Thursday, April 29, 2010

दादा जी की 100 वीं पोस्ट

उच्चतम - दर्शन
ओम राघव
मन एक ही भूत करे विश्व की सत्ता में समाहित,
अभिन्नता मात्र न मिलता कुछ भी रहे लक्षित।
न रहे भय कोई अपनों से डर कहां अभिन्नता में,
दर्शन एकता का ही बन जाए अनेकता में।
सारा विश्व इंद्रियों में लिप्त जीव को भौतिक लगेगा,
बुद्धि से परिष्कृत मानव आत्माओं के समूह में दर्शन करेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि जिसकी विराट रूप ईश्वर लगेगा,
पाप के गर्त में गिर रहा उसे विश्व गर्हित ही सुन्दर लगेगा।
खोजी सतत आत्मा का स्वर्ग सा उसको लगेगा,
अंत हो जब सारी सांसारिक वासनाओं का
नश्वर मानव ही विराट ईश्वर बनेगा।
न खोज करनी सत्य सत्ता की,
न रूप से परे भ्रम का जाल टूटेगा,
यही बना उच्चतम दर्शन हमारे ज्ञान का,
अमीर-फकीर राजा रंक खाक में मिलते ही
मुट्ठी भर राख में भेद कहां होता नहीं
भौतिक दृष्टि भी बतलाती यही
भेद ही है जड़ सारी कलुषित विपन्नता की।
(०६-०४-१०)

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