Sunday, August 30, 2009

दादा जी की संकलन से - भाग ३

समस्या
१. जीवन में जो समस्याएं होती हैं, वह मूलत हमारी इच्छाएं होती हैं।
२. ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई समाधान न हो।
३. समस्याओं को हम सुलझाना नहीं चाहते, क्योंकि हमें उनके साथ जीने की आदत पड़ जाती है।
४ हम समस्या रहित जीवन की उम्मीद करते हैं, यही सबसे बड़ी समस्या है।
५. कुछ लोग समस्या को इस तरीके से सुलझाते हैं कि कोई नई समस्या पैदा कर जाते हैं।
६ कुछ लोग समस्याओं को दूसरों के जरिए सुलझाते हैं, मगर चाहते हैं कि दूसरा उनके ही तरीके से सुलझाए, इस तरह यह भी एक समस्या बन जाता है।
७. समस्याओं का समाधान की तलाश में ही इतने पंथ बने। इन पंथों का आपसी टकराव फिर समाज के लिए नई समस्या बना।
५. समस्या के समाधान के लिए शासन व्यवस्था बनी। मगर इस व्यवस्था में व्यक्ति समूहों से प्रति दिन होने वाली गलतियां अनेक समस्याएं खड़ी करती हैं। प्रशासक के स्तर पर होने वाली गलती और भ्रष्टाचार से पूरा समाज समस्याग्रस्त होता है।

(विद्वानों के कथनों का संग्रह)

Friday, August 28, 2009

दादा जी के संग्रह से-भाग २

चार तरह की मानसिक तरंगे होती हैं, इन्हीं में दुख और सुख की अनुभूति छिपी है।

१ अल्फा- जब मस्तिष्क शांत, निष्क्रीय, तटस्थ और तनाव रहित होता है, यह प्रति सैकेंड ८ से १३ की आवृति (फ्रीक्वेंसी) करती है। ध्यान में स्थित योगियों में अल्फा तरंगे सक्रिय होती है। साधारण आदमी में भी जब यह उठती हैं तो आनन्द का अनुभव कराती है। अर्थात कुछ चीजों के दृश्य या श्राव्य प्रभाव से यह उत्पन्न होती हैं तो मानव आनन्द की अनुभूति करता है।

२. बीटा - इन तरंगों की आवृति प्रति सैकेंड १४ या उससे कुछ ज्यादा होती है। जब आदमी एकाग्रचित होकर किसी काम को करता है जैसे हिसाब-किताब या कोई गुत्थी सुलझाना। तभी यह सामान्य मस्तिष्क में सक्रिय होती हैं।

३ थीटा- प्रति सैकेंड ४ से ६ आवृत्ति, अर्द्ध निद्रा की अवस्था में यही तरंगे सक्रिय होती हैं।

४ डेल्टा- प्रति सैकेंड १ से ६ आवृत्ति होती है। ये निद्रा की अवस्था में ही सक्रिय होती हैं, जाग्रत अवस्था में नहीं होतीं।

मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में अल्फा और बीटा तरंगे एक साथ भी उठती रहती हैं। अंतमुर्खी व्यक्तियों में अल्फा तरंगे ज्यादा उठती हैं। अल्फा तरंगे आंतरिक कुम्भक और त्राटक के द्वारा भी मस्तिष्क में उत्पन्न की जा सकती हैं। त्राटक एक जगह ध्यान केंद्रित करने की क्रिया है। इस तरह मन को स्वस्थ्य रखने के लिए कुम्भक और त्राटक बड़ी ही उपयोगी क्रियाएं हैं।

(ओम राघव के संकलन से)

Thursday, August 27, 2009

दादा जी का संकलन - आध्यात्मिकता की ओर

दादा जी महान विभूतियों के विचारों और जीवन उपयोगी बातों का जो संकलन तैयार किया है उसमें से कुछ अपनी रुचि के अनुसार में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं -
बातचीत के शिष्टाचार नियम
१. दूसरे की बातचीत भी ध्यानपूर्वक सुनें।
२. अपनी बारी आने पर ही बोलें।
३. सभी को बोलने का समान अवसर दें।
४. अपनी बात को जबरन मनवाने का प्रयास न करें।
५. आवश्कयक हो तो चुप रहें।
योग के ८ आंग जो शास्त्रों में कहे गए हैं वे इस तरह हैं -
१. यम- अहिस, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
२. नियम - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रावधान
३. आसन - सुख पूर्वक, बैठना आसन कहलाता है। आसन ८४ होते हैं।
४. प्राणायम - जीव द्वारा प्राण वायु का लेना और छोड़ना
५. प्रत्याहार-उपवास, अल्पाहार और मितहारी होना।
६. धारणा -चित्त का किसी केन्द्र पर केन्द्रित कर देना। योगी २१ मिनट ३६ सैकेंड बिना श्वास के रह सके तब अनायास धारणा की सिद्ध हो जाती है। धारणा की सिद्धी से ध्यान के अभ्यास के योग्य योगी हो जाता है।
७. ध्यान- ग्यान एक सा बना रहना। जब मन निर्विषय हो तो वह ध्यान की अवस्था है। यह ४३ मिनट १२ सैकेंड की होती है।
८. समाधि- ध्यानावस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय। इन तीनों का ग्यान बना रहता है परन्तु जब ध्याता भूल जाता है कि वह ध्याता है, ध्यानरूप क्रिया भी भूलकर केवल ध्येय ही उसके लक्ष्य में रह जाता है तब इस अवस्था का नाम समाधि कहा जाता है। समय सिद्धि १ घंटा २६ मिनट और २४ सैकेंड समाधि की सिद्धि।
मोक्ष के साधन - यौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्रश्रवण, तपस्या, स्वध्याय, स्वधर्म पालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्त सेवन जय और समाधि।
( ओम राघव के संकलन से)

Tuesday, August 25, 2009

सुधीर राघव: वेद कालीन स्त्री - स्वतंत्र और पूजनीय#links

सुधीर राघव: वेद कालीन स्त्री - स्वतंत्र और पूजनीय#links
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सुधीर राघव: पुराणों की हिन्दू स्त्री#links

