Monday, November 23, 2009

विडम्बना

ओम राघव
असल जिन्दगी से कुछ परे-परे सा
सरल सीधे बन्द रास्ते दिखते हैं
है दूर भाव विचार बोध, आम आदमी का जिनसे
समझता आकाश की बातें
साइबर दुनिया की बातें
हर मंगल अमंगल स्वाद की बातें
मगर होरी के लिए ये आज भी हैं परीलोक की बातें
यंत्रवत कर्म-अकर्म कर, न सुध फिर पड़ोस परिवार की
विकास की दौड़ में खुदगर्ज मानव हो रहा
समभाव का रोना, नाते-रिस्ते सब गौण हो गए
इच्छा बलवती दिन-रात सम्पत्ति बढ़ाने में लगी
प्रेम का पैमाना ही मात्र धन हो गया।
न अन्नाभाव, न जलाभाव, निर्धन अशिक्षित रहे न अकिंचन कोई
दरिद्रता न दिखाई देगी किसी ओर
उद्घोष चुनाव समय करते नेता दीखते चारों ओर
कृत्रिम अभाव आवश्यक वस्तुओं का कर
जिन्दगी दूभर बनाई आम आदमी की
सब हों सुखी निरापद, निष्कलंक सदाचारी
फिर जिम्मेदारी किसकी?
विकसित होना सुन्दर लगे सबको,
कली से विकसित फूल सजाता प्रसाद, मंदिर मस्जिद समाधि आदि
उसकी उपयोगिता का दायरा बढ़ाता है
विकसित हों शहर कस्बे, गांव प्रकृति को रंजित बनाता है
अवश्य ही लगता भला हर प्राणी और जीव को
पर फूल कुछ विकसि, होने से पहले तोड़ लिए जाते हैं
मसलते अरमान, छीनते सुहाग, सिंदूर मंगलसूत्र का
रक्षा सूत्र भी बनते विडम्बना इस कथित सभ्य समाज की
घृणा मूलक, उन्मादी भावाशेष बिगाड़ता समाज
और वातावरण विश्व का
धन हो रहा इकट्ठा, सीमा न हो जिसकी
तृष्णा बढ़ती रहेगी
संतोष धन नहीं जब तक पास आपके
विकास करने को धन मिला न लगता विकास में
बनता कारण कितनी विडम्बनाओं का
कहां तक गिनाएं उन्हें, भ्रष्टाचार लीलता विकास को
रोकने को तन्त्र कितने, पर फिर भी रहता है चरम पर
पुलिस तंत्र विशेष गुप्त रक्षातंत्र न्याय तंत्र अनेक बने
सीधा स्वस्थ शिक्षित व्यक्ति ही लाचार बने
भारी व्यय प्रशासन-व्यवस्था पर समाज की सम्पत्ति का
फिर वही समाज रहे दूर सुरक्षा न्याय सेवा साधन
रोने पर भी असहाय बना आम आदमी
विडम्बना पीड़ा बनाती हत भागिनी
और इसे क्या नाम दें,
आज के आदमी की खोज महामानव के लिए हो रही
पता नहीं अस्तित्व है भी उसका
आवश्यकता अविष्कार की माता है
विडम्बना बन रही आधार जिसका।
१५-०९-०९

