Saturday, August 22, 2009

यह कौन अन्तःकरण

ओम राघव
भेद बन नाम रूप, सत्य कहीं जा कर छिपा दिया था,
अगर प्रकट सत्य हो, फिर कहाँ कैसा तिमिर था
नाम रूप स्वर्गिक छवि, प्रकटत: जिसे देखा हुआ,
अंत: प्रेरणा ही सत्य है, तब एसा नही समझा गया
आंनद प्रसूत अंत: प्रेरणा से, कुछ काल तक मिलता रहा,
समझ से दूर था वह, यह आनन्द रहे क्या सर्वदा ?
निज समझ से प्रसूत ग्यान, पर जिसे माना नही,
मानते गर तथ्य उसको, मार्ग साधन का सही
ना समझ या समझ कारण, एक व अनेक थे,
वातावरण या स्वयं दोषी, या समाजी दंभ थे
सत्य मे बाधक रही, स्व, गृहीत, कुत्सित भावनाए,
बनी जीवन की कारण, मानसिक -देविक यातनाएँ
हर शुभ जीवन के लिए, गुण -कर्म राह को ठुकराना,
न उनका अनुसरन किया, न अंतर का निर्देशन माना
सुन्दर आदर्श निर्देशन, कौन समझ तब पाता है,
समझे पूर्व संस्कारों बस, वही गुणी व्यक्ति कहलाता है
हक़ीकत बन छण बेला सी, बन स्वप्न, समझ आता नही,
अंतर की स्पष्ट समझ, तब तिमिर जगत रहता नही
लगता जब सत्य असत्य, कभी असत्य सत्य सा लगता है,
क्षण बदले लगे सत्य असत्य, वह न सत्य हो सकता है,
सत्य की भाषा पहचान सहज, जो एक रस सर्वदा रहता है,
घटता है न बढ़ता और न बदलता है, वह एक सर्वदा रहता है
क्षणिक मिली रोशनी से, त्रशा-तिमिर बुझती नही है,
हरकोण से जो जगमगाए, और स्थायी जलती रही है
वह निरंतर जल सकेगी, बाल-पन से अभ्यास चलता हो,
अनुकरणीय हो अंत: प्रेरणा, बस उसी का ध्यान रहता हो
संदेश वर्षो बाद भी, प्रकाश मुझ को दे रहा है,
दूर करता हर तिमिर को, आस पास मे घिरता रहा है

दोहा
आत्मा अंत: करण से, देती है आदेश ,
सत्य उसे मान लो, समझ बड़ा उपदेश

फिर तेरा कल्याण है, दूर नही फिर देश,
दर-दर तलाश में, घूमा देश - विदेश

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