सुधीर राघव: पुराणों की हिन्दू स्त्री#links

पुराणों में स्त्री को ब्रह्महत्या के दोष से पीड़ित तक कहा गया है और यह दोष उसकी काम आतुरता की वजह से उसे मिला बताया जाता है-

Monday, August 24, 2009

आधुनिक कविता या अकविता

-ओम राघव
पुराना राग लगता बेसुरा, आधुनिक कविता सुनाओ,
पुरानी कविताएं सुन चुके, नया राग अब गुनगुनाओ।
मुस्कराना देख हो चांद मुख, कह डाला था कभी,
मिलन विरह के फेर में, थी बन गई कविता कभी।
मिलन बिछुड़न विरह अब आपका लकता नहीं
था अस्तित्व बाहर भाषता, आज अंतर में वही।
दीखता, क्षण भंगुर, रम अंतर में देता है आनंद वही,
केवल हम सुंदर लगें, वही होता केवल अच्छा नहीं।
वन सम्पदा मरुभूमि समतल लहलहाती भूमि भी
चन्द्र तारे और सूरज अस्तित्वहीन होंगे सभी।
आधुनिक कविता चाहे पात्र आधुनिक देखें,
विकास करती कविता शब्द और अर्थ देखें।
शब्द निःशब्द बने, प्रकृति जीव अविषय बने
भूखे प्यास आत्महत्या दूर हो तभी जीव मानव बने।
उड़ाते मजाक आधुनिक विकास का
बना निर्यात हर शहर नगर गांव कसबे का
लगा बदनुमा दाग सभ्यता के नाम पर
होते हैं करोड़ों अरबों के घपले विकास के नाम पर
विकास हो रहा सिर्फ कागजों पर
रुपया तो पैसा बन पहुंचता निर्दिष्ट स्थान पर
व्यय बजट में प्रावधान का पैसा
हो खर्च वहां जहां के लिए बना बजट
मात्र कुछ माह में ही प्रगति दिखाई देगी
न दिखाई दी जो वर्षों के अन्तराल में
विकासशील देश बने विकसित
राजनीतिग्य संबंधित अधिकारी सुनिश्चित कर सकें यह
कहीं यह स्वप्न रहे न दूर
उस क्षितिज के पार?
दिखाते हैं दिवास्वप्न सब
लेना होता है उनका वोट
जो है कीमती है उनके लिए
सूक्ष्म की स्थूल के प्रति प्रतिक्रिया
किसी भी वस्तु में प्रआम मान व्यक्ति सौन्दर्य
छायावाद कहकर पुकारें
प्राचीनता से मोहभंग राष्ट्रीयता
सामाजिकता धार्मिक चेतना
आदर्शवादी रुख बना द्वेवेदी युगीन
काव्य की संगत संवारें
राष्ट्रप्रेम का स्वर, रूढ़ियों का विखंडन
निर्गुण सगुण भारतेन्दु युगीन कविता कहाये
भोजपुरी, अवधि, मागधी
खड़ी बोली, भाषा ब्रज की अपनाएं
कविता चलती रहेगी, समाज का
मानस विचार ज्यों-ज्यों बदलता रहेगा
तुकांत अतुकांत का दौर भी चलता रहेगा
कहां तक दृष्टि तेरी असीम जिसका भाव हो
रस प्रेम शौर्य संतोष पैदा हो सके
वही कविता बने, चाहे फिर उसे
प्राचीन अर्वाचीन आधुनिक कविता कहो
शब्द घोड़े अर्थ घनेरे
संदेश शिक्षाप्रद बने
वह कविता ही वरदान हो।
(15 अगस्त 09)

Saturday, August 22, 2009

यह कौन अन्तःकरण

ओम राघव
भेद बन नाम रूप, सत्य कहीं जा कर छिपा दिया था,
अगर प्रकट सत्य हो, फिर कहाँ कैसा तिमिर था
नाम रूप स्वर्गिक छवि, प्रकटत: जिसे देखा हुआ,
अंत: प्रेरणा ही सत्य है, तब एसा नही समझा गया
आंनद प्रसूत अंत: प्रेरणा से, कुछ काल तक मिलता रहा,
समझ से दूर था वह, यह आनन्द रहे क्या सर्वदा ?
निज समझ से प्रसूत ग्यान, पर जिसे माना नही,
मानते गर तथ्य उसको, मार्ग साधन का सही
ना समझ या समझ कारण, एक व अनेक थे,
वातावरण या स्वयं दोषी, या समाजी दंभ थे
सत्य मे बाधक रही, स्व, गृहीत, कुत्सित भावनाए,
बनी जीवन की कारण, मानसिक -देविक यातनाएँ
हर शुभ जीवन के लिए, गुण -कर्म राह को ठुकराना,
न उनका अनुसरन किया, न अंतर का निर्देशन माना
सुन्दर आदर्श निर्देशन, कौन समझ तब पाता है,
समझे पूर्व संस्कारों बस, वही गुणी व्यक्ति कहलाता है
हक़ीकत बन छण बेला सी, बन स्वप्न, समझ आता नही,
अंतर की स्पष्ट समझ, तब तिमिर जगत रहता नही
लगता जब सत्य असत्य, कभी असत्य सत्य सा लगता है,
क्षण बदले लगे सत्य असत्य, वह न सत्य हो सकता है,
सत्य की भाषा पहचान सहज, जो एक रस सर्वदा रहता है,
घटता है न बढ़ता और न बदलता है, वह एक सर्वदा रहता है
क्षणिक मिली रोशनी से, त्रशा-तिमिर बुझती नही है,
हरकोण से जो जगमगाए, और स्थायी जलती रही है
वह निरंतर जल सकेगी, बाल-पन से अभ्यास चलता हो,
अनुकरणीय हो अंत: प्रेरणा, बस उसी का ध्यान रहता हो
संदेश वर्षो बाद भी, प्रकाश मुझ को दे रहा है,
दूर करता हर तिमिर को, आस पास मे घिरता रहा है

