ओम राघव
आया नहीं कहीं से फिर जाना कहां?
प्रश्न से स्वयं ही उलझ रहा
अहसास मूर्छा का खेल
छोड़ एक जिंदगी...
दूसरी ढोता रहा
असहज रहा सदा मूर्छा से जागना
अवश्य तभी एक वाणी
क्षितिज से दुलारती थी
क्यों न अब जागकर
शरण में उसकी आ रहा
अस्तित्व मेरा मूर्छा मेरी
पुकारना किसका
समझ कुछ आने लगा है
शरण था, शरण हूं
शरण में आगे रहूंगा
स्वंय से कहना
स्वयं से कहता रहूंगा
सुनने वाला दूसरा कोई नहीं
मोहताज कल्पना के खेल का
अब न रहूंगा
याद कैसी और किसकी?
चक्करों में क्यों पड़ूंगा?
समस्या स्वयं, समाधान स्वयं
निदान भी खुद ही करूंगा।
Sunday, February 20, 2011
Saturday, February 12, 2011
समस्या
जीवन का आभास ही सबूत है
समस्या के आस्तित्व का
समस्या से रहित जीवन नहीं होता
समस्या सुलझाने की चाह होती है
प्रस्तुत समाधान करती महत्वाकांक्षा भी
कभी बन जाती अपनी समस्या
दूसरा नहीं होता कारण
समस्या के प्रसूत का
प्रेरणस्रोत मूलरूप से हम उसका
दोष पर दूसरों को देते रहते सदा
शरीर और कर्म का सद्पयोग होना चाहिए
सहनशक्ति स्नेह व सहयोग के साथ
सटीक निर्णय की त्वरित शक्ति चाहिए
नहीं कम गंभीरता भी समाधान जैसा चाहिए
होगा समस्या का अवश्य निदान
अपेक्षित कथित तत्व होने चाहिए।
ओम राघव
15-11-2010
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