ओम राघव
२०वीं सदी की अपनी कुटिया छोड़,
चला गया अपनी निकट की रिस्तेदारी में
फासला दो दहाई मील का
गांव का नक्शा पहले जैसा न था।
थोड़ी सी पहचान ही बची थी
जाना जिससे रिस्तेदार के आवास का पता
निकट से देखा, लोग अजनबी से दिख रहे
मैं भी बना था अजीब जिनके लिए
द्वार से पहले निकट के मामा जी दिखे
पहंचाना गले लग फूट-फूट कर रोने लगे
बोले-लाला, भाई भावज, घर वाले
सब मेरे दुश्मन हो गए, सभी ने नाता कब का तोड़ दिया
श्राद्ध-संस्कार तक न मेरा किया
मैं चौंका यह तो मामाजी की मृत रूह है
लिपट कर जार-जार रो रही थी
कठिनाई से छोड़ उनको बढ़ चला द्वार की ओर
मिल दिल को तसल्ली दे सकूं
बाहर ही गैस का चूल्हा जल रहा था, आगे आंगन में भी वही दृश्य था
और आगे तीसरा चूल्हा जल रहा था
सभी अपने-अपने परिवार के साथ बैठकर वार्तालाप कर रहे थे
दुनिया की खुशहाली अपनी बता खुश हो रहे थे
मुझे पहचानना तो दूर सभी घूरते थे
अनजान की स्पष्ट झलक थी सबके चेहरे पर
लगता था कोई भूत उनके घर पर आ गया है
पहन कर वस्त्र पुराने सौ साल के
चाय-पानी खाना तो दूर पहचान से कर रहे थे इनकार
नाम बुजुर्गों का लिया, जिन्हे मैं जानता था
ढेर स्नेह जीवन में मिला था
बोले-यह नाम हमारे पड़दादा जी का था
भाषा समझ से तुम्हारी परे
अवश्य ही कोई ठग या बहरूपिया हो
न आपको देखा और नाम भी न सुना
अब रुकना संभव न था
आगे चल गांव पर एक नजर डाल लूं
शायद कोई निशानी बची हो
जिनकी यादें अभी शेष हैं
बिजली-डिश टेलिफोन आदि के तार न थे
सड़कें लापता थीं
कंप्यूटर भी गायब हो चले थे
मात्र उनका जिक्र लोग कर रहे थे
अन्य देशों के समाचार नेता अभिनेताओं
से अलबत्ता बातें कर रहे थे
आधुनिक माने जाने वाले यंत्र के बिना
सब कुछ अजब-गजब था।।
साहस कर एक आदमी से बात की
बोला-हां इस नाम के आदमी इस गांव में थे
पर वह कबके परलोक सिधार गए
सुना था बड़े मिलनसार थे
रिस्तेदार तो रिस्तेदार होता ही है
अजनबी की भी दूध-घी से खातिरदारी करते थे
पर वह तो चौथी पीढ़ी के इनसान थे
तुम बात कब की कर रहे हो
आप उनके निकट की पीढ़ी के रिस्तेदार हो
इतने साल बाद अपनी ननिहार आये हो
आपकी खातिरदारी मैं करूंगा
और गांव को बदनामी से बचाऊंगा
ये तो इंटरनैट, रोबोट, सुपर कंप्यूटर के जमाने के युवा हैं
न जरूरत पुस्तकों की, न कभी हाथ से काम किया
जब स्वार्थ था कुछ पाने का
वह कब का खो गया है
भविष्य ही केवल बचा है
अपना-पराया न शेष है
यह २२वीं सदी है।
(०९-०२-१०)
Friday, February 19, 2010
Tuesday, February 16, 2010
श्रेष्ठ सत्ता
ओम राघव
श्रेष्ठ को समादर चाहिए
मन, वचन, कर्म की शुद्धि
उत्पन्न वासनाओं से मुक्त इंद्रिया बनें
अंतर्मन में बिठाने से पूर्व
श्रेष्ठ सत्ता को उपयुक्त स्वच्छता चाहिए
शांत शीतल सात्विकता का
बाहर भीतर चहुं ओर समावेश चाहिए
तब होगी प्रतिष्ठित और प्रकाशित आत्मा
हर साधन की बने सफलता,
मानसिक पवित्रता