दोहा
आत्मा अंत: करण से, देती है आदेश ,
सत्य उसे मान लो, समझ बड़ा उपदेश

फिर तेरा कल्याण है, दूर नही फिर देश,
दर-दर तलाश में, घूमा देश - विदेश

Thursday, August 20, 2009

सुख -दुख

ओम राघव
कभी कहकर , कभी देकर दुख , कल्पते हम सर्वदा ,
दैहिक, दैविक और भौतिक, ताप देते हैं सदा।
है कहीं दुख और सुख , ज्ञान में आए नही,
तव देव वह मानव, दुखों को ध्यान में लाए नही।
ना दुख कहीं ना सुख कहीं, हो तटस्थ होकर सोचना,
असर किंचित ना पड़े , चाहे वाणी विरस अशोभना।
परीक्षा मानव - मन की , दिन रात होती है सदा,
नही होना उनसे दुखी, मानस निखरे सर्वथा
दुख आया ध्यांन में, मानव शक्ति नष्ट हो सर्वथा,
शक्ति ही जब नष्ट करली, सोचते फिर भाग्य में ये ही बदा।
सुख- दुख का दाता न कोई, सहने की आदत आ गयी ,
स्वकर्म के सब फल मिलें, समझो की मंज़िल आ गयी।
आत्मसंतोष हो जहाँ, वहां कष्ट आता ही नही,
सोचने का फेर केवल, फिर अन्यथा होता नही।
हो चित में परोपकार- त्याग, जितना सुख मिलेगा,
सुखदाता शुभकर्म हो, तब दुख भला कैसे मिलेगा।
ईर्ष्या ही दुख की जननी है, जो दुख पाने का कारण है,
पर- प्रगति से प्रसन्न रहे, दुख का सही निवारण है।
विपरीत सोच बदलने से, कल्याण अवश्य हो जाता है,
परिश्रम हो- पर हित हो, परिणाम भला हो जाता है।
परिणाम गलत तो परिदृश्य भी गलत ही दिखता है
चिंतन में मिले स्वदोष पर विलोम सा लगता है।
गर भाव मन के ठीक रहे , कर्म स्वत् ठीक हो जावेंगे,
अनुकरणीय, आदर्श कर्म, पीढ़ी की लीक बन जावेंगे।
ठीक लीक पर पेर रखें, परिवार- समाज सुधर जाएँ,
राज्य , समाज स्वत् ठीक चलें, मंत्र मुखर हो जाएँ।
सुधरे दूसरा इस चक्कर में , नही सुधरना चाहते है,
समाज सुधार की आशा केसे? हर जगह बहाना चाहते है।
नत्थू ऐसा-फत्तू ऐसा, नाम अरे बदनाम किया?
जिनने समाज को भ्रष्ट किया, उसने ऐसा काम किया।
आदर्श यहां अनेक हैं, गर इच्छा सुधार की रखते है,
भारत भूमि , विश्वासी भी, ज्ञान की थाती रखते है।
निक्रिष्ठ सोच व करम बदलने है, पर कार्य कठिन सा लगता है,
हम दृढ़निश्चयी बन जाएँ, फिर नही कठिन कुछ रहता है।
जीवन के कई जन्मों की, परिणाम की जाली लगी हुई,
सहज उतर नही पति है, जन्मो की कालिख लगी हुई।
सुख संस्कृति का धरा जननी , महासागर स्वय समेटे है,
महमानव जिनसे आदर्श मिले, वे इसी धरा के बेटे है।
आज पुरषों के आदर्शकरम , गर जीवन मे धारें हम ,
यह धरा स्वर्ग ही बन जावे, काम, क्रोध, दंभ को मारे हम।।
15-03-2002

नासा ने भी कहा-धरती पर जीवन अन्य ग्रह से आया

नासा ने अपनी साइट पर यह जानकारी डाली है कि धरती पर जीवन कहीं अन्य ग्रह से आया इसकी पुष्टि उसके प्रयोग से हुई है। नासा के डॉ जैसी एलसिला के अनुसार नासा के वैग्यानिकों ने जीवन के मूल तत्व ग्लाइसिन को एक धूमकेतु में पाया है। धरती पर जैव विकास की डार्विन से आगे की थ्योरी लेकर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के माल्युकुलर जीव वैग्यानी जैम्स ए लेक भी हाजिर हैं।
इस संबंध में विस्तार से पढ़ें- http://sudhirraghav.blogspot.com/

Wednesday, August 19, 2009

जीवन धुन्ध

-ओम राघव
याद करने पर भी, न वे क्षण लौटते न दिन
न वे बातें लौटतीं और न दादा-दादी नाना-नानी
न माता-पिता मौसी-बुआ का प्यार लौटता
लगता था सारा परिवार और रिश्ते बने हैं अपने लिए
याद आती टीस उठती कहां-कब कैसे गया चला
वह समय जो अब इतना दूर है
किशोर अवस्था खेलते-कूदते बीत गई
प्यार मिला, साथी मिले-जंगल पार्क में
उठते-बैठते
आई फिर स्वर्णिम युग सी लगती युवावस्था
लगता सदा रहेगा फैलता इसका प्रकाश
मिले विचार कहीं नींव पड़ी मित्रता की
कहीं पायी वैर-भाव ईर्ष्या की सामिग्री
अधिक कुत्सित और गर्हित विचारों की शृंखला
आदिम युग में भी न रही जैसी
सभ्यता विकास का ओढ़ रखा आवरण
विकास देखा पर मानवता देखी दूर जाती
पर समझा उसे स्वर्गिक प्रकाश रहेगा
स्थाई या फिर सामाजिक प्रवाह
नित नई सभ्यता की ओर उन्मुख
जब वह जीवन भी समझ न आया
एक अस्थाई पड़ाव
हुआ वह भी विदा
जैसे बचपन भागा छोड़कर
मात्र धुंधली सी यादें लगता
देखा था एक स्वप्न
यौवन की स्वर्ण अवस्था भी हो गई तिरोहित
देखकर कोई दिवास्वप्न जाग पड़ा जैसे गहरी नींद से
समय की गति चलती रही
जो चली है सृष्टि के पूर्व से ही
गति तेज हवा की गति से भी तेज
कैसे कटा?
मधुर स्वर्णिम लगा जीवन
बचपन युवावस्था और जरा
तीव्रतर रही जीवन की गति
आवृत्तियां मात्र मधुर व कड़वे फलों की
वायु की गति न गलती वैसी क्षणिक
जैसी लग रही समय की तेज गति
जो हृदय को इतना सालती
कोई निशां छोड़ आई है नहीं लगता
चीर डाले नहीं तो हृदय के तन्तुओं को
वाहन यान वायु बह रहे हैं आज भी
देती हैं तारोताजगी वैसी ही-जैसे
मां ने लिया हो प्रथम बारी गोद में
जीवन कितनी दर्दीला क्षणिक
पग-पग पर होता अहसास
गया चला कितनी दूर
वह स्थान वह प्यार संबंध मधुर
अब दिखे जो मात्र धुंध ही
हर खेल जीव का, एक लम्हा-एक बुलबुला
कैसा जीवन- कैसा मरण।
कब-किस युग से चल रहा यह चक्कर जीव का
मिले स्थाई मुकाम क्योंकि नहीं ये अंतिम
मुकाम सोचते जो अंतिम परिणाम इसे
भटकाव उनका दूर मंजिल ही रहेगी
और रहेगी परिणाम में केवल जीवन धुन्ध।।
(3 नवम्बर2005)

