जो चाहे नाम दो
नाम रूप को जो मिटाना जानता है
फिर ब्रह्माण्ड में अनेक हलचल और प्रतीती
प्रकृति सबको स्वप्नवत मिथ्या मानता है
तत्व केवल एक ही जब जानता है
स्वयं को परमात्मा का अंश नहीं
परमात्मा ही मानता है
तभी वह अपने गलत कार्य के लिए
दोषी स्वयं को मानता है
कार्य कर अच्छे सुधरना जानता है
पहचान पाता है ब्रह्मांड कुछ और नहीं
वही सारा ब्रह्मांड है-तभी
सबसे प्रेम करना जानता है
एक तत्व की एक सत्ता की
स्वयं ही पहचान होती
मोह माया स्वप्न का वह
स्वयं जिम्मेदार है
भ्रम हटा शान्ति मिली
वह मोक्ष को पहचानता है।
(२७-०८-०९)
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सुन्दर सात्विक चिंतन......
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