Tuesday, August 4, 2009

उद्बोधन-1

-ओम राघव
काश, धरा से ऐसे अमृतधारा फूट पड़े
कलह-द्वेष-विष, दुष्कर्म कहीं न दीख पड़े।
इस धऱा पुण्य पर सदा, सुख-शांति की सरिता बही रहे
सारा समाज सुख सुविधा से, सदा फूलता फला रहे।
हों धर्म पारायण सब नेता, जनता धर्म पालने वाली हो,
स्त्रियां सद आचरण हों, मर्यादा रखने वाली हों।
सामाजिक बल नैतिक शिक्षा, जब नारी को मिल जाएगी,
तब सभी क्षेत्र में मानव जाति, प्रगति के पथ पर आएगी।
माता, बहिना अबला का, सहयोग चरित बल साथ में हो,
कार्य योजना सफल रहे, पारंगत क्षेत्र हाथ में हो।
वर्ग व्यवस्था ऐसी हो, जहां राजा-प्रजा भाव न हो,
मिलकर रहें जिग्यासू जन, कोई द्वेष स्वभाव न हो।
शुभ नैतिक आचरण नहीं, जब तक क्रिया में होंगी,
भ्रष्टाचार आतंकवाद के नाटक बंद नहीं होंगे।
अहित सोच हिंसा करना, अन्त में काम न आते हैं।
आप्त पुरषों के आदर्श पर, चले नहीं सत्ताधारी,
जनता ने जिनकों सौंपी थी, सत्ता की जिम्मेदारी।
प्रभुता पद कुर्सी पाकर, प्रगट पर अभिमान किया.
बहलाई जनता शब्दों से अपना ही कल्याण किया।

1 comment:

  1. अपने नेताओं को इस व्यंग से सबक लेना चाहिए

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