Tuesday, August 18, 2009

जीव कालचक्र

-ओम राघव
प्रथम बीज अंकुरित हो एक नया चक्कर चलता है,
किसलय पुष्प बन वांड्गमय सुरभित बनता है
प्रसूत फूल या फल से, वह चक्कर चलता है,
कड़ी एक से दूजी, फिर तीसरी जा बनता है।
सिलसिला नहीं खत्म होता कई जन्म तक जाकर
कटते नहीं बंधन, षट रोग से प्रीत लगाकर
ग्रंथि च्कर में पड़ा होता ग्यान नहीं है,
मन माया से निकले, यह आसान नहीं है।
मत अनेक ग्रंथ वैदिक, पंथ भी समझाते हैं
भवसागर हो पार, युक्ति सभी बतलाते हैं।
कहें संत का वरद्हस्त, कल्याण जीव का होता
ग्यान हुआ तो धाम का मिलना सरल है होता।
शृंखला जीवन पर्यंत प्राण के साथ अभिन्न रहेगी
बदले नाम और रूप, निशेष न भिन्न रहेगी।
गर दें छोड़ नाम और रूप, इति इंद्र जाल होता है,
दिखे भिन्नता जब तक, नाम-रूप ही दिखता है।
कहें गर ये फंद आकर अब नहीं कटता है,
चौरासी का चक्कर, भुगतना फिर पड़ता है।
आप्त पुरुषों ने ग्रंथों का सार यही निकाला है,
भव सागर से तरे स्वयं, औरों को तारा है।
युगों-युगों तक जीव, काया रूपी वस्त्र बदलता,
जब तक नहीं वह अपनी मंजिल को पाता।
समझो शुद्ध स्वरूप, आत्म तत्व का ग्यान हो गया,
मिली अमरता, पार जीवन का उद्धार हो गया।
(11 मार्च 02)

Sunday, August 16, 2009

जिन्ना के अनुयायी

बड़ी-बड़ी बातें करते थे
ये कैसे भाजपायी निकले
सावरकर की बात छेड़कर
जिन्ना के अनुयायी निकले।
(यह कविता विस्तार से पढ़ने के लिए इस ब्लॉग पर जाएं-

http://sudhirraghav.blogspot.com/

Saturday, August 15, 2009

जिन्दगी

-ओम राघव
लगती जिन्दगी इक पहेली सी,
पिछले अंक की कड़ी है, सफर जीव का
रहा शेष कल का, भुगतान अब कर रहा,
ले-दे रहा शेष था जो किसी का
खोज पर पता शायद लगे, सिलसिला क्या ये नहीं
चला ये चक्र क्यों और कैसे
समझना कहां इतना सरल,
प्रथम जन्म के कर्त्तव्य रह गए थे अशेष।
जिन्दगी का जोड़ हर मोड़ बनता नव जन्म पर,
चाल जिससे जिन्दगी की सतत चलती रहे
आधार किसी संकल्प का जीव
पूर्णमानव हो गया।
न मिलता सामाजिक परिवेश जीव का क्या पशुवत न होता,
सिखाया समाज ने पीना-खाना चलना फिरना
वाणी दी भाषा अथाह धरोहर दी विचारों की
नहीं संभव था बिना समाज सब
कितना ऋण समाज का।
विचार व्यक्ति की महत्त या समाज की
फिर भी चला समाज निर्माण
व्यक्ति एवं व्यक्तियों के समूह से
व्यक्ति की उपलब्धि प्रगति सभ्यता लायक
बना समाज के लिए
समाज से ही सीखकर
व्यक्ति के बिना समाज समाज बिना व्यक्ति
क्या नहीं अधूरा एक-दूसरे के पूरक
महत्त्वपूर्ण समाज व्यक्ति विशेष के संदर्भ में
सब कुछ पहले सीखा समाज से
वर्षों बाद व्यक्ति ने दिया नई खोज नव विचार
मात्र दो या चार पर बातें हजारों के लिए
वह ऋणि समाज का
समाज की अवहेलना सोचना केवल अपना भला
कर दूसरों की आलोचना हित साधक बन
भूल जाता समाज भी उसे
था अमुक अंग-संग उसका।
प्रगतिवान-चरित्रवान सुन्दर या असुन्दर
कैसा है समाज करता क्या निर्भर उन प्राणियों पर
रहते जो उस समाज में
सार्थकता व्यक्ति के अस्तित्व की
कर्म समाज वास्ते बन शुभ उसका चिन्तन
दे समान अवसर रोजी-रोटी मकान
शिक्षा क्षमता बढ़ाए जिससे
समान अवसर प्रतिभा चमके स्वयं ही,
योग्यता आधार बन निरंतर समाज का
उत्कर्ष ही
जिन्दगी बनेगी एक निधि आपसी सहयोग
कष्ट बिना हो आसान जीना सभी का
दूसरे के सुख-दुख में बांट सके हाथ
मिले परम सुख शांति मन से तन से।
नियंत्रण करना आ गया मन के विकारों पर
समझो जीना जिन्दगी का आ गया।
जीओ और जीने दो का सूत्र और सुयोग
अगर पा गए स्वर्ग बन जाएगी धरा धाम ही
उपजेगा-सुख ही सुख चारों ओर
दूर भाग जाएगी कलह-दरिद्रता।
(01-05-02)

