Sunday, May 16, 2010

अनुभूतियां

ओम राघव
अनुभूतियों का अहसास होता इंद्रियों से
दृष्टा आत्मसत्ता जिस क्षण होती तिरोहित
इंद्रियां होतीं पर अनुभूति कुछ नहीं होती
माध्यम इंद्रियां बनती मूलतः अनुभूति आत्मा की होती
आस्तित्व बाहर न होता प्रकट अंतर से होती
आवरण देह-मन रूपी संस्कार पिछले
तारतम्य शिक्त पवित्रता का
दृष्टा आत्मा उसी आधार पर प्रज्वलित होती
भिन्नता होती परिमाणगत नहीं प्रकारगत होती
हृदय निर्मल कार्य पवित्र उन्हें उच्चकोटि की अनुभूतियां होतीं
एक छाया मात्र विकृत सत्य का जगत है कुछ भी नहीं
भ्रम से परिचालित दीखता जग है इच्छा जैसी अपनी
आत्मोपलब्धि की बने श्रेष्ठ अनुभूति
चरम है वह सबी प्राप्त अनुभूतियों का।।
(२०-४-२०१०)

Thursday, May 13, 2010

आत्मा

ओम राघव

स्वप्नकाल जैसा है प्रतीयमान दृश्य तो,
काल विद्या राग कला और नियति
जीव को आच्छादित करते
आयु की इयन्ता (काल) कुछ जान सकना (विद्या)
तृष्णा (राग) कुछ कर सकना (कला)
परतंत्रता (नियति)
संयुक्त उपरोक्त से संज्ञा पुरुष बनती
अनादि कर्म-अकर्म की वासना का समूह प्रकृति ठहरती
प्रसूत उनसे फल सुख दुख और मोह
पुरुष रूपी जीव को भरमाते शरीर देकर
भाष्य पदार्थों से रहित भान शक्ति
अधिष्ठत है आत्मा समग्रभाव से
नहीं विषय ज्ञान का स्वयं वही ज्ञान है
ज्ञेय पदार्थों का जैसे ही होने लगता निषेध
होने लगता बोध आत्म तत्व का
चैतन्य ज्ञात का ही परमार्थ स्वरूप है आत्मा
अदीखता, अजर, अमर, ब्रह्मस्वरूप जो भी नाम दो।
अदीखता अजर अमर ब्रह्मस्वरूप जो भी नाम दो।।
(१९-०४-१०)

Saturday, May 8, 2010

सत-चित-आनन्द

ओम राघव
ब्रह्माण्ड के मूल में
है विद्यमान एक शक्ति महत्वाशाली,
निरतशय ऐश्वर्याशाली
कहते परमेश्वर या परमात्मा
मायारूप मेघ बनकर
वही बरसता जगतरूपी नीर बनकर।
स्वयं वह न उसमें भीगता
विस्मृत स्वयं होकर विलग
जीव पूरी तरह से भीगता।
गुबार गर्द कोहरे से ढका
अपना असली चेहरा न दीखता
कैसा कैसा नहीं? परमात्मा
जानना न जरूरी साधक के लिए
मेरा है-उसका आस्तित्व रहेगा मेरे लिए सदा
हर क्षण दृढ़ आस्था के लिए सोचना
यही आवश्यक अपने लिए
चाहता सुख आनन्द हर जीव अपने लिए
वास्तविक इच्छा है सद-चित-आनन्द की।
शरीर संसार जड़ से पूर्ण हो सकता नहीं
जड़ सत्य व ज्ञान के वाहक नहीं
क्रिया और पदार्थ कार्य हैं प्रकृति के
निज स्वरूप में स्थित
असंशय हो शरीर और संसार से
कामना सदैव सुख की जीव की
सत-चित आनन्द की पूर्ण होगी तभी
संसार की कोई वस्तु नहीं अपनी
साथ-सदैव फिर कैसे रहेगी
अपने हैं परमेश्वर परमात्मा
दूरी फिर कहां कैसे रहेगी। (१५-०४-१०)

