Monday, July 27, 2009

विरह गीत

-ओम राघव
हम रोते रह गए महफिल में, तुम गाते-गाते चले गए,
फिर याद न तुमने हमें किया, बस हमें रुलाते चले गए।
दिन-महीने फिर सालें बीतीं, याद तुम्हारी खो न सके,
चुपके-चुपके आहें भर कर, खुल कर भई हम रो न सके।
काश, ये दिल की गहराई, ये दिल भी तुम्हारा जान सके,
संतोष करेंगे यह सुनकर, ना काबिल समझकर चले गए।
हम रोते रह गए...
दिन भी देखे रातें देखीं, जाड़ा और बरसात यहां,
गरमी की ऊष्मा भी देखी, पर मन को संतोष कहां।
गर आज अचानक आ जाओ, वर्षों का सिंचित प्यार यहां
सभी लुटा देंगे तुम पर, गर दे एक नजारा चले गए।
हम रोते रह गए...
( 24 मई 1965 को लिखा गया यह गीत भाग्यविधान उपन्यास से है, जो 1966 में प्रकाशित हुआ)

4 comments:

  1. बिरहा के बोल हैं मन को व्याकुल करने वाले ! अति सुन्दर !!

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  2. बहुत भावुक रचना है / अत्ती सुंदर

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  3. ... बेहद प्रभावशाली व सुन्दर गीत !!!

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