Friday, August 14, 2009

आजा़दी

-ओम राघव
कुछ बोले, आज़ादी मिल गई,
कुछ बोल, कहां आज़ादी
कुछ ने कहा, दुनिया पर छा जाएंगे
कुछ बोले, बढ़ी आबादी।
कुछ कहते, सब लोहा मानेंगे,
कुछ बोले, बस बर्बादी।
सबको सब कहने-सुनने की
है भाई पूरी आज़ादी
जिनको लगता नहीं मिली है
उनको भी तो है आज़ादी।
जय हो आज़ादी। जय हो गांधी।

कान्हा का संदेश

-ओम राघव
कान्हा तुमने कर्म का संदेश दिया
कान्हा तुमने प्रेम का संदेश दिया
कुछ कर्म विहीन तुम्हारे संदेश
के मंदिर बनाकर कमा रहे हैं,
कुछ तुम्हारे संदेश को भुलाकर
तुम्हारे ही नाम पर लड़ रहे हैं।
तुमने कहा है कि यह तुम्हारी ही माया है
मैं इस माया को नहीं तुम्हें प्रणाम करता हूं,
जन्मदिन मुबारक हो।

Wednesday, August 12, 2009

चलते फिरते लोग

-ओम राघव
चलते-फिरते, हाड़-मास के बने मगर कार्टून
बने गुलाब, मधुर रक्ताभ कोई, रीत गए
कितने वंश पीढ़ी दर पीढ़ी न देखा अवसान दिन का
रात्रि का बीत गया कब पहर, ऐसा श्रम किया।
अग्यानता या विवशता
न होता गर इनका श्रम,
विकसित होना तो दूर
कठिन होता विकासशील रहना भी
संतोष भाग्य को निर्णायक मान न दिया किसी को दोष
भले ही हो गया शीलहरण
भोले पक्षियों को बहलाना फुसलाना आसान है
दिखाते उन्हें रहे दिवा स्वप्न
बढ़ाते सामाजिक राजनीतिक प्रभुत्व अपना
फूट वैमनस्यता का बीज बो
धर्म की बातें न सिखा-सिखाते अधर्म ही
कहते धर्म वह -जो वे सिखा रहे सरताज बनकर
विग्रह से तो टूटेगी प्यार की रस्सी ही,
न्योता देगी जो अवांछित क्रांति को
जगती सारी बच सके भारी विनाश से.
संभलो-संभलो कर्णधार देश के
प्राथमिकता हो-मानसिक, शारीरिक आर्थिक
व्याधियों से मुक्त हो समाज
अवश्य ही ऐसी योजना हो।
(5 दिसंबर 2005)

Tuesday, August 11, 2009

पीएम इन वेटिंग

हमें मिले पीएम इन वेटिंग
जिनकी नहीं बची है रेटिंग
पार्टी वाले बात न पूछें
बच्चे ही अब उखाड़ें मूछें
मीडिया वाले आस न पालें
कोई अपना घास न डाले
बोले, भइया क्या बतलाऊं
कैसे अपना हाल सुनाऊं
महंगाई बढ़ती जाती है
भाव सुन फटती छाती है
शर्म नहीं पीएम को आती
रोटी संग अब दाल न आती
सब्जी की तो पूंछो मत ना
घी-दूध हुआ अब सपना
अगर पीएम हमको बनवाते
इतना तो न दुख उठाते।
उनकी सुन पप्पू मुसकाया
झट निकल कर बाहर आया
ऐसा था तो पहले कहते
तब घाटे में काहे रहते
तब हिन्दू-हिन्दू चिल्लाये
आम आदमी की सुध नाय
मंदिर तब इकलौता मुद्दा था
महंगाई में जीव फंसा था
अब बहुतेरे रंग मत बदलो
बुढ़ापे में एक प्रण लो
भला-बुरा पहले विचारो
और एक राह अपना लो
मजहब, धर्म ईमान की बातें
गीता और कुरान की आयतें
सब पवित्र हैं, कैसा भेद
मनवता को मत इन से छेद
आओ करें विकास की बातें
एक अरब की सुख सोगातें।
-सुधीर राघव
11-08-09

Monday, August 10, 2009

बाबा

एक है बाबा, उसका ढाबा
चल निकला तो शावा! शावा!
नहीं थी उसकी महिला मित्र,
देखा उसने तब चलचित्र
मन की कुंठा बाहर आई,
हीरोइन को खरी-खरी सुनाई,
कोई न बोला, सुनकर वाह!वाह!
एक है बाबा, उसका ढाबा,
चल निकला तो शावा! शावा!
बाबा ने तब आंख दबाई,
नहीं मिली उसे कोई दवाई
बस पब्लिक की सांस फुलाई
आंख मूंद कर करी कमाई
उस पर खूब ग्यान का दावा
एक है बाबा, उसका ढाबा,
चल निकला तो शावा! शावा!
जितने गे गुंडे मवाली,
सब पर उसने की कव्वाली,
गालों पर तो भी नहीं लाली
अपने गुरु की साख दबा ली
बुरे लगें गिरजा और काबा.
एक है बाबा, उसका ढाबा
चल निकला तो शावा! शावा!
-सुधीर राघव
09-08-09