Sunday, November 15, 2009

आम आदमी

ओम राघव
प्रकाश के पीछे अंधकार का ज्वर,
कर्म के लिए प्रतिरोध का स्वर
लौट आती आवाज टकराकर
दूर कहीं क्षितिज से।
होने या न होने का प्रश्न, प्रतिरोध बनता,
हो सादगी से सोंदर्यबोध, दूर होता,
वैचारिक दृष्टि में भिन्नता ही दीख पड़ती।
स्नेह मिलन कैसे, लोभ संवरण व्यवधान बनता।
संसार से मोह, लालच जीवन और जीने का लालच
मौत का भय, अंधकार आवरण बनता।
उत्सुक निगाह, करुण कहां किस के लिए?
कृत्रिम रोग में हम रंग गए हैं,
सादगी के सौंदर्य का बोध कैसे
और ऊंचा उठने का, ऊपर आकाश में उड़ने का।
आनन्द न देने देखता, आनन्द सादगी का।
उठते तभी प्रतिरोध के स्वर।
विचार भिन्नता, द्वंद्व युद्ध ही पैदा करे,
युद्ध वाहक न बनते शांति निर्माण के
मानव हितेषी नहीं होती युद्ध की विभीषिका?
आदर्श अनुशासित बने समाज की व्यवस्था
फिर रह जाती कोरी कल्पना
नैतिकता न्याय आर्थिक समानता
बनते अनैतिकता अन्याय असमानता मूलक
हो जाता युद्ध अनिवार्य वहां।
समझते न मूल्य जब नैतिक संवाद के
डरपोक बुजदिल बना मोह संसार से जीवन की लालसा में
नैतिकता समाज की तत्व ऐसे
प्रज्वल्लित करते प्रतिरोध का स्वर ही
समाज, राज बिगड़ता पीठ ठोकी जाती
अव्यवस्था भ्रष्टाचार निदान कैसे हो उनका
आदर्शहीनता अनुशासनहीनता को ही
जब प्रगतिशील उसे मानते
सीधा सरल आदमी आशा करे
आदर्श व्यवस्था की
पर होती कहां सुलभ आम आदमी को।
(२३-०९-०९)

Thursday, November 5, 2009

भग्न - पोत का तख्ता

भग्न -पोत से जुड़ी नाव का तख्ता बन,
युगों से बहता रहा हूँ ।
स्मृति यदपि उसकी कुछ नही ,
नही कल्पना, बोध कुछ होने लगा है ।
या फिर -
अकिंचन, रस-रंग गंध बिन, ऐसा कुसुम,
फेले हुए असीम विस्तार बन का ।
न देखा किसी विश्व मोहिन की आँख ने ,
न बना श्रृंगार, देवालय, न किसी प्रेयसी का -
भेंट या उपहार का संदेश ।
दूर रूप, रस, गंध से, मन बेल पर फूली रही है,
अहम् भावः तिरोहित, ज्ञान-राग-सम हो गया ।
फल, बन कुसुम का अवश्य ही उत्तम मिला,
तटस्थ भावः बना मन का आनंद दाता ही बना है,
श्रम-कर्म की खोज मन सब कहीं खो गई है ।
अब तो शान्ति की दिखती झलक ,
आनंद दाई बन रही है ।
दूर कहीं शोर- प्रदूषण से,
मंजिल नई मिल गई है -
भग्न - पोत का तख्ता सहारा ही बन गया है ,
चलता रहा है, चलता रहेगा -
किनारा बन, मिल कर नया है ।
तैरकर असीम सागर में ,
थकान को नही मानता है ।
बहते-बहते युग बीत जाऐ पर नही वह मानता है,
बहता रहा - बहता रहेगा,
किनारा जब तक मिलेगा -
किनारा ही मिला, अन्तिम सहारा जो बनेगा ।
ऑम राघव
२४-१०-०९



Wednesday, November 4, 2009

संदेश

मुंडेर पैर बेठा कागा,
संदेश देता था कभी, उनके आगमन का ।
अब न संदेश आता,
काग के द्वारा न डाक के द्वारा,
बस गए दूर, या बीत-रागी हो गए ।
छोड़ दिया वह देश, संदेश आता था जहाँ से ,
दिन, ऋतुएँ और बर्ष कितने ही बीत गए ।
पर नही संदेश आया ।
अब न साहश, गिन सकें दिन, महीने साल युग,
लगता अब कितने युग बीत गए ।
मोह जो लीलता था, सांसारिक बना कर,
भला हो उनका, समझ ने समझा दिया ।
दूर कर मोह को, विरह ने वास्तविक बना दिया,
हर पल भला होने को तत्पर है ।
पर हमने ही हर पल को मलिन बना दिया ,
बने सकारात्मक सोच बनाती समझ,
जिसे जमाना बुरा समझता, भला उसमे खोज लेती ।
दृष्टिकोण ही बन जाता करना, देखना सबका भला,
भड़कीले शब्द चटक नारे , राजनीती को दौर की तरह ,
न आ आएं मन में कभी उनके लिए ।
संदेश देना था , उन्होंने दे दिया था , तभी अपने अस्तित्व से,
आज भी दे रहा संदेश न आना संदेश उनका ।
लाइन और प्रष्ट हो बेकार, अपने आचरण आदर्श से ,
संदेश बड़ा पहले ही मिल गया है ।
ओम राघव
२३-०८-09