Tuesday, May 4, 2010

रसानुभूति

ओम राघव
शरीर मन स्वस्थ बनें जिम्मेदारी स्वयं की अन्य की होती नहीं,
स्मरण शक्ति तीव्र जिनकी, प्रशंसा विभूतियां उन्हें ही हस्तगत होतीं,
पाप कर्म स्वयं के प्रकट होते दंड के रूप में स्वचालित यंत्र की तरह
राग और द्वेष से बच सकें, पाप के प्रेरक दंड का भागी करें।
क्रोधी स्वभाव का परिणाम विवेक धैर्य स्वास्थ्य भी नष्ट होता,
धैर्य न विवेक से ढंग के और सुखदायी परिणाम बनता।
विशुद्ध करे प्रणी मात्र को सत्य में करे दीक्षित
सिद्धांत विशाल बने वही बन जाता धर्म मानव
शक्ति नियम में होती नियम अनुशासन बनाता,
ज्ञान की लालसा स्वयं में ही आनन्द है,
मिले आत्मिक रसानुभूति से
उससे बड़ा न कोई और आनन्द भौतिक जगत में।
(०९-०५-१०)

Sunday, May 2, 2010

जगत व्यवहार

ओम राघव
ज्ञान की होती सत्य रूपी वासना
इसलिए -जगत परिद्रश्य कि होती बाधित-मिथ्या वासना ।
कर्म का परिपाक करने काल को कल्पित किया ।
कुचेष्टाएं - पूर्व - काल की -बना संस्कार प्रभाव डालतीं ।
इसलिए मलिनता दोष बुद्धि में आ गया ।
शेष कर्तव्य - संकल्प से। बन जाती स्वत: काम वासना ।
दोष - चिंतन से हो विमुखता।
वैरागय से वह दूर होती मिटती जगत की हर वासना।
अपने अंत:करण की करनी सतत् परीक्षा और न सोच,
बचना करें अन्य की परीक्षा।
सिद्धि बस करनी आत्म-विज्ञान रुप की
भोग - रुपी अंकुर उत्पन्न् करता प्रारव्ध रुप बीज हो।
मन और वासना शांत हो-
प्रारव्ध-रुपी बीज नष्ट अवश्य हो सकें।
प्रतीती जगत की हो रही -
प्रारव्ध-रुपी दोष के कारण
जगत-व्यवहार-स्वत: चलता-स्वभाव-सिद्धि अनुसंधान से
बन जाता-वैरागय का कारन -
विषयों में दोष-दर्शन जब हो।
परम आत्मा धारण करता जगता को।
उसके ध्यान में चिंत की तत्र्परताकहलाती भक्ति है।
अनन्य- शरणागति से ही सुलभ-ज्ञान है ।
वांछनीय-जगत व्यवहार जल से ऊपर-
कमल की तरह खिल-
करनीय जगत व्यवहार हैं।
17-2-2010

Saturday, May 1, 2010

सानिध्य

ओम राघव
देखते परिणाम भले बुरे, सतसंग और कुसंग के
हो जाती वह मिट्टी भी सुगंधित
टूट पड़ता फूल गुलाब जिसपर,
वृक्ष चंदन की समीपता से
झाड़ झंकाड़ जंगल के हो उठते सुगंधित
जड़ जिन्हें हम समझते सानिध्य भले का
उन्हें भी मनभावना करता,
जैसे सान्निध्य संगत वैसा
आचरण व्यवहार बनता
परिणाम उत्तम सानिध्य उत्तम ला सकेगा,
गलत संगत असंगत परिणा का वाहक बनेगा
उपासना कृत्य आध्यात्म का
लाता और समीपता परमात्मा की
ईश्वर परमात्मा का सानिध्य नहीं आज का
सनातन है, रहेगा सदा ही
सानिध्य ही समीपता का पर्याय है।
(०५-०४-१०)