कालखंड

-ओम राघव
हो सकता है, काल खंडित, क्या हम ऐसा मान लें,
बंटा क्षण-पल घट ध्वनि में ऐसा जान लें।
पहर दिन रात सप्ताह, पक्ष महीना मान लें,
वर्ष ऋतुएं जन्म बचपन युवा मृत्यु जान लें।
शताब्दी युग-कल्प वायु प्रकाश गति से जान लें,
काल को कर लें विखंडित, और खंडित मान लें।
ठहरा कहां द्रुतमान कब, यह नहीं हम आंक पाये,
कलयुग द्वापर आदि युग जिसे नहीं बांध पाये।
कालखंडित नहीं, समाजिक व्यवस्था चल सके,
समझकर की है व्यवस्था, मानव आवस्था पल सके।
मानव जीव की केवल, व्यवस्था यह नहीं है,
प्रकृति के हर अंग में, यह व्यवस्था पल रही है।
निश्चित गति में, पृथ्वी चांद सूरज चक्कर लगाते हैं,
ब्रह्मांड के ग्रह अन्य भी स्वर में स्वर मिलाते हैं।
प्रतिपल जीव की धड़कन यही संदेश देती है,
न लांघो सीमा समय की, यह संदेश देती है।
विभिन्न व्यवसाय, कल कारखाने, समाजिक व्यवस्था के इदारे,
समय-सीमा में चलें मानव जीवन के सहारे।
निर्माण प्रगति में हो सहायक, अधिकांशतः होता नहीं,
बहुधा काल का प्रयोग सद्पयोगमय होता नहीं।
शुभ अशुभ कहते कभी, काल है मंडित नहीं,
प्रकृत गति अपने बांटने से ही काल है बंटता नहीं।
बांटने से काल व्यवस्था दिख सकती है,
काल नहीं है खंडित, वह आदि शक्ति है।
काल एक विचार शक्ति, सृजन पालन करता है,
एक महायुग में रह कर सृष्टि विसर्जन करता है।
होने से प्रेरणा काल की, सृष्टि कर्म चल पड़ता है,
जीवजंतु ग्रह आदि का, उद्भव कर्म बन पड़ता है।
जीव प्रकृति ग्रह आदि काल को माप रहे हैं,
सूर्य चंद्र मंडल सौर, उसीको जाप रहे हैं।
है जब तक अग्यान, रहे काल माया का चक्कर,
हो जाए जब ग्यान, तभी हो सत्य का दर्शन।
रहे वेद ग्रंथि में जीव, अग्यानी भ्रमित होता,
प्रतिभासित ये कालखंड, युगों-युगों तक भासित रहता।
खुलें अंतक्षचु पड़े न दीख काल माया की सूरत,
समझ पड़े जैसे ही ग्यान, खंडकाल की न पड़े जरूरत।
बाद प्रतिबिम्ब सत्य देखता कालखंड नहीं है,
दीखे साश्वत स्वयं व्याप्त और अखंड वही है।
न आना जाना कहीं, न दिन और रात कहीं है,
सत्य युगों से बोला था, जो ब्रह्मानंद वही है।
दोहा
आ जाए जब ग्यान, कुछ भी रहे न भिन्न,
अन्तर चक्षु जब खुल गए, सबकुछ लगे अभिन्न।
(29-03-2001)

Saturday, August 8, 2009

आधुनिकता

-ओम राघव
संस्कार प्रभाव बदलता है निरंतर,
कलात्मक-सौन्दर्य की ओर होता अग्रसर।
कहते कुछ साम्राज्य विरोधी, जगरण है,
यथार्थ के निकट है, मूल्य हीनता ही आवरण है।
संस्कृति पूर्व की निष्ठा न मानो, आधुनिक कहलाओ,
न समझो प्रकृति न ब्रह्म माने, प्रगतिशील कहलाओ।
माने ब्रह्म सर्वोच्च हम पिछड़ते हैं,
अविकिसत बना देश, जकारण इसे मानते हैं।
भविष्य के गर्त में क्या छिपा किसको पता,
जान लें पहेली, यह आवश्कयक नहीं रहा।
भविष्य का क्या सोच, वर्तमान का ध्यान हो,
आधार भविष्य का निश्चय यह जान लो।
वर्तमान को जानलें, भूत को समझना आसान है,
भूत कारण इसका, भविष्य का अवसान है।
मूल्य हीनता आधुनिकता का मूल्य है,
मानदंड ही श्रेष्ठता का, साहित्यक मूल्य है।
साहित्य मूल्य खो रचना किधर जार ही,
गर्व आधुनिकता का मूल्य सारे खो रही।
यथार्थ हो आदर्श मंडित, समाज सुमार्ग पर चले,
साहित्य रचना इस तरह, प्रेरणा दायक बने।
सबकुछ खत्म हो न सबको जोड़ पाये,
परम्परा की बात अच्छी, व न मिटने से मिटाए।
अंध विश्वास परम्पराएं, गलत सब टूट जाएं,
विभिन्नता विचारों की वेशक मिट न पाये।
तथ्य सहित देना विवरण, सभी का अधिकार है,
सर्व हारा नारि शक्ति, विवेचन का आधार है।
स्वतंत्रता का अर्थ दूसरा आहत न हो,
स्वत्व जो अन्य का, उसकी कभी चाहत न हो।
साहित्य व कर्म वह, जो मन से मन जोड़ दे,
आधुनिकता वह ही बने, कर्मठ प्रगति में मोड़ दे।
दोहा
शुभ विचार और कर्म से हो सब प्रगतिवान।
सच्ची आधुनिकता बने लें इसको पहंचान।।
(23-03-02)

Friday, August 7, 2009

उड़नतस्तरी

सबने देखी उड़नतस्तरी
कुछ बोले, इसमें नर है,
कुछ ने कहा, नहीं स्त्री।
सबने देखी उड़नतस्तरी
(यह कविता पूरी देखें -
http://sudhirraghav.blogspot.com/

Thursday, August 6, 2009

दिव्य झरना -

ओम राघव
बहता जहाँ दिव्य झरना
ऊँचे पर्वत की श्रेणी पर
हर तृषित जीव वहाँ चाहता जाना
कर सके मन आँख शीतल डुबकी लगा
ताकि हो सके आंनद मय जीव
चलने की नही जब तक तीव्र इच्छा
अधिकांशत मुश्किल होता है चलना ही
सीढ़ी प्रथम चढ़े स्वयं नर
यह संस्कार बस ही होता
है कठिन मंज़िल दुरूह , फूलती साँस
चला ना जाए अनवरत निरंतर चलता
ध्यान , खेल कभी समझ ना आता
मन चन्चल कपि समान
दूर तक दौड़ा जाए उछल कूद कर पर
अटल अचल ही मन जीव का साथ निभाए
उसकी कृपा से बने ध्यान
एकाग्रता मन की हो जाए
छोर सीढ़ी का मिले पगडंडी
मिले मंज़िलें दिव्य झरने की
हो जाए आसान पहुँच प्राणी की
अनवरत चल कर ही सुन पड़े अनहद नाद उसीका
आनन्द मय दिव्य झरना
बहा जा रहा युगों -युगों से
पुकार रहा हर मानव को
चलना ही नही चाहता
देख भयनक राह मुड़-मुड़ आवे जीव
खा रास्ते की ठोकर
हाथी चीते रीछ भयानक
मिले राह में
अंजानी होती राह या फिर भूली जो लगाती
हज़ारों टक्कर
मन कचे के साथ ना बन पाएगी बात
मार्ग कठिन मंज़िल फिर कैसे आएगी
बिगड़े मन सभी रास्ते और ठिकाने
उल्टे सीधे करता यत्न और इच्छाएँ पाले
ये ठीक रास्ते ना दे जाने
जो मार्ग पकड़ा सही नही छोड़ा जाता है
पुनः वहीं चंचल मन को जोड़ा जाता है
मिले देखते धार दिव्य झरने की
मन डूबे उतरावे निरत सुरत में
धन्य ही हो जावे फिर जीव
हो जाता मार्ग मंगलमयी
थकान ख़त्म युगों युगों की .
दोहा
आनंद ही आनंद है एक बार मिल जाए।
कृत्रिम दुनिया के आनंद है यहां ठिकाना नाय।।
१३-०५-२००१