सामन्य मनो भूमि के लिए
भ्रांतिया अवांछनीयताएं दूर हों
श्रेष्ट सत्ता की ओर उन्मुख हो सकें
विद्यमान है उसकी सत्ता
जब जड़ चेतन सभी में
सोच ऐसी भी फिर क्यों बने
उपस्थित नहीं देवालय गिरजाघर प्रतिमा में
सामान्य मन मस्तिष्क ध्यान न कर सकें
उपयुक्त स्वच्छता मन वचन क्रम से
श्रेष्ठ सत्ता को आसीन करने के लिए
बने श्रेष्ठतर मनोभूमि समर्थ फिर
स्थापित करने में श्रेष्ठतर सत्ता को
अपने अंतर में।।
(०५-०२-१०)
श्रेष्ठ को समादर चाहिए
मन, वचन, कर्म की शुद्धि
उत्पन्न वासनाओं से मुक्त इंद्रिया बनें
अंतर्मन में बिठाने से पूर्व
श्रेष्ठ सत्ता को उपयुक्त स्वच्छता चाहिए
शांत शीतल सात्विकता का
बाहर भीतर चहुं ओर समावेश चाहिए
तब होगी प्रतिष्ठित और प्रकाशित आत्मा
हर साधन की बने सफलता,
मानसिक पवित्रता
सामन्य मनो भूमि के लिए
भ्रांतिया अवांछनीयताएं दूर हों
श्रेष्ट सत्ता की ओर उन्मुख हो सकें
विद्यमान है उसकी सत्ता
जब जड़ चेतन सभी में
सोच ऐसी भी फिर क्यों बने
उपस्थित नहीं देवालय गिरजाघर प्रतिमा में
सामान्य मन मस्तिष्क ध्यान न कर सकें
उपयुक्त स्वच्छता मन वचन क्रम से
श्रेष्ठ सत्ता को आसीन करने के लिए
बने श्रेष्ठतर मनोभूमि समर्थ फिर
स्थापित करने में श्रेष्ठतर सत्ता को
अपने अंतर में।।
(०५-०२-१०)
Saturday, February 13, 2010
व्यवधान
ओम राघव
व्यक्ति विशेष की परख करते हम
अपने आदर्शों के अनुरूप
दूसरे द्वारा माने जाने वाले देवता को
देखते परखते या माप करते
अपनी धारणा से तय देवता से
दूसरे के माने जाने वाले आदर्श से
करते परख अपने द्वारा धारण आदर्श से
बनता जो अनबन का व्यवधान आपसी सामन्जस्य का
प्रवृति और निवृत्ति कर्म का मूल और
धर्म का प्रारम्भ मानते हैं
शुद्ध अजर अपरिणामी परमात्मा कहां कैसे?
पर भेद हमने गढ़ लिया है।
मात्र अपना ही दृष्टिकोण थोप कर
शरीर यह कन्या समान हमको मिला
पालन-पोषण करना जिसका बखूबी
पर नहीं कभी अपना मानना
निश्चिंत अगर होना चाहते
शरण भगवान की उसको सोंपना
ध्यान विदाई का रहे सदा शरीर अपना नहीं
व्यवधान फिर कैसे रहेगा?
(०३-०२-१०१०)
व्यक्ति विशेष की परख करते हम
अपने आदर्शों के अनुरूप
दूसरे द्वारा माने जाने वाले देवता को
देखते परखते या माप करते
अपनी धारणा से तय देवता से
दूसरे के माने जाने वाले आदर्श से
करते परख अपने द्वारा धारण आदर्श से
बनता जो अनबन का व्यवधान आपसी सामन्जस्य का
प्रवृति और निवृत्ति कर्म का मूल और
धर्म का प्रारम्भ मानते हैं
शुद्ध अजर अपरिणामी परमात्मा कहां कैसे?
पर भेद हमने गढ़ लिया है।
मात्र अपना ही दृष्टिकोण थोप कर
शरीर यह कन्या समान हमको मिला
पालन-पोषण करना जिसका बखूबी
पर नहीं कभी अपना मानना
निश्चिंत अगर होना चाहते
शरण भगवान की उसको सोंपना
ध्यान विदाई का रहे सदा शरीर अपना नहीं
व्यवधान फिर कैसे रहेगा?
(०३-०२-१०१०)
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