Wednesday, August 5, 2009

उद्भोदन-3

बीती बातों को भूलो, अब आगे की अच्छी सोचो,
भला हो मानव जाति का, ऐसी युक्ति की सोचो।
हों दो अरब हाथ, उस देश को करना क्या मुश्किल?
प्रचुर भंडार शक्ति का, उस देश को करना क्या मुश्किल?
योजनाएं अब ऐसी हों, हर हाथ जिनसे काम मिले,
खाली हों हाथ जहां इतने, अपराध भला क्यों न हों?
योजना अभी ऐसी बनी नहीं, खुशहाली नहीं आ पायी,
अपनी संस्कृति भी भूल गए, उल्टे तंगहाली आई।
नेता, विग्यानी, पूंजीपति, बुद्धिजीवी व युवावर्ग,
रवैया हो सहयोगपूर्ण, योजना बनाएं बिना फर्क।
कृषि कारखाने आदि का, ऐसे सुधार किया जाए,
निरंतर समाज प्रगति पर, बेरोजगार न कोई रह पाये।

समय अधिक अब बचा नहीं, जलती मही पर बैठे हैं
लोभ-क्रोध ऐश्वर्य के बल, बड़े गर्व से ऐंठे हैं।
जिन बातों व कार्यों से, है लगता कष्ट तुम्हे भारी,
अपने पर अंकुश लगा सकें, सुख पाये मानवता सारी।
उल्टा देते कष्ट दूसरों को, खुश हम फिर हो जाते हैं,
आवाज न आत्म की सुनकर, मनभावन करते जाते हैं।
आशा करते जगत पुरुष, ऐसा निष्कर्ष निकालेंगे,
गरल-सिन्धु में डूबी मानवता, उसे कुछ भान दिलावेंगे।
परमात्मा दे सद्बुद्धि हमें, मन रहे सदा परहित में,
कोई जीवन कभी कष्ट पावे, हिलमिल जीएं मरें पर हित में।
दोहा
बीते दुर्गुण भूल जा, मतकर उनकी याद।
अब पर हित होवे सदा, कर प्रभु से फरियाद।।

Tuesday, August 4, 2009

उद्बोधन-2




-ओम राघव
जहां भी देखें और सुनें, भ्रष्टाचार दिखाई देता,
आदर्शों का शिरोमणि देश, पतित दिखाई देता।
आपाधापी दिन-रात लगी, है मृषित जनता सारी,
दुर्भाव न जब-तक बदलेंगे, दुख पाये मानवता सारी।
जो बोना वही काटना है, सत्य सनातन सत्य है ये,
आप्त वचन ये ऋषियों के, हर समय हर जगह सत्य है ये।
समाज के ये नेता, मन से तन से शुभकर्मा न बन पाये,
दृष्टि भविष्य को देखती है, विकराल रूप रख कर आए।
चक्रवात, भूकम्प आदि विश्व को दुखी कर डालेंगे,
सृष्टि की इति के आयुध बना लिए, ये भष्म कर डालेंगे।
चित्र भयाभय यह कितना, समझ में न यह आ सकता,
लोभ-ईर्ष्या कहां छोड़ेंगे, क्या कुछ नहीं फिर हो सकता।
इस तरह अति हो जाती है, परिणाम भयानक होता है,
सोचो शुभ भला कर, परिणाम सुखद ही होता है।
अति से पहले अच्छा है, हम सब लोग सुधर जाएं,
आदर्श राम-बुद्ध नानक के, जगत पुरुष सब अपनाएं।
शंकर, कबीर, महावीर, नरेन्द्र व ऋषिवर दयानन्द,
रविदास आदि संतों के कर्म पैदा करते हैं आनन्द।
जो भटके आदर्शों से, उन्हें मार्ग पर लाना होगा,
नेता ही जिम्मेदार नहीं, सबमें सुधार लाना होगा।
विग्यान जनित योजना बना, तन-मन से कोशिश करते,
आरूढ़ होते प्रकृति पथ पर, सम्पन्न और हर्षित होते।


उद्बोधन-1

-ओम राघव
काश, धरा से ऐसे अमृतधारा फूट पड़े
कलह-द्वेष-विष, दुष्कर्म कहीं न दीख पड़े।
इस धऱा पुण्य पर सदा, सुख-शांति की सरिता बही रहे
सारा समाज सुख सुविधा से, सदा फूलता फला रहे।
हों धर्म पारायण सब नेता, जनता धर्म पालने वाली हो,
स्त्रियां सद आचरण हों, मर्यादा रखने वाली हों।
सामाजिक बल नैतिक शिक्षा, जब नारी को मिल जाएगी,
तब सभी क्षेत्र में मानव जाति, प्रगति के पथ पर आएगी।
माता, बहिना अबला का, सहयोग चरित बल साथ में हो,
कार्य योजना सफल रहे, पारंगत क्षेत्र हाथ में हो।
वर्ग व्यवस्था ऐसी हो, जहां राजा-प्रजा भाव न हो,
मिलकर रहें जिग्यासू जन, कोई द्वेष स्वभाव न हो।
शुभ नैतिक आचरण नहीं, जब तक क्रिया में होंगी,
भ्रष्टाचार आतंकवाद के नाटक बंद नहीं होंगे।
अहित सोच हिंसा करना, अन्त में काम न आते हैं।
आप्त पुरषों के आदर्श पर, चले नहीं सत्ताधारी,
जनता ने जिनकों सौंपी थी, सत्ता की जिम्मेदारी।
प्रभुता पद कुर्सी पाकर, प्रगट पर अभिमान किया.
बहलाई जनता शब्दों से अपना ही कल्याण किया।

तीन पग में विष्णु ने कैसे नापी धरती

कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने तीन पग में यह धरती नापी थी। ऋग्वेद में यह संकेत इस तरह मिलता है कि भगवान विष्णु तीन चरण में यह धरती बसाई। इस संबंध में विस्तार से पढ़ें -
http://sudhirraghav.blogspot.com/

Monday, August 3, 2009

विचार

-ओम राघव
जहॉं भी देखें-सुनें, क्रोध-काम का गरल दिखाई दे,
दुख जीवों का बांट सके, वह दीन न कहीं दिखाई दे,।
वर्गों में बंटे इस विश्व का ढांचा बिगड़ रहा है
पैदा कर उन्माद विश्व की बाहं मरोड़ रहा है।
अर्थहीन- अर्थवान का कैसे हो सामंजस्य
दो किनारे एक नदी के मिलें न कभी सहर्ष।
किसी समस्या का हल हमेशा होता युद्ध नहीं,
एक डोर से बांधे हरजन, ऐसा क्रोध नहीं है।
बांधेगी केवल प्रेमडोर, इस सारी बसुधा को,
तभी मानव कर पायेगा, सार्थक निज जीवन को।
एक-दूसरे की पीड़ा जब तक स्वयं को कष्ट न देगी,
व्यापक तत्व आत्मा की दृष्टि तब तक नहीं होगी।
कष्ट सहे जीव मन दुखी रहे, कोई न दिखाई देता,
सत्य यही अपना न कोई, परिहास दिखाई देता।
शरीर मिला जिस हेतु तुझे, उसे निभाना भूल गया,
चक्कर में मन-माया के पड़, बुरी तरह से डूब गया।
संकेत आए पर ध्यान नहीं, बालों को काला करा लिया,
नव जीवन के भ्रम में पड़ कर, कृत्रिम दांतों को चढ़ा लिया।
जगह न कोई समय नहीं, रोके मौत के तांडव को
काल का हर क्षण अपनाता है, कब धक्का दे नराधम को।।
दोहा
गांव-शहर गलियां-स्वजन, कभी मिलें फिर नाय।
जीवन यह अनमोल है, मत गप-शप में निपटाय।।

Saturday, August 1, 2009

विचार-2

-ओम राघव
आदत गलत पड़ जाए, वह छोड़ी नहीं जाती,
आदत बन जाती स्वभाव, तो छूट न पाती।
कटने लगता कर्म से, आदत गलत राह ले जाती,
नर ने अगर नहीं त्यागा, त नर्क द्वार ले जाती।
गलत राह छोड़, सद् मार्ग पर चलने वाले जाने जाते,
डाकू बहुत रहे सदा अनजाने, महाऋषि ही पहचाने जाते।
पूर्व कर्म त्याग सारे ग्यान चक्षु फिर खुलने लगे सारे.
आत्म तत्व को जाना, आहत पक्षी को देखा वाण लगे।
मानव को तुच्छ समझते थे, हृदय परिवर्तन कर ऋषि बने,
पूर्ण ग्यानी होकर स्वयं, विश्व के ग्यान रूप का आधार बने।
क्षमादान मांगा आखेटक ने, निःसंकोच क्षमा से लाद दिया,
प्रताप तपस्या का देखो, लाखों का जीवन साध्य किया।
उदगार हृदय से निकल पड़े, रामायण सुन्दर ग्रंथ बना,
आदर्शरूप राम का वर्णन कर, कितना सुन्दर तथ्य गुना।
सीता व पुत्र लव-कुश को, पाला बेटी पोते सम,
शस्य-शास्त्र की शिक्षा दे वे रहे नहीं किसी से कम। रामराज सब का समाज, धर्म परायण नर होंगे,
बसुधैव कुटम्बकम, सर मंत्र परायण सब नर होंगे।
महिमा पुण्य धरा की, यह तब ही बन पायेगी,
स्वर्ग से बढ़कर मानव जाति, यह गुण विकसित कर पाएगी।
दोहा
पानी जैसा बुलबुला, मानव का अस्तित्व।
कहां कब चल पड़े, छोड़ के पांचो तत्व।।

विचार-2

-ओम राघव
आदत गलत पड़ जाए, वह छोड़ी नहीं जाती,
आदत बन जाती स्वभाव, तो छूट न पाती।
कटने लगता कर्म से, आदत गलत राह ले जाती,
नर ने अगर नहीं त्यागा, त नर्क द्वार ले जाती।
गलत राह छोड़, सद् मार्ग पर चलने वाले जाने जाते,
डाकू बहुत रहे सदा अनजाने, महाऋषि ही पहचाने जाते।
पूर्व कर्म त्याग सारे ग्यान चक्षु फिर खुलने लगे सारे.
आत्म तत्व को जाना, आहत पक्षी को देखा वाण लगे।
मानव को तुच्छ समझते थे, हृदय परिवर्तन कर ऋषि बने,
पूर्ण ग्यानी होकर स्वयं, विश्व के ग्यान रूप का आधार बने।
क्षमादान मांगा आखेटक ने, निःसंकोच क्षमा से लाद दिया,
प्रताप तपस्या का देखो, लाखों का जीवन साध्य किया।
उदगार हृदय से निकल पड़े, रामायण सुन्दर ग्रंथ बना,
आदर्शरूप राम का वर्णन कर, कितना सुन्दर तथ्य गुना।
सीता व पुत्र लव-कुश को, पाला बेटी पोते सम,
शस्य-शास्त्र की शिक्षा दे वे रहे नहीं किसी से कम। रामराज सब का समाज, धर्म परायण नर होंगे,
बसुधैव कुटम्बकम, सर मंत्र परायण सब नर होंगे।
महिमा पुण्य धरा की, यह तब ही बन पायेगी,
स्वर्ग से बढ़कर मानव जाति, यह गुण विकसित कर पाएगी।
दोहा
पानी जैसा बुलबुला, मानव का अस्तित्व।
कहां कब चल पड़े, छोड़ के पांचो तत्व।।